Tuesday, May 17, 2022

“आओ लिखे - ७वीं कहानी” कहानियाँ, परिणाम व समीक्षा

   

 






 













मतलब हार और जीत का

नैनी ग्रोवर


अंबर..चल जल्दी कर ना...

आ रहा हूँ पार्थ..कितनी हाय तौबा मचाता है...

फ़िल्म की शुरुआत निकल जायेगी...

नहीं निकलेगी, चल... अंबर ने बाइक की चाबी उठाते हुए कहा...

एक ही बाइक पर चलते हैँ ना...

अरे आते हुए आज रेस करेंगे, रात को सड़क खाली होगी, बहुत दिन हो गए...

रहने दे ये रेस वेस...

आज करते हैँ ना...

तू नहीं मानेगा, पर मुझे रेस नहीं करनी...

तू डरपोक हार से डरता है...

ये ही समझ ले...

चल अब....

दोनों अपनी अपनी बाइक स्टार्ट कर सिनेमा हाल के लिए चल दिए...


फ़िल्म देखने के बाद दोनों ने हाई वे पर बने ढाबे पर खाना खाया...

चल अब देखते हैँ कौन जल्दी घर पहुँचता है...अंबर बोला...

मैं तो आराम से चलूँगा...

तो ठीक है, मैं चला... अंबर ने बाइक को दौड़ा दिया..

पगला है...पार्थ ने सर को झटका दिया और वो भी घर की और चल दिया.. दोनों बचपन के दोस्त थे, साथ ही खेले, पढ़े, स्कूल से लेकर कॉलेज तक कभी अलग नहीं हुए थे, दोनों की दोस्ती सारा कॉलेज और वो कॉलोनी भी जानती थी, जहाँ दोनों का घर था...

कॉलोनी से कुछ ही दूर पार्थ ने रास्ते में रुक कर दो मीठे पान मम्मी पापा के लिए बनवाये और फिर चल दिया, अचानक उसकी नज़र रास्ते में सड़क पर एक तरफ साइकिल गिरी हुई साइकिल पर पड़ी, उसके पास ही एक एक आदमी सड़क पर गिरा मारे दर्द के कराह रहा था, रौशनी इतनी ना थी के वो ठीक से चेहरा देख पता, उसने बाइक रोक दी...

क्या हुआ आपको...?

जवाब में सिर्फ दर्द भरी कराह आई...

पार्थ बाइक से उतर आया...

करीब आते ही उसने देखा के ये उनकी ही कॉलोनी का चौकीदार था..

अरे ओम काका... आप... क्या हुआ...

बेटा.. एक मोटर साइकिल वाला धक्का दे गया...

ओह...अच्छा चलिए.. मैं आपको अस्पताल ले चलता हूँ...

पार्थ ने साइकिल को एक तरफ किया, और मुश्किल से ओम काका को अपने पीछे बाइक पर बिठा कर पास ही के अस्पताल में ले गया, डॉ ने बताया के चोट बहुत लगी है, दाहिना हाथ टूट गया है, सर पर भी आठ टाँके आये हैँ, ओम काका को अस्पताल में भरती करवाना पड़ा....

काका... आप आराम कीजिये, मैं सुबह आऊंगा, सबको खबर कर देता हूँ, आपके घर पर भी...

जीते रहो बेटा... तुम ना मिलते आज तो पता नहीं क्या होता...

कुछ नहीं होता काका...आप आराम कीजिये...ओम काका को कुछ पैसे पकड़ा कर वो घर लौटा ही था के अंबर का फ़ोन आ गया..

हेलो...

कहाँ रह गया था तू... एक घंटे तक तेरा इंतज़ार गली के बाहर ही करता रहा, तेरा फ़ोन भी नहीं लग रहा था...

मैं अस्पताल गया था,  नेटवर्क प्रॉब्लम थी वहां...

अस्पताल... क्यों...?

पार्थ ने उसे सब बता दिया...

दूसरी तरफ खोमोशी थी...

हेलो... अंबर...

पार्थ...मुझे ये नहीं पता था के वो ओम काका थे, पर वो एक्सीडेंट मुझसे ही हुआ था, और मारे डर के मैं वहां से भाग आया...

तू... तुझसे एक्सीडेंट हुआ...?

हाँ यार... गलती हो गई...

तू इंसान है या शैतान, बजाये उस इंसान को अस्पताल ले जाने के तू उसे रास्ते पर छोड़ कर भाग आया किसी कायर की तरह..?

माफ़ करदे यार...

माफ़ी जाकर ओम काका से मांग, और उनके परिवार से, उस गरीब की क्या हालत है पता है तुझे..?

मैं सब करूँगा, सुबह होते ही अस्पताल जाऊँगा...

मेरा मन तो कर रहा है के पुलिस को खबर कर दूँ, पर क्या करूँ तू दोस्त है मेरा...

माफ़ कर दे ये प्लीज़, मैं आज के बाद कभी ऐसा नहीं करूँगा.. मैं सोच रहा था के मैं जल्दी आ कर जीत गया, पर हक़ीक़त में तो मैं इंसानियत में तुझसे कोसों पीछे रह गया यार..जीता तो तू है, भगवान का शुक्र है तू पहुंच गया वहां...अंबर रो दिया...

चुप हो जा..और अब जितनी हो सके हमें ओम काका की मदद करनी है, और कसम खा के कभी इस हार-जीत में नहीं पड़ेगा...

कान पकड़ता हूँ कभी नहीं...

ठीक है..वैसे काका अब ठीक हैँ, दाहिने हाथ में प्लास्टर लग गया होगा अब तक, टाँके तो मेरे सामने ही लग गए थे, मैं उनके घर फ़ोन कर देता हूँ, ताकि उनका बेटा अस्पताल चला जाए...

ठीक है.. थैंक्यू यार, सुबह जल्दी चलेंगे अस्पताल...

ओके.. अब जाके सो  जा..!


*****

पड़ोसन

पुष्पा कुमारी "पुष्प"



"आज गर्मी बहुत है!"

अपने नए फ्लैट में सामान जमाती सरिता ने वहीं सेंटर टेबल पर रखा पानी का बोतल उठा लिया लेकिन बिसलरी की उस बोतल में घूँट पर भी पानी नहीं बचा था।

"रुको!.मैं कहीं बाहर से पानी लेकर आता हूंँ।"

यह कहते हुए राजेश उठ खड़े हुए लेकिन सरिता ने उन्हें रोका..

"बाहर बहुत तेज धूप है!"

"एक काम करो!.पड़ोसन से एक बोतल पानी मांग लो।" राजेश ने सरिता को सलाह दी।

"नहीं!.रहने दीजिए।"

"क्यों?"

"सुबह आपने देखा नहीं!.मेरे नमस्ते का जवाब भी नहीं दिया उसने।"

"कैसी बातें कर रही हो सरिता!.उसके ससुर जी ने तो हमारे नमस्ते के जवाब में नमस्कार कहा ही था।"

"हांँ!.लेकिन वह दोनों बाप-बेटे तो थोड़ी देर ठहरें भी नहीं,.तुरंत अपने काम पर चले गए!.और मैं नहीं जाती किसी का दरवाजा खुलवाकर पानी मांगने।"

यह कहते हुए सरिता वहीं पड़ा अखबार उठा उलट-पुलट करने लगी।

पति का तबादला इस नए शहर में हो जाने से अपना कस्बा छोड़कर यहां बड़े सोसायटी में रहने आई सरिता ने पहले से ही सुन रखा था कि,.बड़े शहरों में लोग ऐसे ही होते हैं। कोई किसी की खोज-खबर नहीं रखता लेकिन उसे खुद भी ऐसे पड़ोसी मिलेंगे यह उसने सपने में भी नहीं सोचा था।

"आपने आर.ओ इंस्टॉल करवाने के लिए कस्टमर केयर में फोन लगाया था ना?"

"हांँ!.फोन तो लगाया था मैंने।"

"फिर उन्होंने अभी तक किसी को भेजा क्यों नहीं?.जरा एक बार फिर से फोन लगा कर देखिए ना!"

राजेश जी अपने मोबाइल पर कस्टमर केयर का नंबर दोबारा डायल करने लगे तभी अचानक दरवाजे की घंटी बज उठी..

"लगता है आ गया!"

यह कहते हुए सरिता ने लपककर दरवाजा खोला। बगल के फ्लैट में रहने वाली वही पड़ोसन सामने खड़ी थी जिसने सुबह सरिता के नमस्ते का जवाब में बस मुस्कुरा दिया था।

अपने हाथ में थामा पानी का बोतल सरिता की ओर बढ़ाते हुए वह मुस्कुराई..

"आंटी!.अंकल!.मैंने आप दोनों का भी लंच तैयार कर दिया है।"

"नहीं,.नहीं!.रहने दीजिए बेटा!.हम खाना बाहर से मंगवा लेंगे।"

सरिता ने टालना चाहा लेकिन सरिता के मन में आकार लेता गलतफहमियों का महल अचानक भरभराकर ढह गया जब उसने सरिता का हाथ थाम बड़े अपनेपन के साथ मनुहार किया..

"चलिए ना आंटी!.पड़ोसियों को एक दूसरे के लिए इतना तो करना ही चाहिए।.है ना अंकल!"

गलतफहमियों की दीवार ढ़हते ही अपनी बेटी के उम्र की उस पड़ोसन के अपनेपन के आगे सरिता के अहम ने हार मान ली।

सरिता अपने पति राजेश की ओर देख रही थी और राजेश मुस्कुरा रहे थे मानो कह रहे हो कि,..

"आखिर ऐसे ही तो होते हैं पड़ोसी।"

*****



हार-जीत

हरीश कण्डवाल ‘मनखी’


त्रिलोक और रमेश दोनों पड़ौसी है, लेकिन दलगत राजनीति में दोनों की विचारधारा एक नदी के दो तीर है, जब भी चुनावी माहौल होता है तो दोनो पड़ौसी आपस में तर्क वितर्क करते हुए कुतर्क पर पहॅुच जाते हैं। दोनों चुनाव के समय अपने अपने प्रत्याशी के साथ चुनाव प्रचार में लग जाते हैं। नतीजन जब भी उनके समर्थित प्रत्याशी जीतते है तो वह उसे स्वयं की जीत हार समझते हैं।  और हर शादी विवाह या अन्य सार्वजनिक कार्यो में दोनों ही एक दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं।


विधानसभा के चुनाव का समय आ गया, अब दोनों गॉव की दुकान में बैठकर केन्द्र से लेकर देश विदेश की राजनीति पर अपना ज्ञान उडलने लगते हैं। दोंनों अपने सोशल मीडिया यूनिविर्सटी के ज्ञान के भण्डार को प्रवक्ता बनकर एक दूसरे पर हावी हो जाते है।  त्रिलोक और रमेश की यह राजनीतिक प्रतिद्वद्विता पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध थी। उनको उनके आदर्श नेता के नाम से लोग बुलाते। विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपने क्षेत्र में अपने प्रत्याशी से ज्यादा भीड़ जुटाने के लिए कोशिश स्वंय करते हैं। त्रिलोक तो ऐसे मनोयोग से कार्य कर रहा था जैसे उसकी बेटी की शादी हो रही है। ईधर रमेश छत में बैठकर मजा ले रहा था। त्रिलोक के समर्थित उम्मीदवार ने भाषण में जनता को लुभाया, और त्रिलोक के गले में फूलों की माला डालकर उसके जयकारे लगाये, त्रिलोंक नेता की तरफ कम और रमेश की तरफ ज्यादा कुटिल मुस्कान से देख रहा था।


शाम को आंगन मे त्रिलोक ने जोर जोर से बोलने लगा कि इस बार तो हमारी जीत तय है, ताकि रमेश सुन ले। रमेश उधर अपने प्रत्याशी के लिए उससे दुगनी भीड़ जुटाने के जुगाड़ में लगा हुआ था चाहे अपने जेब से लग जाय लेकिन वह त्रिलोक से ज्यादा भीड़ जुटायेगा।  अगले दो दिन बाद गॉव में रमेश के प्रत्याशी की जनसभा रैली तय हो गयी, रमेश ने भी फूक झोपड़ी देख तमाशा वाला काम किया, उसको अपने प्रत्याशी की जीत नहीं बल्कि त्रिलोक को अपनी जान पहचान और अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन करना ज्यादा जरूरी प्रतीत हो रहा था।


चुनाव की तिथि तक दोनों खूब एक दूसरे पर छींटाकशी, व्यंग्य करते, और एक दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करने पर लगे रहते।  शाम को त्रिलोक चुनाव प्रचार करके आया और उसकी तबियत कुछ नासाझ सी लगने लगी, उसने अपने विधायक प्रत्याशी को फोन लगाया वह मीटिंग में होने के चलते फोन नहीं उठा पाया, जब तबियत ज्यादा बिगड़ने लगी तो त्रिलोक की पत्नी सुधा रमेश के घर गयी और सारी बात बतायी।  रमेश ने कहा कि उसका समर्थित उम्मीदवार आयेगा जिसके लिए वह प्रचार कर रहा है, उसकी जीत ही तो उनसे है। इतना सुनते ही रमेश्ां की पत्नि मीना ने कहा कि तुम इन राजनीति के चक्कर में अपना पडौस धर्म भूल रहे हो, काम हमने एक दूसरे का आना है, चुनाव हो जायेगें जीतने वाले एक दिन क्षेत्र में घूमने आ जायेगे हारने वाले अगले दिन से चार साल तक चेहरा तक नहीं दिखायेगें, लेकिन हमने तो हमेशा साथ ही रहना है। अपनी पत्नी मीना की बात सुनकर रमेश त्रिलोक को देखने चला गया, वहॉ त्रिलोक को माईनर अटैक पड़ा था, रमेश ने उसकी हालात देखी और अपने जानने वाले गाड़ी वाले को फोन किया ।


इतने में त्रिलोक के प्रत्याशी का फोन आया तो उसने हाल चाल जाना लेकिन आने की असमर्थता का बहाना बना दिया।  कुछ देर में ही गाड़ी आ गयी और रमेश  त्रिलोक के साथ अस्पताल चला गया, वहॉ डॉक्टर ने कहा कि अगर आपने देर कर दी होती तो इनकी जान जा सकती थी।  उसके बाद त्रिलोक ने रमेश को धन्यवाद करते हुए कहा कि आज मेरी हार और आपकी जीत हुई है, आज उसको चुनावी रिश्ते और धर्म से ज्यादा  बड़ा मानव और पड़ौस धर्म लगा। आज रिश्तों की जीत हुई थी संबंध जीत गये थे और राजनीति हार गयी थी।


*****


हार-जीत

डॉ नूतन गैरोला जी

हरदीप ने कल दिन में ही जूते धो कर चमकाए थे| उसकी माँ ने आठ महीने पहले मेले से सस्ते दाम में खरीदा, बड़ी यतन से संभाला ट्रेक सूट बक्से से निकाल कर, धो कर धूप में रस्सी में डाल दिया था। हरदीप को वह जूता ताऊ जी ने दिया था जो शिवांश का था| रेस के बाद यह जूता ताऊ जी को लौटाना भी होगा| हरि ने कई सालों की लगातार मेहनत से जिला स्तरीय दौड़ तो जीती थीं पर अबकी यह प्रदेश स्तरीय रेस उसके लिए बहुत अहम् है| 

आज सुबह साढ़े चार बजे ही हरि के ताऊ ताई जी घर आ उसकी पीठ ठोक गए थे कि रेस के वक्त खुद पर विश्वास रखना और पूरी जान लगा देना। ताई जी डिब्बे में बंद कर पूड़ी, आलू की सब्जी ले आई थी। मां ने देवी की तस्वीर के आगे माथा टेका, दही चीनी से मुंह मीठा करा, कई बलाये ली| 

हरि बिष्ट गुरु जी के साथ सुबह शहर क्रीड़ास्थल पहुंचा तो समूह -'क' की रेस में हरदीप नाम देखा। दौड़ भी शुरू होने वाली थी, उससे पहले खुद को हल्का और तरोताजा करने के लिहाज से हरि पास ही के टायलेट में गया| अभी वह पहुंचा ही था कि वहाँ एक आदमी औंधे मुंह गिरता दिखा उसके माथे से खून की फुहार फूट पड़ी और उसके मुंह से गें-गें की आवाज के साथ झाग निकलने लगा| शायद मिर्गी के झटके आ रहे थे उसे| 

हरि ने खिड़की के कांच से दूर ट्रेक की ओर जाते धावक देखे| उसका मन ट्रेक पर जाने को मचलने लगा जहां उसका भविष्य और घरवालों के सपने थे पर एक अनजान उसके पैर के पास गिरा तड़प रहा था|

यह आदमी जाने किसका पिता होगा? उसके पिता भी तो ऐसे ही चल बसे थे| 

कहीं वह आदमी बाथरूम में मर गया तो? 

नहीं, इन्हें मरता छोड़ वह कैसे दौड़ पाएगा। 

उसने तुरंत आदमी की गर्दन सीधी की और जेब से रुमाल निकाल रक्तसत्राव रोकने के लिए उसके घाव पर दबाव बनाया| शौचालय आतेजाते लोगों ने संवेदना जताई पर मदद के लिए रुका कोई नहीं | अचानक उसे बाहर एक सफाई कर्मचारी दिखी| हरि चिल्लाया – इधर आइए, इन्हें देखिए। फिर बताया किस स्थिति में वह व्यक्ति उसे मिला जबकि उसकी रेस प्रतियोगिता थी| आदमी बेहोश था पर हरि के दिमाग में विचारों रस्साकस्सी चल रही थी| इसी बीच स्त्री दो अन्य कर्मचारीयों के साथ टेम्पो बुला लाई| वे उस आदमी को अस्पताल ले गए| हरि दौड़ कर क्रीडामैदान पहुंचा तो रेस समाप्त हो चुकी थी| मैदान में पहले, दूसरे, तीसरे स्थान पर आए खिलाड़ियों को बुलाया जा रहा था। हरि ने, परेशान बिष्ट गुरु जी को आपबीती सुनाई तो वे दौड़ते हुए निर्णायक मण्डल के पास गए| 

हरी अजीब उदासी और लाचारी से घिरता जा रहा था। इस हारजीत में वह कहीं भी शामिल न था| ताऊ जी डाटेंगे पर माँ तो रो ही पड़ेगी| अचानक हरि ने अपना नाम सुना| हरि भौचक्क सा सुनने लगा।

उद्घोषणा हो रही थी- 

हरदीप! आप जीवन की कसौटी के सच्चे खिलाड़ी हो और मानवता तुम जैसे लोगों की वजह से बची है। हमारी नजर में आप विजेता हो| किसी की जान बचाने के लिए अपनी दौड़ छोड़ने वाले हरदीप का जिलास्तरीय रेस रीकॉर्ड भी बेहतरीन है अतः इसी रेस के समूह-ग में उन्हें प्रदर्शन का मौका दिया जाएगा|

तीनों जजों ने बारी बारी से हरि को कंधे में चढ़ा कर मैदान का चक्कर लगाया| पूरा पवेलियन और मैदान करतल ध्वनियों से गुंजायमान था| पत्रकार हरि का साक्षात्कार लेने कैमरा लिए इंतजार करते दिखे किन्तु हारजीत के विचार को दरकिनार कर हरि स्वयं को रेस के लिए केंद्रित कर दृढ़ कर रहा था| 

*****



सपनों की जीत

प्रतिबिम्ब बडथ्वाल ( प्रोत्साहन हेतु )


"मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत।।" यह बात सच्ची है बेशक नियति अपना प्रभुत्व बनाये रखती है लेकिन मन का विश्वास, संकल्प बहुत कुछ बदल सकता है. 

काया के लिए उसका २०वाँ  जन्मदिन का दिन बहुत बुरा गुजरा था. उसके सारे सपनों पर जैसे किसी ने बुरी नज़र लगा दी हो. पढ़ने में तेज और बहुमुखी प्रतिभा की धनी काया को सफल पत्रकार बनने की आशा थी. और उसके लिए उसने मॉस कम्यूनिकेशन में ही अपनी पढाई करने का विचार बनाया. पिताजी एक आर्मी आफिसर हैं व माता जी एक शिक्षित व कुशल गृहणी हैं. अच्छे संस्कार उसे उन्हीं से मिले हैं. लेकिन युवा मन अपने ही साथ पढने वाले रंजन पर आ गया.  बहुत सी बातों में दोनों की सोच एक सी थी. लेकिन कभी उसने प्यार का इजहार नहीं किया. 

प्रार्थना एक मात्र ऐसी सहेली है काया की जिससे वह अपने मन की सभी बातें साँझा करती है लेकिन उसने रंजन के बारे में उसे भी नहीं बताया. बस इंतजार था तो ऐसे पल का जब वह रंजन को अपने मन की बात कह पाती. और अपने जन्मदिन पर उसने मन ही मन फैसला भी लिया कि आज वह रंजन से अपनी बात कह देगी. स्वयं पर उसे विश्वास भी था और आशा भी कि रंजन उसे सहर्ष स्वीकार कर लेगा. 

जन्मदिन पर उसने कुछ खास दोस्तों को न्यौता दिया था. गिनती के 6 दोस्त थे उसके.  तय समय पर रंजन सहित सभी दोस्त आ गए.  शुभकामनाओं के साथ उसके दोस्त उपहार लेकर आये थे. काया फूले नहीं समां रही थी जन्मदिन की ख़ुशी,  दोस्त उपहार  के साथ साथ उसको रंजन को अपने मन कीबात भी बतानी है. यह सोच कर ही उसके पैर जमीं पर नहीं पड़ रहे थे. दोस्तों के लिए खाना लाने के लिए वह किचन मे जाकर माँ की मदद करने लगी. स्टार्टर लेकर वह हाल में पहुंची तो रंजन व प्रार्थना नज़र नहीं आये. उसने आते ही पूछा “ अरे ये दोनों कहाँ गए”

राज ने उत्तर दिया  “अरे जाने दे न दोनों कब से मौका ढूंढ रहे थे बालकोनी में गए हैं तू बस ये रखते जा हम खाते रहेगे, बड़ी भूख लग रही.” 

काया को अपने कानों पर विशवास नहीं हो रहा था. उसने खाना टेबल पर रखा और जल्दी से बालकोनी में चली गई. वहां रंजन और प्रार्थना एक दूजे की बाहों में बाहें डाले खड़े थे. उन्हें देखकर काया उलटे पाँव लौट आई. 

उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था. चुपचाप वो दोस्तों के बीच आकर बैठ गई. रंजन और स्वयं को लेकर उसने इतने सपने संजो लिए थे वे बिखरे नजर आने लगे. तभी सुमन ने उसे हिलाते हुए बोला “अरे तू कहाँ खो गई कोई याद आ गया क्या कौन है वो?”

काया जैसे नींद से जागी हो मन मस्तिष्क बिलकुल भी वहां नहीं थे उसे पता ही न चला दोस्त क्या बात कर रहे थे और वह स्तब्ध सी केवल मुस्करा दी. 

तभी रंजन और प्रार्थना भी आ गए  और आते ही कहा “गाइज, तुम सब लोगों को एक खुश खबरी देनी है हम दोनों जल्द ही शादी कर रहे है. आज यह बात हम अपने माँ पिताजी को बताने जा रहे हैं . आज हमारी सब से प्रिय सहेली  काया के जन्मदिन पर हम इस निर्णय को अपने लिए शुभ मानते हैं.... सभी चिल्लाकर उन्हें बधाई देने लगे. 

पार्टी तो ख़त्म हुई लेकिन काया उस रात सो नहीं पायी लेकिन अगली सुबह उसकी सुबह थी. काया ने रंजन और प्रार्थना का सच स्वीकार कर मन बना लिया कि अब वह अपनी पढ़ाई पर ध्यान देगी और एक सफल पत्रकार  बन कर ही कोई प्यार या विवाह का सोचेगी. संवेदनाओ को उसने अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया. 

आज ५ साल के बाद काया जब पीछे मुड कर देखती है तो उसे अपने द्वारा लिए गए फैसले पर गर्व होता है प्यार में हार कर भी उसने अपने सपनों पर जीत दर्ज की थी.  

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हार जीत का व्यापार

संदीप गढवाली


बात कुछ और थी मगर लोग कुछ और समझ रहे थे ।

प्रेम और दया दो सगे भाई थे दोनो । एक दूसरे पर जान छिड़कते थे । मगर एक रोज दोनो में इतनी दूरी बढ़ी की वो कभी एक न हो सके।

हुआ यूँ कि प्रेम और दया की शादी हो गई दोनो के ससुराल वाले राजनैतिक घरानो के लोग थे । मगर दल अलग अलग थे । प्रेम और दया के पिता स्कूल से एक अध्यापक पद से रिटायर हुये थे और गाँव देहात में मास्टर जी का मान सम्मान बहुत होता है । मास्टर जी लोगों को गाँव की चौपाल में चाय की दुकान पर जहाँ समय मिलता समझाते रहते । उन्हे अपने अधिकार पहचानने को कहते ।

अब दया और प्रेम के ससुराल वाले नही चाहते थे कि लोग शिक्षित हों जानकार हों और हमारे बोट बैक विगड जाये । उन्होने अपनी अपनी बेटियों को मंहगे उपहार देने शुरू किए फिर जब बेटियों की लालची इच्छायें बढने लगीं तो लोहा गर्म देख उन्होने हथोडा मारा बेटियों से कहा तुम दामाद जी को मनाओ चुनाव लडने के लिए पैसा पोस्टर बैनर सारी ब्यवस्था हम करेंगे ।

अब उन्होने अपने पतियों को बार बार ये जताते हुए बताना सुरु किया कि इतनी सुख सुविधायें ये सभी तो हमारे पिता की दी हुई है और तुम उनका उपयोग कर भी रहे हो तो क्यों उनकी बात से इनकार करते हों ।

प्रेम और दया अपने पिताजी के पास आये और सारी कहानी सुनाई '

मास्टर जी बोले बेटा अगर ये राजनीति साफ सुथरी होगी तो चुनाव लडने में कोई हर्ज नहीं है मगर ध्यान रहे । सच्चे मार्ग पर सिर्फ मान सम्मान और दाल रोटी ही मिलती है सुख सुविधाएं नही ।

दोनो ने अपने अपने ससुराल जाकर चुनाव लडने के लिए हाँ भर दी खेल अब शुरू हुआ जब दोनो भाई एक दूसरे के बगैर खाना नही खाते थे आज उनके ससुराल वाले समझा रहे थे कि अपनी कोई भी बात एक दूसरे को नही बतानी होगी इससे तुम हार जाओगे ।

जीत दोनो भाइयों को प्यारी थी दोनो मान गये ये सोचकर की चुनाव के बाद तो फिर पहले जैसा ही हो जायेगा ।

मगर कुछ लोगों ने उनके कान भरने शुरू किये अब धीरे धीरे उनके आदर्श आचार विचार सब धूमिल होने लगे उनके मन में न दया रही न प्रेम

फिर एक दिन परिणाम आया दया जीत गया और प्रेम हार गया ।

दया के घर में ढोल नगाड़ों की थाप थी वहीं प्रेम के घर अंधेरा था । दोनो का आँगन एक था दया ने अपने समर्थको को कहा मेरा पहला काम इस आँगन का बंटवारा करके बीच में . दीवार करना है । मास्टर जी ने अगले दिन दोनो भाइयों को और उनकी पत्नियों को बुलाया और कहा मेरे बच्चों आज तुम्हे न अपने भाई की जीत की खुशी है और न ही अपने भाई के दुख में साथ देने का समय । सोचो तुमने क्या कमाया ।

जो राह जो जीत जो लोग दो सगे भाइयों के बीच में इतनी नफरत पैदा कर दे वो किसी का भला नहीं कर सकते मेरे बच्चों तुम जीते नही हो तुमने जीत खरीदी है अपने संस्कार बेचकर अपना प्रेम अपनी दया अपना फर्ज अपने रिश्ते अपना खुशहाल वक्त बेचकर ।

इसे हार कहते हैं क्योकि अब तुम्हारे पास सिवाय जीत के कुछ नही है ।

इसे कहते हैं सबकुछ हार कर जीत । इस जीत के सीमित मायने है सिर्फ तुम तक तुम हार गये बच्चों क्योंकि तुमने अपनो को खो दिया ।

*****


आश्रिता

अलका गुप्ता 'भारती'


यह केवल एक तश्वीर नहीं है । जीती जागती एक हकीकत है ।भूख और जरूरत जो न कराए वह थोड़ा है ।

वह बहने हैं जिनका जर्जर बाप मौत के मुहाने पर पड़ा है । दुर्भाग्य से दोनों ही विधवा बन पितृ आश्रिता बन पुनः पिता के पास लौट आईं थीं। लेकिन वही आज उस वृद्ध एकाकी पिता के लिए आधार और सहारा बन कर उभरी हैं ।

क्या रोना ससुरे उन बीते हुए लाचार बंजर से पलों का जहाँ वह स्वयं को सुघड़ वधुएं साबित न कर सकीं ।

ख़ुद को अबला महसूस कर जिस सहारे की ओर लपक आईं थीं उसका ही आज वह सशक्त सहारा बनी हैं। जिस पिता ने उन कन्याओं के लिए सदा अपनी किस्मत को कोसा था और स्वर्ग के द्वार अपनी जिस लाठी पर गर्व से भरोसा किया था वही पढ़ लिखकर परदेश में बस गया था । माँ के बाद वात्सल्य लुटाती इन प्रौढ़ बहनों को बोझ समझ जो अपनी ही दुनिया में खो गया था वहीं ..आज भी पितृ मोह में फंसी ममतामयी इन नारियों ने अपने इस शेष परिवार के पेट की आग बुझाने को बिन बैलों की गाड़ी के जुए अपने कांधे पर धर लिए हैं जिसे वह सम्पूर्ण हौसले से खींचती हुई नजर आ रही हैं और वह आज किसी की भी आश्रिता नहीं हैं ।

*****

हार जीत

आभा अजय अग्रवाल


सिक्के के दो पहलू ,सदा साथ ही रहते हैं ,इकदूजे के बिना किसी का कोई अस्तित्व नहीं पर एक दूसरे को न देखने को अभिशप्त ।

पीठ से पीठ टिकाये बैठे हैं साथ बतियाते हुए ।

सोच भी क्या है पल में कहीं भी घूम आती है ,आज अनु बहुत दिनों बाद फ़ुरसत में थी तो सागर किनारे रेती में बैठने आ गयी ।आँखे चली गयीं कहीं दूर बीते समय के पास

वो और अनय पीठ से पीठ टिकाये बैठे हैं इसी जगह पे ।आज दोनों ने सिक्का बनने की ठानी थी ।स्पर्श की अनुभूति पर बिना देखे बतियाना ।

बचपन के फुर्र होते ही पढ़ाई ,खेलकूद ,सीखना /सिखाना नैन मट्टक्का ,आवारागर्दी ,प्यार …प्यार पाने के लिये संघर्ष ,समाज उफ़्फ़ ! अफ़रातफ़री के इस दौर में बेमतलब का बतियाना क्या होता है दोनों भूल ही गये थे तो आज बिना देखे स्पर्श की अनुभूतियों संग कुछ हल्कीफुल्की बातें करेंगे यही ठानाहै !

मिलन की ख़ुशी में दोनों के शरीर फूलोंसे लदी शेफाली की डाल की भाँति प्रफुल्ल ,महमह महकते हुए और मन झरती शेफाली की मानिंद सिंदूरी उज्ज्वल ,

गुनगुनाने लगे मन तो गीतों में ढल गयी बतकहियाँ …

अनय बेसुरा हुआ तो अनु गुनगुनाई

रे मन सुर में गा

दिल जो धड़के ताल बजे रे

ताल ताल में समय चले रे

समय के संग हो जा …

अरे चुप भी करो अनु अभी तो समय को भूलभाल बस यूं ही पीठ के बल टिकी रहो भारहीन अवस्था ,,

अनु गुनगुनाई ..छुए कोई मुझे पर नज़र न आये ..

तो अनय का तड़का..

तुम बिन जीवन कैसा जीवन

फूल खिले तो दिल मुरझाये

आग लगे जब बरसे सावन .

अरे भगवन अब तो हम साथ हैं न ।मिलने के लिये किये संघर्ष

का भी अपना मज़ा है न ..

हाँ ये तो है पहली झलक पे तेरा मुंह फेर के जाना और मन ने गाया..

कच्ची कली कचनार की

हाय रे क्या समझेगी बातें प्यार की ..

हीहीही मुझे भी याद आ रहा शायद मैं गुनगुनाई थी ..

कह दो जी कह दो छुपाओ न प्यार

कभी कभी आती है झूमती बहार …

सच में क्या दिन थे ज़िंदगी के संघर्षों संग प्रीत का संघर्ष भी

बेदर्द मुहब्बत का इतना सा है अफ़साना

नज़रों से मिलीं नज़रें दिल हो गया बेगाना..

अरे सभी जिम्मदारियों को ढोते हुए भी …

मिलो न तुम तो हम घबराये

मिलो तो आँख चुराये वाली स्थिति उफ़्फ़ …

आज बिना इकदूजे को देखे हम एक वादा करते हैं ,

बोलो !

जीवन कोई भी रूप दिखाये हम अपने जीवन से संगीत न मिटने देंगे !

वाह ! यही मैं कहना चाह रहा था ।मुस्कुराहट खिल उठी चेहरों

पे जो केवल महसूस की गयी पीठ की आँखों से ।

मतलब तो एक है नैनन पुकार का ..

जो हम तुम चोरी से बंधे इक डोरी से …तो अब सारी बतकहियाँ धूप में सूखते क्लिप से बंधे कपड़ों की मानिंद जोड़े रखेंगी हमें जब हम अकेले होंगे तब भी ।

अचानक अनु उठी और अपना सारा भार उसकी पीठ पे लादे बैठा अनय धड़ाम हो गया रेती में ..

हारते -हारते जीते थे दिल की बाज़ी । आज फिर वही रेती में गिरने की आवाज़ और जीत की हार ।

नहीं हारना क्यूँ ?

पुतली की ही तो सीमा है देख पाने की पर अनुभूति ! अनुभूति तो भूत भविष्य सब देख लेती है न !

आज भी अनय मेरे साथ बैठे हैं पीठ से पीठ मिला के भारहीन ,सिक्के के दो पहलुओं की तरह ना देखने को अभिशप्त पर बतकहियाँ तो …

दिन महीने साल गुजरते जायेंगे

हम प्यार में जीते प्यार में मरते जायेंगे ,

यही हार भी यही जीत भी बाक़ी तो बीच की अठखेलियाँ ।ज़िंदगी तू भी जादूगरनी है ,संगीत है मुझको ..

ज़िंदगी प्यार का गीत है

जिसको हर दिल को गाना पड़ेगा ॥

*****


“आओ लिखे - ७वीं कहानी” परिणाम


कहानियों की शृंखला में "आओ लिखें - सातवीं कहानी" के अन्तर्गत  "हार-जीत" विषय पर लघु कथा लिखने के लिए दी गई थी। इस प्रतियोगिता में हमें कुल आठ कहानियाँ प्राप्त हुईं। 


1. नैनी ग्रोवर - मतलब हार जीत का 

2. पुष्पा कुमारी पुष्प - पड़ोसन 

3. हरीश कंडवाल मनखी - हार-जीत 

4.डॉ नूतन गैरोला – हार जीत 

5.प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल – सपनों की जीत 

6.संदीप गढ़वाली – हार जीत का व्यापार 

7. अलका गुप्ता भारती – आश्रिता 

8. आभा अजय अग्रवाल - हार-जीत  


इन कुल आठ कहानियों में से डा.नूतन गैरोला की कहानी हार जीत ने उत्कृष्ट कहानी के रूप में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। डॉ नूतन गैरोला जी को प्रथम स्थान प्राप्त कर विजयी होने के लिए बहुत बहुत बधाई व हार्दिक शुभकामनाएँ। 

 



 सम्मिलित कहानियों की समीक्षा


1. डॉ.नूतन गैरोला की कहानी....."हार-जीत".....! डा.नूतन गैरोला ने अपनी कहानी 'हार-जीत' में किसी असहाय की सहायता करने को किसी भी प्रतियोगिता या पारितोषिक से ऊपर माना है।उनकी दृष्टि में मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं।हुआ भी कुछ ऐसा ही...हरदीप जिला स्तरीय रेस का विजेता रहा है,आज उसे प्रादेशिक स्तर पर दौड़ना है,इस रेस को जीतने के लिए उसने अथक परिश्रम किया है।परिवार में सभी की नज़रें उस उपर टिकी हैं।क्रीड़ास्थल पहुँचकर  रेस शुरू होने से पहले वह तरोताजा होने के लिए शौचालय की ओर गया ही था कि  वहाँ एक आदमी को औँंधे मुँह गिरा पाया,उसके माथे से खून बह  रहा था।उस घायल व्यक्ति को मरने के लिए  छोड़कर हरदीप का मन दौड़ के लिए  ट्रैक पर जाने को तैयार नहीं हुआ ..उसे अपने मृत पिता का ख्याल हो आया।ये सोचकर कि ये भी किसी का पिता होगा,तुरन्त ही उसने किसी तरह कोशिश कर उस व्यक्ति को अस्पताल पहुँचाया।जब क्रीड़ास्थल पहुँचा तो रेस समाप्त हो चुकी थी,विजेताओं का नाम बुलाया जा रहा था।हरदीप का देरी से पहुँचने का कारण जानते ही उसके गुरु जी ने तुरन्त निर्णायक मण्डल को सच्चाई से अवगत करवाया।तभी  उसने सुना कि 'हरदीप आप जीवन की कसौटी के सच्चे खिलाड़ी हो।मानवता आप जैसे लोगों से ही बची है।फलस्वरूप 'उसे अगले समूह में दौड़ने का अवसर मिला।जजों ने उसका सम्मान किया ।तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा पवेलियन गूँज रहा था।......यह थी उसकी सच्ची जीत,मानवता की जीत।.....निःस्वार्थ भाव से किसी असहाय की सहायता करना ही सच्ची मानवता है।इंसानियत का  सन्देश देती सुन्दर भावपूर्ण कहानी। उत्कृष्ट कहानी के लिए बहुत बहुत बधाई डा. नूतन गैरोला जी.... हार्दिक शुभकामनाएँ।


2. पुष्पा कुमारी की कहानी...."पड़ोसन"! 'पड़ोसन' के माध्यम से पुष्पा जी ने बहुत महत्वपूर्ण संदेश दिया है कि बिना सोचे समझे किसी के प्रति भी अपने मन में कोई ग़लत धारणा नहीं बना लेनी चाहिए।कुछ ऐसा ही तो हुआ था सरिता के साथ भी।कस्बे से शहर में आए थे वो।सोसायटी में घर लिया।समान लगाते हुए पति-पत्नी दोनों ही थक चुके थे।सरिता को पड़ोसन से पानी माँगना उचित नहीं लग रहा था क्योंकि उसने सुन रखा था कि शहर के लोगों में अपनापन नहीं होता।इसीलिए तो पड़ोसन ने उसकी नमस्ते का जवाब नहीं दिया था।मन ही मन ये उहापोह चल रही थी कि दरवाज़े की घंटी बजी, बगल वाली पड़ोसन स्वयं ही पानी की बोतल ले आई थी और यही नहीं वह तो इन दोनों को खाना खाने के लिए साथ चलने का आग्रह भी कर रही थी।सरिता के मन में बना ग़लतफ़हमियों का महल अचानक भरभराकर ढह गया।उसका अहम् टूट गया था। उसकी सोच बिल्कुल ग़लत साबित हुई।पुष्पा जी ने  लघु कथा के ज़रिए हमें आगाह किया है कि इधर-उधर से सुनी-सुनाई बातों को सच मानकर अपने मन में कोई ग़लतफ़हमी की धारणा नहीं बना लेनी चाहिए।।बहुत शुभकामनाएँ पुष्पा जी। 


3. नैनी ग्रोवर की कहानी...."मतलब हार और जीत का"..! नैनी जी की कहानी "मतलब हार और जीत का" हमें संदेश देती है कि किसी भी कार्य में जल्दबाजी अच्छी नहीं होती।दो मित्र पार्थ और अम्बर सिनेमा देख कर निकलते हैं ...अम्बर पार्थ की आराम से चलने की  सलाह न मानते हुए अपनी  बाइक दौड़ाते हुए घर की निकल जाता है,सामान्य गति से चलते हुए पार्थ को रास्ते में अपने ही मोहल्ले के चौकीदार ओम काका घायल अवस्था में सड़क पर कराहते हुए पड़े मिलते हैं।कोमल हृदय पार्थ उन्हें उठाकर अस्पताल पहुँचाता है।इधर अम्बर पार्थ के देरी से घर पहुँचने का कारण जानने पर यह सोचकर बहुत ग्लानि और दुःख से भर जाता है कि वह बाइक से ओम काका को टक्कर मार कर उनकी मदद करने की अपेक्षा उसी अवस्था में सड़क पर छोड़कर भाग गया था।वह पार्थ से अपने इस कृत्य की क्षमा माँगते हुए  भविष्य में किसी भी हार-जीत की रेस में न पड़ने का वायदा भी करता है।अम्बर बाईक की रेस में भले ही जीत गया हो लेकिन वह इंसानियत की रेस में हार गया था।सुन्दर संदेश नैनी जी ...शुभकामनाएँ ! 


4. हरीश कण्डवाल मनखी जी  की कहानी...."हार-जीत"! हरीश कण्डवाल जी ने 'हार-जीत' कहानी के अन्तर्गत दो पड़ोसियों के माध्यम से यह समझाने की कोशिश की है कि किसी भी संकट के समय सबसे पहले पास में रहने वाला पड़ोसी ही काम आता है,मित्र या रिश्तेदार तो बाद में आते हैं।जैसा कि रमेश और त्रिलोक के साथ घटित हुआ।दोनों पड़ोसी हैं किन्तु राजनीति में दोनों भिन्न -भिन्न पार्टियों में विश्वास रखते हैं और उनके प्रति समर्पित भी हैं।चुनाव के समय अपने अपने दल का प्रचार करते हुए परस्पर कटुता पर भी उतर आते हैं।इसी प्रचार के माहौल में  व्यस्तएक शाम त्रिलोक की तबियत खराब हुई तो उसकी पत्नी ने रमेश से मदद की गुहार की, आनाकानी करने पर उसकी स्वयं की पत्नी ने भी कहा कि हमें हमेशा साथ रहना है।चुनाव जीतने पर तो कोई यहाँ दिखाई भी नहीं देगा।दुःख-तकलीफ में हम ही एक दूसरे के काम आएँगे।यह सुन रमेश त्रिलोक को अस्पताल ले गया। उसे माइनर अटैक आया था, देरी होने से उसकी जान भी जा सकती थी।आज उसने पड़ोसी की जान बचाई थी। आखिर दोनों को समझ आ गया कि चुनावी रिश्तों से बढ़कर है पड़ोसी धर्म।सत्य है... मानव धर्म ही सर्वोपरि है।सुन्दर संदेश हरीश कण्डवाल जी,   शुभकामनाएँ !


5. प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल जी की कहानी....."सपनों की जीत"..! अपनी कहानी 'सपनों की जीत' में प्रिय प्रतिबिम्ब जी ने दर्शाया है कि अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए यदि मन को दृढ़ कर कोई निश्चय कर लिया जाए तो कोई बाहरी शक्ति उसे पथ से डिगा नहीं सकती।कहानी की एक पात्र.. काया विद्यालय में पत्रकारिता की पढ़ाई करने के दौरान अपने समूह के ही एक लड़के रंजन को मन ही मन पसंद करने लगी थी। दोनों के विचार भी मिलते थे।वह तो उसके साथ जीवन गु़जारने के सपने भी देख रही थी।मौका पाकर रंजन को अपने मन की  बात बताएगी,यह सोचकर अपने जन्मदिन की पार्टी पर उसने कुछ मित्रों को बुलाया जिनमें रंजन और उसकी खास सहेली प्रार्थना भी थे,जिन्होंने आज सबके सामने अपने प्रेम का इज़हारकरके शादी का ऐलान कर दिया था।काया के सपने जैसे धराशायी हो गए थे।लेकिन शीघ्र ही मन को मजबूत कर उसने इस सच को स्वीकार कर लिया तथा यह भी कि अब सफल पत्रकार बनकर ही भविष्य के बारे में कोई निर्णय लेगी।अब पाँच साल बाद भी उसे अपने फैसले पर गर्व है ...उसने हार कर भी अपने सपने को सच कर दिखाया था।सच है प्रतिबिम्ब जी...मन के हारे हार है,मन के जीते जीत !!...साधुवाद... शुभकामनाएँ!! 


6. संदीप गढ़वाली जी की कहानी ...."हार जीत का व्यापार"...! संदीप गढ़वाली जी ने  अपनी कहानी  "हार जीत का व्यापार' में यह समझाने का प्रयास किया कि जो जीत दो व्यक्तियों के बीच फूट पैदा कर दे,उनके मनों में मैल भर दे ,ऐसी जीत जीत नहीं बल्कि हार है।कहानी के मुख्य पात्र, दो सगे भाई दया और प्रेम, जो एक दूसरे के बिना रह नहीं पाते थे...दोनों के बीच अथाह प्रेम था।एक समय राजनीति के अखाड़े में उतर कर अलग-अलग दलों से चुनाव लड़ते हैं।लोगों से मिली कूटनीति की सीख पर एक दूसरे से हर बात छुपाने लगे। एक भाई ने जीत हासिल की ,दूसरा हार गया।एक के यहाँ जीत का उत्सव तो दूसरे के यहाँ हार का मातम।जो एक दूसरे के बिना रह नहीं पाते थे , वे अब एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते। तो ये कैसी जीत थी....वो तो उन्हें अपने कर्तव्य, संस्कार,प्रेम,त्याग,रिश्ते-नाते और खुशियाँ बेचकर मिली थी।जिस राह पर चलकर जीत ने उनके दिलों में नफरत भर दी वो सफलता कैसी? निश्चय ही ये तो हार थी, दोनों भाइयों की हार।सच है...अपनों को खोकर खुशियाँ नहीं ख़रीदी जातीं।शीर्षक को सार्थक करती कहानी है संदीप जी.... शुभकामनाएँ! 


7. अलका गुप्ता 'भारती' की कहानी...."आश्रिता "...! अलका जी की कहानी ..'आश्रिता' भूख और जरूरतों से जूझते एक परिवार का कटु सत्य है ।दो बहनें दुर्भाग्य से विधवा होकर असहाय सी, पिता के आश्रय में रहने चली आईं।पिता ने जिस बेटे को बुढ़ापे की लाठी समझा।बेटियों से बढ़कर माना। बहनों ने जिस भाई को मातृ तुल्य ममता दी,वही इन्हें बोझ समझकर सारी जिम्मेदारियों से पल्ला छुड़ाकर विदेश में बस गया।वही असहाय बेटियाँ पिता का सहारा बनीं और आज यथाशक्ति परिश्रम कर परिवार की गाड़ी खींच रही हैं। आज वे किसी की आश्रिता नहीं हैं बल्कि वही बेटियाँ पिता की लाठी बनी हैं।संवेदनशील कहानी है अलका जी... शुभकामनाएँ। 


8. आभा अजय अग्रवाल जी की कहानी..... "हार जीत"....!! फुरसत के पलों में सागर किनारे बैठी अनु का मन कहीं दूर पीछे, बहुत पीछे भटकने लगा...बचपन की अठखेलियाँ,किशोरावस्था की चंचलता,युवावस्था का आकर्षण फिर अनय का प्रेम सब जीवंत होकर आँखों में तैर रहा था।साथ गुज़रे वो पल एक एक कर चलचित्र की तरह आँखों के सामने चल रहे थे।आज अनय साथ नहीं हैं पर सदा साथ हैं..उन्हीं के साथ से ज़िन्दगी चल रही है।पति-पत्नी एक गाड़ी के दो पहिए हैं।वे प्रत्यक्ष में साथ हों न हों....फिर भी हरदम साथ रहते हैं। सत्य ही है सिक्के के दो पहलू ,सदा साथ ही रहते हैं ,इकदूजे के बिना किसी का कोई अस्तित्व नहीं पर एक दूसरे को न देखने को अभिशप्त हैं। जिंदगी है...बीती यादों का रेला।हार्दिक  शुभकामनाएँ आभा जी। 



सभी प्रतिभागियों ने स्वरचित कहानियों द्वारा,दिए गए विषय 'हार जीत' को  सार्थक किया । अंत में 'आओ लिखें कहानी' समूह के सदस्यों से मेरा आग्रह है कि वे आगे आएँ...अपने अनुभव एवं विचारों को कहानी का रूप देकर साझा करें।

धन्यवाद!

शुभकामनाओं सहित, 


प्रभा मित्तल दिल्ली


Saturday, February 19, 2022

" आओ लिखे कहानी " ६ वीं कहानी - का परिणाम व सम्मिलित कहानियों की समीक्षा

६ वीं कहानी


 



प्रतियोगिता का विषय एवं नियम


१. कहानी - ५०० से १,००० शब्दों तक, नई और स्वरचित होनी अनिवार्य है।

२. कहानी का शीर्षक किसी मुहावरे या लोकोक्ति पर आधारित होना चाहिए। स्वयं के अनुभव को भी आप इसमें शामिल कर सकते हैं।

३. कहानी को आप अलग से पोस्ट में या पोस्ट के नीचे लिख सकते हैं। यदि किसी कारणवश नहीं कर पा रहे हैं तो मुझे संदेश बॉक्स (मेसेंजर) या ईमेल कर सकते हैं barthwalblog@gmail.com पर

४. अंतिम तारीख : २४ जनवरी २०२१



क्रम संख्यां नाम कहानी का शीर्षक शब्द संख्यां

डॉ विजयलक्ष्मी भट्ट शर्मा एक आंख से देखना ६५७

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल नो सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को गई (प्रोत्साहन हेतु) ७६८

किरण श्रीवास्तव अक्ल पर पत्थर पड़ना ७८७

विश्वेश्वर प्रसाद सिलस्वाल जैसे को तैसा ४७०

प्रभा मित्तल उस रात कि कहानी १०००

गरिमा काँसकार हम ही बिगड़ गए ११००

अलका गुप्ता भारती अपने पाँव ३४०

पुष्पा कुमारी पेट पूजा ६३४

गोपेश दशोरा कंजूस पापा ११००




कहानियाँ

एक आँख से देखना

(डॉ.विजय लक्ष्मी भट्ट शर्मा - शब्द संख्या – 657)


माँ खाना नहीं बना अभी पाँव पटकती हुई निम्मी माँ को अपनी नाराज़गी दिखा रही थी.... माँ थी कि चुपचाप अपना काम कर रही थी... निम्मी का क्रोध सातवें आसमान पर था कि उसकी बात का माँ कोई उत्तर नहीं दे रही और उसे बड़ी भूख लगी थी..... वो बड़बड़ाने लगी अभी भाई बोलेगा न कि माँ भूख लगी है तो तुरंत थाली बाबू साहब के सामने होगी... बड़बड़ाते बड़बड़ाते वो ग़ुस्से में अपने कमरे की ओर चली गई और ज़ोर से कमरे का दरवाज़ा पटक दिया... आज खाना नहीं खाऊँगी, मेरी तो इस घर में कोई पूछ नहीं है... 


थोड़ी ही देर में निम्मी ना जाने क्या क्या सोच बैठी। पर भूख तो बहुत लगी थी... आज सारा दिन खेल कूद प्रतियोगिताएँ थीं और उसने सभी में भाग लिया था व सभी में मेडल भी आये थे .... मेडल याद आते ही उसे गल्ती का एहसास हुआ कि उसने माँ को तो कुछ बताया ही नहीं.... थकान भूख और क्रोध में उसने इतनी बड़ी बात माँ को नहीं बताई की दो गोल्ड तथा दो सिल्वर मेडल जीत कर आयी है वो जो उनका लाड़ला नहीं जीत सकता... पता नहीं क्यूँ उसे लग रहा था कि उसकी माँ भी सीमा की माँ की तरह उसके भाई को ज़्यादा प्यार करती है... खैर जो भी हो एक तो गल्ती मेरी भी है माँ को कुछ बताया नहीं ऊपर से भूख भी लगी है चलो चलकर देखती हूँ अगर मेडल की बात सुनकर माँ खुश होंगी और खाना पूछेंगी तो सब ठीक है ऐसा समझ लूँगी नहीं तो सीमा की ही बात पर यक़ीन करना पड़ेगा....निम्मी अभी रसोई के पास पहुँच ही रही थी कि ठिठक गई... भाई जल्दी खाना देने की बात कर रहे थे कि माँ की अवाज सुनाई दी जा पहले निम्मी को बुला ला भूख लगी है कह रही थी... आज खेल कूद प्रतियोगिताएँ भी थी काफी थकी होगी इसीलिए भूख और थकान के मारे मुझे बता के भी नहीं गई की नतीजे क्या रहे... दो चार मेडल तो लायी ही होगी ... जा बेटा बहन को बुला ला तुम दोनो की पसंद का खाना बनाया है मिलकर खा लेना.... भाई कह रहे थे माँ मुझे दे दो खाना बहुत अच्छी खुश्बु आ रही है पहले मै खा लेता हूँ वो आ जाएगी..... माँ को ग़ुस्सा आ गया ... बहन भूखी आ कर बैठी है लाटसाहब को घर आते ही खाना चाहिये... मै ही बुलाती हूँ लाडो को भूखी सो ना जाये कहीं कहती हुई माँ रसोई से बाहर निकली तो अरे निम्मी रो क्यूँ रही है बेटा ... क्या हुआ कोई मेडल नहीं आया तो कोई बात नहीं चलो दोनो भाई बहन खाना खा लो... माँ मुझे माफ कर दो निम्मी रोते हुए कह रही थी कि आज ही सीमा उसे सुना रही थी कि सबकी माँ बेटों को ज्यदा प्यार करती हैं .... ये सब सुन उसे भी लगा कि तुम भी ऐसी ही हो... पर माँ तुम बिल्कुल ऐसी नहीं हो... तुम तो सबसे अच्छी माँ हो जो बेटा और बेटी को एक ही आँख से देखती हो... चल चल बहुत बड़ी हो गई है तू अब दिमाग़ के घोड़े भी दौड़ाने लगी है... कुछ भी सोच लेती है... माँ कहे जा रही थी बेटा अपनी बुद्धि से काम लो दूसरों की बातों में मत आओ... देखो दूसरों की बातों का यक़ीन कर तुमने मुझे मेडल वाली बात नहीं बताई खुद ही परेशान रही और सबको भूखा भी रखा... चलो अब भाई के साथ बैठ अपनी जीत की खुशी का आनंद लो साथ ही भविष्य के लिये एक बात गाँठ बांध लो बिना तथ्य के किसी की बात पर यक़ीन ना करो... पीछे से भाई और पिताजी की अवाज आ रही थी माँ बेटी की वार्तालाप ख़त्म हो गई हो तो हम ग़रीबों को खाना मिल जाये और सब ज़ोर से हंसते हुए खाने की टेबल पर चल दिये।


क्यूँ जी आप सब भी बेटा बेटी को एक ही आँख से देखते हो ना कोई फर्क तो नहीं करते.....


(कहानी का सार.....मेरी कहानी बेटा बेटी में फर्क करने वालों के लिये एक सबक़ के रूप मे है कि आपकी एक छोटी सी सोच आपके बच्चे के जीवन मे जहर घोल सकती है... दोनो को एक आँख से देखें दोनो आपकी ही संतान हैं... दोनो को समान अवसर दें पढ़ने लिखने के, खाने पीने, खेलने कूदने के। सोच बदलेगी तभी समानता आएगी।)


नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को गई

(प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल - प्रोत्साहन हेतु - 768 शब्द )


रॉकी यानि श्रीमान राकेश कुमार, दिल फेंक और आशिक मिजाज रॉकी इश्क के मामले बड़े बड़ो की छुट्टी कर दें। उनकी बातों के लोग दीवाने है और आकर्षण तो कूट कूट कर भरा है। ऊपर से राजेश खन्ना स्टाइल में उनकी अदाएं बरबस कुड़ियों को भा जाती हैं। और यही कारण भी है कि आए दिन नए नए इश्क का सेहरा इनके सिर सजता रहता है। धीरे धीरे पुरानी उधर निकल जाती हैं और नई इधर तैयार मिलती हैं। कितनी उनके जीवन में आई उनको भी याद न होगा। 


एक दिन रॉकी साहब का मूड उखड़ा हुआ था। दर्द उसके मुरझाए चेहरे पर बहुत सी लकीरें बनाए बैठा था। दरअसल उन्हें कुछ दिनो से सच्चा वाला इश्क हो गया रमा से। रमा से उनकी मुलाक़ात एक पब में हुई। पहली मुलाक़ात सिगरेट जलाने से शुरू हुई और रमा की आंखो के तीर उनके दिल पर वार करने में सफलता पा गए। अगली दो मुलाक़ात में ही रॉकी ने प्रेम इजहार कर रमा को अपना मान लिया। वैसे भी प्रेम चासनी में घुला प्यार कब मधुमेह की श्रेणी आ जाये पता ही नहीं चलता। 


और रमा, उसके रहन सहन से पता चलता था कि पैसे उसके बाएँ हाथ का मैल है। उसका मेल जोल भी बड़े बड़े घरानो के लोगों से था। कुछ दिन में ही रॉकी को समझ आ गया कि रमा से उसका मेल रंग नहीं लाएगा। उसके दोस्त और उनका व्यवहार उसकी समझ से परे था। रमा शादी शुदा भी थी यह जानना उसके लिए बिजली के झटके लगने जैसा था। उसकी पुरानी फ्रेंड्स में कुछ थे शादी शुदा पर वह उनके बारे में पहले से जानता था। लेकिन यहाँ तो उन्हें सच्चे वाला इश्क हुआ था वह भी बिना किसी पड्ताल के। रमा का हर राज रॉकी के लिए सरपराइज ही था। सबसे बड़ा सरप्राइज़ तो मिला जब रॉकी को पता चला कि रमा कि सूची में वो अकेला नहीं है बल्कि उसके प्रेमियों की तो लाइन खड़ी है। लेकिन ईमानदार आशिक की तरह वो हर दर्द को सहने के लिए स्वयं को तैयार कर चुका था। 


एक दिन रमा ने उसे घर बुलाया था। घर बिलकुल आफिस जैसा था, उस दिन उसे पता चला कि वहाँ रमा के पति विजय ही उसके हर अप्वाइंटमेंट को मेनेज करते हैं। रमा कब किससे मिलने जाएगी किसके साथ बाहर जाएगी। यहाँ तक की उसकी फीस भी ली जाती है उन लोगो से जिनके साथ रमा मिलती है। रॉकी को यह सब देख जान कर आश्चर्य भी हुआ और अपने प्रेम का ‘द एंड’ होने का आभास भी होने लगा। उसे अपना निर्णय अब बड़े संकट मे डालने वाला प्रतीत होने लगा। 


तभी रमा ने उसे इशारा किया और बालकोनी में आने को कहा। रॉकी भारी मन से उसके साथ बालकोनी में आया और चुपचाप सिगरेट निकाली और पीने लगा। रमा ने कहा “क्यों मुझे सिगरेट नहीं पिलाओगे?” बेमन से रॉकी ने सिगरेट निकाल कर उसको दी और लाइटर भी जला दिया। रमा ने सिगरेट का लंबा कस खींचते हुये कहा “रॉकी तुम यही सोच रहे हो न कि मैं यूं क्यों? तुम्हें इसलिए बुलाया कि तुम जान सको मैं कौन हूँ और क्या - क्या करती हूँ। मैं जानती हूँ तुम मुझ से इश्क करने लगे हो। अभी तक तुम बहुत फलर्ट करते आए हो यह भी जानती हूँ। पर मुझसे तुम सच में प्यार करने लगे हो। लेकिन मैं प्यार केवल दिखावे का नहीं कर सकती। पहले मजबूरी था मेरे लिए ये सब। फिर शादी की विजय से और इसे ही व्यवसाय बना लिया। फिलिंग या अहसास मर चुके है अब केवल पैसा और आराम की जिंदगी ही मकसद है। तुमसे भी पैसा कमा सकती थी और अपनी जिंदगी का तुम्हें पता भी न चलने देती। इरादा यही था लेकिन तुमको इश्क में देखा और देखा जनाब तो इश्क में है सचमुच। मुझे उचित नहीं लगा कि तुम्हें धोखे में रखा जाये।“ रॉकी सुन तो रहा था सब कुछ लेकिन उसका दिल कुछ सुनने को तैयार न था। अब उसे यह अहसास हो गया कि जिसे वो प्यार समझ रहा था वह एकतरफा था। सिगरेट बुझाते ही उसने रमा से बाय कहा और सीधा बाहर निकल आया।


रॉकी की उदासी का यही कारण भी था। उसने अपनी सभी पुरानी गर्ल फ्रेंड्स से अपने मन में ही माफी मांगी लेकिन रमा के प्यार में मिली असफलता से उसने ठान लिया कि अब वह किसी भी लड़की या महिला से फलर्ट नहीं करेगा और प्यार तो बिलकुल नहीं ........ नो सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को गई वाले स्टाइल में रॉकी ने अब अपना नाम फिर राकेश कुमार रख लिया है और रॉकी नाम को तिलांजलि दे दी। 




अक्ल पर पत्थर पड़ना

(किरण श्रीवास्तव  - 787 शब्द)


मिसेज शर्मा बालकनी पर खड़ी हो कर पार्क में खेलते बच्चों को देखने में मशगूल थी, की दो औरतें दरवाजे पर खड़ी दिखी। उन्होंने सोचा कि किसी का पता पूछ रही है शायद, क्योंकि, देखने में संभ्रांत परिवार की लग रहीं थी इसलिए गेट खोलने में उन्हें असमंजस नहीं हुई.... । गेट खोला, दोनों औरतों ने प्रणाम किया और शर्मा जी के बारे में पूछा, तो उन्होंने बताया की वो तो दो दिन के लिए बाहर गयें है,आपलोगों को किस संबंध में उनसे मिलना है? तो उनमें से एक ने बताया की किराये पर मकान चाहिए था, मिश्रा जी ने बताया की आपका मकान खाली है, सो चली आयी। दो औरतों में एक ही बोल रही थी दूसरी कौन है मिसेज शर्मा नें जानना चाहा, तो हाथ जोड़कर उनकी ओर मुखातिब होकर बोली की ये गुरु माँ हैं हर मुश्किलों का वाजिब उपाय इनके पास है,पास के मुहल्ले में वर्षों बाद माँ के आशीर्वाद से उनकी गोद हरी भरी हुई ,उन्हीं को माँ आशीर्वाद देने गयी थीं।


इक्षुक लोगों को उसके लिए पास के शिव मंदिर में जाना होता है माता जी एक जगह नहीं ठहरतीं कभी यहाँ तो कभी वहां ,आजकल इनके शुभ कदम यहाँ है। फिर क्या था मिसेज शर्मा को तो मानो मन मांगी मुराद मिल गयी हो क्यों कि शादी के दस साल बाद भी सारी रिपोर्ट नॉर्मल आने पर पर भी वह संतान सुख से वंचित थी दवा से सफलता न मिलने के बाद उनका रूझान पूजा पाठ दकियानूसी( झाड़-फूंक ) बातों की ओर जाने लगा था शर्मा जी से एक बार जिक्र भी किया तो उन्होंने साफ मनाकर दिया और इससे संबंधित आये दिन होनेवाले वारदातों के बारे में भी समझाया था। यहाँ तक कहा की अगर बच्चा नहीं हुआ तो बच्चा गोद ले लेगें।


पर जब अक्ल पर पत्थर पड़ता है तब सारी होशियारी धरी की धरी रह जाती है उन्होंने अपना सारा दुखड़ा उन ठगिनी औरतों को कह सुनाया, वही तो वह चाह रही थी ठग करने वाले मनोवैज्ञानिक होते हैं सामने वाले की मनोदशा भाप लेते हैं... और उन्हें अपने हाथ की कठपुतली बना देते हैं ! 


बहन गुरु माँ के लिए जल लाओ और सोमवार के दिन अपने पति के साथ शिव मंदिर आना तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी होगी मैं तुमसे वही मिलूंगी। तब मिसेज शर्मा ने हाथ जोड़कर बोली मेरे पति तो बिल्कुल नहीं मानेंगे आप कोई उपाय हो तो मुझे बताइए, तब गुरु मां आंखें बंद करके ध्यान करने लगी थोड़ी देर बाद आंखे खोली और जल की कुछ बूंदे मिसेज शर्मा के हथेली पर गिराया मंत्र पढ़ीऔर पी जाने को कहा ,और फिर बोली कि मुझे कुछ नहीं चाहिए शिव मंदिर के दानपात्र में दान स्वरूप जो तुम्हें ठीक लगे डाल देना ,लेकिन संतान सुख पाने के लिए स्वर्ण साधना करनी होगी। स्वर्ण को कपड़े में बांधकर अपने तकिए के नीचे रख कर 24 घंटे बाद पुनः धारण करना होगा, लेकिन यह बात किसी के भी सामने प्रकट ना करें, अन्यथा उसका प्रभाव नष्ट हो जाएगा। यह कह कर उसने एक चुनरी का टुकड़ा निकाला और सामने रख दिया फिर बोली कि आप अपना सारा जेवर उतार कर पोटली बना कर अपने पास रखिए मिसेज शर्मा यंत्रवत् सब करती गयी। अपने मंगलसूत्र चेन कड़े हीरे की अंगूठी कान की बाली सारे जेवर निकालकर कपड़े में रखकर पोटली बनाई तब गुरु मां ने शिव जी का ध्यान करने को कहा तब मिसेज शर्मा ने सोचा कि ऐसा ना हो कि यह पोटली लेकर नौ दो ग्यारह हो जाए फिर ध्यान करने के वक्त ही आंखें खोलकर पोटली देखा और आश्वस्त हो गई....I उन्हें तनिक भी शंका नहीं हुआ |(जब की गहने बदले जा चुके थे)जब गुरु मां जाने के लिए खड़ी हुई तब दक्षिणा स्वरूप कुछ देने के लिए मिसेज शर्मा ने पूछा तो गुरु मां बोली बेटी तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होने के बाद मैं पुनः आऊंगी और तुम्हारे बच्चे को आशीर्वाद दूंगी! लेकिन आज खाली हाथ नहीं जाऊंगी इसलिए जो तुम्हें ठीक लगे दे दो। मिसेज शर्मा ने पांच सौ का नोट उनके हाथों पर रखकर चरण स्पर्श कर लिए मिसेज शर्मा खुश थी फिर उसने कहा कि आप लोगों का कोई नंबर पता हो तो मुझे दे दीजिए तो गुरु मां ने एक कार्ड निकाल कर उसे दिया और बोला की बेटी जब इच्छा हो इस पर कॉल कर सकती हो ,जी कहकर मिसेज शर्मा ने दोनों को खुशी पूर्वक विदा किया।


दो दिन बाद जब मिस्टर शर्मा घर आए तब उनके घर के सामने भीड़ लगी हुई थी पुलिस आई हुई थी एक अनजानी आशंका से वह भयभीत हो गए ,और तेज कदमों से घर की ओर बड़े, तब उन्हें घटना की जानकारी हुई तो वह सर पीट लिए.. । नंबर पता सब गलत निकला। पढ़ी लिखी होने के बावजूद मानो 'अक्ल पर पत्थर' पड़ गया हो। मिसेज शर्मा के आंखों से निरन्तर पश्चाताप के आंसू बह रहे थे.... ।

जैसे को तैसा

(विश्वेश्वर प्रसाद सिलस्वाल,  शब्द संख्या  470)


जमीन की रजिस्ट्री कराने देहरादून गया था। मसूरी एक्स्प्रेस में मेरा आरक्षण था जो रात को नौ बजे देहरादून से दिल्ली के लिए रवाना होती थी। कोर्ट में मेरा काम तीन बजे तक खत्म हो गया। रेलवे स्टेशन पर छह घण्टे बिताना मुश्किल था। सोचा चलो कुटुंब की भाभी के हालचाल पूछ आता हूँ। एक माह पूर्व ही भतीजे राजू की शादी में जो आया था तो नई दुल्हन के हाथ की चाय भी पी आता हूँ। भाई सहाब का घर कचहरी ,प्रिंस चौक से ज्यादा दूर भी नहीं था। विक्रम पकड़ा और आधा घण्टे में पहुंच भी गया। भाभी जी बाहर ही आंगन में धूप का आनंद ले रही थी। चरण स्पर्श करते हुए मेरी नज़र भाभी जी के सूजे गाल पर पड़ी।


" अरे! भाभी जी,आपका दाहिना गाल क्यों सूजा है? क्या हुआ ? दांत का दर्द है क्या ? मैनें पूछा

" क्या बताऊं देवर जी, राजू की दुल्हन नें मेरे गाल पर दो घूसे जड़ दिए आज सुबह ही सुबह।" भाभी जी ने सुबकते हुए बताया।


"ऐं! ऐसा क्यों भाभी जी"? दुल्हन तो स्कूल में बाक्सिंग कोच हैं ।लगता है आपको भी बाक्सिंग सिखाने लगी हैं ।" राजू , मेरा भतीजा कुछ नहीं बोला ।" थोड़ा मजाकिया मूड में बात को लाकर मैं पूरी कहानी विस्तार से जानने को उत्सुक था।


भाभी जी जोर-जोर से रोने लगी," मैंने तो बस उसे इतना कहा कि स्कूल में घूसेबाजी सिखाने जाने से पहले हमारे लिये नाश्ता बना कर जा और बर्तन भी मांझ कर जाना।बस इतना कहना था कि उसने दो घूसे मेरे गाल पर जड़ दिए । मेरा लड़का सब देख रहा था पर वह भी उसे एक शब्द नहीं बोला । कहने लगा "मम्मी ,वह कब नाश्ता बनाएगी ।" और उल्टा मुझे ही डांटने लगा कि "वो कब स्कूल जायेगी? आपको खुद सोचना चाहिए। ज्यादा दिक्कत है तो हम नौकर रख लेंगे।"

अब तू ही बता,"मैंने क्या बुरा कहा?"


"अरे! भाभी जी,आजकल कामकाजी बहू के पास इतना समय कहाँ होता है कि घर का काम भी करे और नौकरी भी देखे। आपको खुद सोचना चाहिए। उन्हें सुबह-सुबह सात बजे तो स्कूल पहुंचना होगा तो कब वह नाश्ता बनायेगी!कब बर्तन साफ़ करेगी? फिर आप कहोगी कि झाड़ू -पौंछा भी कर, तो बताना जरा फिर वह कब स्कूल पहुंचेगी ? आपने भी सास का रौब दिखा दिया होगा " मैंने भी कुछ माहौल को शांत करने की कोशिश करी।

" ले ! अब तू भी उसी की तरफदारी में बोलने लगा। ये नहीं कि,कुछ अपने भतीजे व बहू को समझाए"भाभी जी ने नाराज होकर मेरी तरफ घूरा।


"देखो भाभी जी, ये सब पूर्व कर्मों का फल होता है।मेरे समझाने से क्या होगा? आपने जो घपक अपनी जवानी में ताई को मारे थे न, यह सब उसी का ब्याज आपको मिल रहा है। वो कहावत है न कि जैसे को तैसा ।'" कहते हुए मैने अपना थेला उठाया और बगैर चाय पिये ही वहां से लम्पट होने में ही अपना भला समझा।

उस रात की कहानी

(प्रभा मित्तल - शब्द संख्या 1,200+)

बधाई हो! बधाई हो! कहते हुए दीदी ने घर में प्रवेश किया..और सीधी माँ के कमरे में चलीं गईं।आज घर में बहुत काम फैला था। कुछ देर सुस्ताने के लिए मैं बालकनी में आकर बैठी थी।तभी दीदी की आवाज़ कानों में पड़ी तो ...अतीत के गलियारे से होती हुई मैं बरसों पीछे ,चली गई।


गर्भावस्था की कुछ जटिलताओं के कारण डाक्टर के परामर्श पर मैं दस दिन से अस्पताल में भर्ती थी।प्रसव में अभी समय बाकी था। मैं चिकित्सकों की निगरानी में थी।मेरा रक्तचाप सामान्य नहीं हो रहा था,इसीलिए समय निकल रहा था।मैं सेमी वार्ड में थी।एक दिन पहले ही दूसरे बैड पर एक महिला आई थी,पेशे से वो डॉक्टर थी।रात को उसने अपने भाई के साथ बाहर जाकर होटल में डिनर किया,लौटकर आराम से सोई।अगली सुबह उसकी सी-सेक्शन डिलीवरी करवाई गई और कुछ दिन बाद ही वो बच्चे के लेकर चली भी गई। जब तक वो अस्पताल में रही एक के बाद एक नर्स उसे घेरे रहती।उसके विज़िटर्स के लिए भी समय का कोई बंधन नहीं था।


इधर मैं रोज रोज की पीड़ा से थक चुकी थी,और इतने दिनों घर से दूर होने के कारण अस्पताल के माहौल में डिप्रैशन सा महसूस करने लगी थी। आखिर ग्यारहवें दिन मुझे लेबर रूम में ले जाया गया।पूरे चौबीस घंटे बीत चुके थे लेकिन दर्द से राहत नहीं थी।उस दिन सभी सीनियर डॉक्टर्स की हड़ताल थी इसलिए उस समय वहाँ कोई भी नहीं था।बस, लेबर रूम के बाहर जूनियर स्टाफ का जमावड़ा था।रात का समय था।मेरे पास के ही दूसरे बैड पर कुछ देर पहले ही एक महिला आई थी।वह पीड़ा से छटपटा रही थी,बार-बार उठ कर बैठती,बेचैनी से इधर-उधर देखती,शायद वो कुछ कहना चाहती थी।उसकी परेशानी भाँप कर,अन्दर आई एक नर्स से मैंने कहा... प्लीज़ इन्हें देख लीजिए। वो बाहर गई और महिला और पुरुष, दो जूनियर डॉक्टरों को बुला लाई,उन्होंने उसे चैक किया और... 'अभी बहुत टाइम है', कहकर बातें करते हुए बाहर चले गए।


मुझे वो महिला बहुत तकलीफ़ में लग रही थी।उसकी बेचैनी देखकर मैंने उससे बात करनी चाही तो उसने अटकते हुए गाँव की सी भाषा में अपना नाम शांति बताया,यह भी कि उसका पति मिस्त्री है और वह स्वयम् मजदूरी करती है।वे दोनों धन कमाने शहर आए थे, एक दिन अपना भी घर बनाएँगे,...यही सपना लेकर जी तोड़ मेहनत करते थे।शादी को आठ साल हो गए हैं।इस बीच वह दो बार गर्भवती हुई,घर पर ही प्रसव हुए ...जन्म लेते समय दोनों बार ही बच्चा नहीं रहा।तब उसे आस-पास की औरतों ने सलाह दी थी कि इस बार प्रसव के लिए अस्पताल जाना। इसीलिए उसका आदमी अस्पताल ले आया था।लेकिन यहाँ कोई ध्यान भी नहीं दे रहा इससे वो बहुत क्षुब्ध है और डरी हुई भी। 


लेबर रूम के बाहर से लगातार सबके हँसने-गाने की आवाजें आ रहीं थीं।शायद वे लोग अंत्याक्षरी खेल रहे थे।ऐसा लग रहा था जैसे सीनियर्स की अनुपस्थिति में जंगल में मंगल हो रहा हो।लेबर रूम के अन्दर की कराह बाहर के शोर में दब रही थी।आज राऊन्ड पर भी कोई नहीं था।


मुझे ड्रिप लगी हुई थी,मैं उठ भी नहीं सकती थी।कुुुछ देर बाद लेटे लेटे ही मैंने गर्दन घुमा कर देखा,शांति अपने बैड पर बैठी हुई धीरे-धीरे सिसक रही थी।मेरी निगाह पड़ी तो पूछा...क्या हुआ शांति?.. मेरी आवाज़ सुनकर ....वह और जोरों से सुबकने लगी....मैं घबरा गई और चिंतित होकर पूछा कि ...दर्द ज्यादा हो रहा है ?...तो उसने इशारे से बताया .. हो गया...उसके इस इशारे पर अँधेरे जैसे लेबर रूम की मद्धिम सी रोशनी में उस माँ का चेहरा देखकर,उस रात मैंने न जाने कितनी हड्डियाँ एक साथ टूटने का सा दर्द ,बिना आह किए ही,अपने गले से घूँट-घूँट नीचे उतारा था....काँप गई थी मैं। माँ बनना एक स्त्री के लिए ज़िंदगी का बेहद खूबसूरत पड़ाव होता है।बच्चे को जन्म देना आसान नहीं है पर ये जानलेवा दर्द वो सिर्फ इसीलिए सह जाती है कि उसका बच्चा सुरक्षित पैदा हो।मातृत्व का सुख उसके सारे दुःख - दर्द भुला देता है।


तभी एक नर्स अन्दर आई और जोरों से चीखती हुई तुरंत ही बाहर की ओर भागी ....'अरे कोई देखो बाल्टी में बच्चा पड़ा हुआ है।'...शांति का बच्चा जन्म लेते हुए तीन फुट ऊँचे लेबर-बैड से फिसलकर नीचे रखी रक्त से भरी बाल्टी में गिर गया था।दौड़ते हुए सब अन्दर आए और अपनी लापरवाही छिपाने के लिए एक महिला डॉक्टर ने तो ताबड़तोड़ तीन-चार थप्पड़ ही उस दुखियारी को जड़ दिए। पर ..वो तो बस धीरे - धीरे रोए जा रही थी....कोई प्रतिकार नहीं,..जैसे सारा दोष उसका अपना ही हो। तिस पर भी उन्होंने ...ये कहते हुए डाँट लगाई कि 'आखिरी समय पर अस्पताल आएगी तो यही होगा ..हम क्या करें... बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ है।'उसके लगी हुई ड्रिप निकाली, ड्रैसिंग की,जल्दी जल्दी कपड़े पहनाए ...और इस तरह आनन-फानन में उस पीड़िता को लेबर रूम से बाहर कर पल्ला झाड़ लिया।


ये अन्याय देखकर मुझसे सहा नहीं गया,मैं लगभग चिल्ला पड़ी...'आप लोग बाहर बैठे जश्न मनाते रहिए यहाँ बच्चे पैदा होकर मरते रहेंगे...जो हाल इसका हुआ वही मेरा भी होगा...मेरा भी बच्चा इसी तरह मर जाएगा।मैं प्रशासन से आपकी शिकायत करूँगी।' इस पर वे शायद डर गए थे,जैसे काटो तो खून नहीं,सन्नाटा छा गया था। आपस में फुसफुसा रहे थे कि ये डॉक्टर शिशिर की पेशेंट है..इसका ध्यान रखना है। वो जानते थे मैं वहाँ के प्रमुख चिकित्सक की निगरानी में थी...मेरे साथ कुछ ग़लत न हो शायद इसी ख्याल से दो डॉक्टर अन्दर ही कुर्सी डालकर बैठ गए। ये काम वो पहले भी कर सकते थे।लेकिन बेध्यानी की भी हद होती है।पर क्या अस्पताल में रोगी के इलाज पर ध्यान देने के लिए उसका किसी प्रमुख से सम्बद्ध होना जरूरी है..?ग़रीबों की जान की कोई कीमत नहीं...क्या उनकी सुरक्षा मायने नहीं रखती?? 


अब मुझे असहनीय पीड़ा हो रही थी,रात बीतते न बीतते....वो घड़ी भी आ गई....मेरा प्रसव हुआ। तड़के ही डॉक्टर शिशिर ये कहते हुए अन्दर दाखिल हुए ... 'बेटा हुआ है, बधाई हो,जरूरी चैक-अप कर रहे हैं,कुछ देर बाद आपके पास लाएँगे।' सही सलामत है..सुनकर मेरी जान में जान आई।साथ ही उस माँ का ध्यान भी आया जो बड़ी उम्मीदों के साथ अस्पताल आई थी ..और कलेजे पर पत्थर रखकर,सूनी गोद लिए वापिस गई। क्या सुख उसके लिए नहीं बना था....क्या खुशियाँ कभी उसका दरवाज़ा नहीं खटखटाएँगी....उसकी माँ बनने की साध कभी पूरी होगी भी या नहीं....या यूँ ही हर बार उसका कतरा - कतरा कर जोड़ा खून नाली में बहता रहेगा ? प्राईवेट अस्पतालों के तो कई किस्से सुने हैं..पर ये तो सरकारी अस्पताल था, ...क्या कहें...किसे कहें....अस्पताल प्रशासन की लापरवाही, उस माँ की फूटी किस्मत ...अथवा ये ग़लती कि वो यहाँ क्यों आ गई....उसका तो विश्वास छलनी हो गया था,उसने गाँठ बाँध ली होगी कि भविष्य में कभी भी अस्पताल नहीं जाएगी। मैं भी सोचने लगी थी कि इस बार अगर वो यहाँ न आती तो क्या पता उसकी गोद हरी ही हो जाती।


आज इतने बरस बीत जाने पर भी वो काली अँधेरी भयावह सर्द रात और लेबर रूम की टिमटिमाती रोशनी मुझे कभी नहीं भूलती...जहाँ आँचल में खुशियाँ बटोरने जाते हैं...मगर एक रात एक गर्भिणी वहाँ अपना सद्यप्रसूत रक्तरंजित जिगर छोड़ आई थी...सदा के लिए।


इसी उधेड़-बुन में थी कि अचानक बेटे के स्पर्श से मेरी तंद्रा टूटी,रुद्र ने पीछे से आकर मुझे बाँहों के घेरे में ले लिया था।रुद्र का आज पच्चीसवाँ जन्मदिन जो है। मेहमानों के आने का समय हो रहा था।मैं उठी और उनके स्वागत की तैयारी में जुट गई। 


 (ये कहानी किसी पर कोई आक्षेप नहीं है, अतःकोई अन्यथा न ले। एक बहुत पुरानी सत्य घटना पर आधारित है,पात्रों के नाम बदल दिए हैं।)

हम ही बिगड़ गये

(गरिमा कांसकार  - शब्द संख्यां – 1,200+)


शाम का वक्त था।घड़ी में पाँच बज रहे थे टीवी में कहानी 'घर - घर की' सीरियल चल रहा था।सब लोग हॉल में बैठ कर सीरियल देख रहे थे तभी मोबाइल की मधुर रिंग टोन आयेगी आयेगी किसी को हमारी याद आयेगी बजती है और मेरा भाई फोन उठाता है-

हेल्लो, कलावती जी से बात हो सकती है? 

भैया ने कहा जी हाँ जी बस एक मिनिट और मम्मी जी आपके लिए फोन है कहते हुए रिसीवर साइड में रख दिया।

(मम्मी जी फोन उठाती हैं)


दूसरी तरफ से : हेल्लो जी! नमस्कार आप कलावती जी बोल रही हैं ? जी मैं जबलपुर से श्यामा बोल रही हूँ आपकी नंद रजनी ने हमें आपका नम्बर दिया है वो बता रही थी कि आपकी बेटी राधिका बहुत ही सुशील है, हम अपने बेटे के लिये आपकी बेटी को मांगना चाहते है।

माँ : जी आपका बेटा क्या करता है?

श्यामा: कपड़े की दुकान है, हमारा बेटा एकलौता है और हम हैं। आपकी बेटी बहुत खुश रहेगी। 

माँ: जी आप हमारे घर आयें। 

श्यामा: जी हम अपने बेटे से बात करके आने की डेट आपको बताते हैं।

माँ: जी हम आपका इंतजार करेंगें।

दूसरे दिन मेरी नन्द का फोन आता है, भाभी हम लोग संडे को राधिका को देखने आयेंगे।

जब मेरी नन्द उन लोगों की इतनी तारीफ़ कर रही थी तो लगा मिल लेते हैं।

पूरा घर उन लोगों के स्वागत की तैयारी में जुट गया। घर की साफ सफाई नाश्ता खाना सब कुछ की तैयारी करते करते सन्डे भी आ गया।


सन्डे को शाम के वक्त सूरज डूब रहा था। पंछी अपने घर जा रहे थे। हल्की शाम हो रही थी। ऐसे में दरवाजे की घंटी बजती है

रघुपति राघव राजा राम पतित पावन सीता राम।

मेरी बहन बुलबुल दरवाजा खोलती है ... आईये आईये। बुआ जी हम सबका परिचय करवाती हैं।

थोड़ी देर बाद मैं, राधिका चाय नाश्ता का ट्रे लेकर जाती हूँ। बातों का दौर चल पड़ता है। सबके पेट में चूहे कूदने लगते हैं, सब खाने की टेबल पर खाना खाने जाते हैं। खाना बहुत ही स्वादिष्ट  था, तो मेरी माँ उन्हें बताती हैं कि सारा खाना राधिका ने बनाया हैै।

सब लोग खाना खाकर स्विट डिश खाते हैं और घर जाने के लिये विदा माँगते हैं।

जाते समय श्यामा जी मेरे हाथ मे पाँच सौ रुपये का नोट थमाकर माँ को कहती हैं,

हमें राधिका बहुत पसंद है आप लोग हमारे घर आयें। मेरी बुआ तो कहती हैं भले लोग है आप रिश्ता पक्का कर दो भाभी।

मैं उस समय कुछ न कह सकी।

फिर हम लोग भी गये सब कुछ अच्छा लगा। अच्छा पक्का मकान तीन मंजिल का। नौकर चाकर। सब कुछ जमे-धमे लोग थे। चट मँगनी पट शादी हो गई।

लाल जोड़ा हाथ में ढेर सारी चूड़ियाँ सिर में घूँघट और ढेर सारे सपने आँखों में लिये मैंने अपने नए घर, ससुराल और अपनी नई जिंदगी में कदम रखा। घर में सारी रस्मों के बाद मुझे आराम करने को कह दिया गया। मैं भी भारी साड़ी और गहनों में थक चुकी थी।

सब कुछ उतार कर गाउन पहन कर आराम से लेट गई। थोड़ी देर बाद रोहन भी आ कर सो गये। सुबह माँ जी ने आवाज लगाई बहुरिया जल्दी से तैयार हो जाओ। कथा होने वाली है। मैं और रोहन जल्दी से तैयार होकर कथा में बैठ गये।


कथा के समाप्त होते ही सब लोग बड़ी बेसब्री से मेरा किचिन में इंतजार कर रहे थे मीठा बनाने की रस्म के लिये। मीठा बनाया। सबको खिलाया मुझे नेग भी मिला। 


समय बीता, धीरे - धीरे  सारे रिश्तेदार जा चुके थे। घर एक दम खाली हो गया। दिन में घर में कोई रहता नहीं। माँ जी और ये दुकान चले जाते शाम को लौट कर आते।

माँ जी ने घर के सारे नौकरों की छुट्टी ये कहकर कर दी कि अब बहुरिया आ गई है तो आप लोगों की कोई जरूरत नहीं। दिन भर घर के काम में वक्त बीत जाता। मेरे पास कोई बात करने वाला भी नहीं था कि जिससे मैं अपने मन की बात कर सकूँ, होठों में पपड़ी जम जाती। कोई फोन भी नहीं।

अधिकांशतः माँ जी और ये शाम को लेट ही घर आते तो सबको खाना खिलाकर मैं बर्तन साफ करती, तब तक ये और माँजी सो चुके होते। मैं सोचती आज थके होंगे। कल बात करूँगी। पर रोज यही होता रहा। 


एक दिन मेरी ताबियत खराब थी मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था,पर कहती भी तो किससे,मैं काम कर रही थी काम करते करते बेहोश हो गई। तब डाक्टर बुलाया गया।चैकअप के बाद उसने बताया कि मैं माँ बनने वाली हूँ ।


मैं बहुत खुश थी जानकर कि मेरी सहेली मेरी गुड़िया रानी, मेरे अकेलेपन की साथी आने वाली है। तभी डॉक्टर रोहन से कहते हैं कि राधिका को हॉस्पिटल लेकर आना, कुछ जरूरी टैस्ट करने हैं।


मैं अपनी सोच से बाहर आकर फिर एक नया सपना देखने लगती हूँ कि शादी के बाद पहली बार इनके साथ बाहर जाना है इनसे बहुत सारी बातें करूँगी। ये कहते हैं मैं दो घण्टे में आ रहा हूँ तुम तैयार हो जाओ।

मैं तैयार होकर उनका इंतजार करने लगी और सोचने लगती हूँ कि क्या - क्या बात करूँगी। दो घण्टे के बाद रोहन का ड्राइवर आता है। 

मैंने पूछा साहब कहा हैं?

जी साहब गाड़ी में हैं आपको बुला रहे हैं।

जी। 

जब मैं गाड़ी में बैठती हूँ, रोहन फोन पर ही व्यस्त थे, मेरे सपने मेरी आँखों के सामने चकनाचूर हो जाते हैं रोहन फोन पर लगातार बात करते करते ही हॉस्पिटल जाते हैं। मैं अकेले अंदर जाकर टैस्ट करवा लेती हूँ। रोहन फोन पर बात ही करते रहते हैं।मुझे  गुस्सा तो बहुत आता है पर किससे कहूँ। ऐसे में वक्त बीतता चला गया।  


फिर वो बरसात की रात मेरे लिये लाती है सौगात। मैं बहुत ही खूबसूरत सी बेटी को जन्म देती हूँ उसके स्पर्श और खूबसूरत मुस्कान को देखकर मेरी आँखों से खुशी के आँसू निकल आते हैं, जिसमें मेंरे सारे दर्द बह जाते हैं। इतने में मेरी सासु माँ आ जाती हैं ,जिन्हें बेटी नहीं बेटा चाहिए था। 


उन्हें मेरी बेटी एक आँख भी नहीं सुहाती थी। उन्होंने न उसका चौक किया न कोई कार्यक्रम किया। उसके पैदा होते ही घर में मातम का महौल था। पर मुझे परवाह नहीं थी। मैं अपनी बेटी के साथ खुश थी। कभी मैंने रोहन और माँ को जबाब नहीं दिया था।


एक रात की बात है,गुड़िया दूध नहीं पी रही थी बस रोये जा रही थी। मैं तैयार होकर गुड़िया को लेकर अकेले दुकान पहुँच गई कि गुड़िया बहुत रो रही है हॉस्पिटल ले जाना है।तभी माँ जी ने कहा छोटे बच्चे ऐसे ही करते हैं थोड़ी देर में ठीक हो जायेगी।

तब मैंने पलट कर माँजी से कहा सुबह से एक सा ही रो रही है माँजी।


रोहन डॉक्टर के पास चलिये। रोहन माँ जी की तरफ देखता है और मुँह फेर लेता है।

मैं पेटी से पैसे लेकर अपनी बेटी को डॉक्टर के पास ले जाती हूँ। तीन दिन एडमिट रहकर गुड़िया ठीक हो जाती है। डॉक्टर ने बताया कि गुड़िया के लंग्स में दूध चला गया था जिससे उसे इंफेक्शन हो गया। बेटी के लिए मैंने अब सास को जबाब देना शुरू कर दिया है। 


और हाँ अब रोहन को भी अपनी ग़लती का एहसास हो गया है। वो अब गुड़िया का ख्याल रखने लगे हैं, पर माँ जी  का स्वभाव नहीं बदला।वो तो आज भी नहीं सुधरी पर हम बिगड़ गए हैं। अपनी बेटी के लिये बोलना सीख गये हैं। 




अपने पाँव

(अलका गुप्ता 'भारती' -  शब्द संख्या 340)


भोलू स्वयं में खोया सा सोच रहा था ..ठीक है मैं उस दरिंदे शेरू दादा के चंगुल से छूट गया तो अब धूप,सर्दी, गर्मी में सड़कों, रेलवे स्टेशन, मंदिर इत्यादि भीड़ भरे दूभर स्थानों पर भीख नहीं मांगनी पड़ेगी । यहाँ अनाथालय में खाना कपड़ा और रहने को स्थान तो मिलेगा ही इसके साथ ही पढ़ने लिखने को भी मिलेगा ..मेरा जीवन संवर जायेगा । मैं अन्य सभी बच्चों की भाँति बड़ा होकर एक सफल इन्सान बन सकता हूँ । 


..मगर ..मगर बिना पाँव..अधूरा अपंग मैं ..कर भी क्या पाऊँगा ..कहाँ जाऊँगा काम करने । उफ़ ..काश ! मैं शेरू दादा का कहना मान कर ..पहले की भाँति ही भीख माँग कर उसे देता रहता । मौसी के झांसे में आकर भागने की कोशिश न करता तो वह मेरी टाँगे काट कर अलग न करता । कितना भीषण दर्द हुआ था । वह कौन मेरी सगी मौसी थी ..भाग गई ..एक बार भी मेरी खबर न ली ..अरे भीख तो वह भी मँगवाती ..कौन कहीं का राजा बनाने को लेके जा रही थी। 


दौडने का कितना शौक था मुझे ..सोचता था ..दौड़ कर इन सबसे दूर ..भाग जाऊँगा ..कु़छ काम करके , कमा कर खाऊंगा । सबकी तरह से एक अच्छी जिंदगी जियूँगा। 


पर अब यहाँ ..अनाथालय में एक कोने में पड़ा पड़ा ..कर ही.. क्या पाऊँगा ? इसी सोच में बेचैन हो.. उसने जेब से चौक का टुकड़ा निकाल कर.. बड़ी हसरत से अपने शेष पैरों को ..भूमि पर रेखांकित कर पूर्ण करना चालू कर दिया । 


तभी अचानक सामाजिक कार्यकर्ता मयंक भाई की मौजूदगी ने उसे चौंका दिया ..उन्होने कहा ..बेटा ये देखो ये आण्टी हैं । ये कृत्रिम अंग लगवाने वाली संस्था से आयीं हैं । तुम उन कृत्रिम पैरों की मदत से पुनः अपने सभी काम अपने आपसे चलकर कर सकोगे । 


इतना सुनते ही उसका चेहरा खुशी और आश्चर्य से चमक उठा...बोला ..सच !! ..क्या मैं पुनः चल पाऊँगा ! 


...और इसी अप्रत्याशित खुशी की आहट ने जैसे उसके सारे ग़म भुला दिये और वह कभी उन दोनों को और कभी अपने रेखांकित किए गए उन संपूर्ण पाँवों की कल्पना में दौड़ता हुआ प्रतीत हो रहा था ।




पेट पूजा

(पुष्पा कुमारी - कुल शब्द - 634)


"मां!.. मां!" वह जोर-जोर से गला फाड़ता,..आवाज लगाता आंगन से लेकर ऊपर छत वाले कमरे तक घर के चप्पे-चप्पे को छान आया किंतु छुटकू संग माँ उसे कहीं नहीं मिली और अचानक खुद को घर में अकेला महसूस कर उसकी रूह कांप गई जैसे खाली घर उसे काटने को दौड़ा।


स्कूल में छुट्टी की घंटी बजते ही वह सर पर पांव रखकर सरपट घर की ओर ऐसे भागा था मानो जंगल से छूटा हो और शहर में कहीं दावत बंट रही हो लेकिन यहां तो मामला उल्टा पड़ गया।


तभी मोहल्ले भर की हवा खोरी करके अभी-अभी बैरंग लौटी दादी ने बताया कि उसकी मां अपनी किसी खासम खास सहेली के इंतजार में काफी देर से पलक पावडे बिछाए यहीं दरवाजे पर टकटकी लगाए बैठी थी किंतु जब उसके सब्र का बांध टूट गया तो छुटकू की उंगली थाम सहेली की अगवानी करने स्टेशन की ओर रवाना हो गई। खैर सारा माजरा समझ उसकी जान में जान आई।


"दादी भूख लग रही है!"

"मैं अभी-अभी चल कर आई हूं! हड्डियां जवाब दे रही है। जाकर देख रसोई में तेरी माँ ने क्या-क्या छप्पन भोग बनाए हैं।"


मेहमान के स्वागत में कुछ खास पका होगा यह सोचकर अचानक उसकी बांछें खिल गई।

"दादी! आप आराम कीजिए,.मैं पेट पूजा करके आता हूँ।"

रसोई का रुख करते ही उसके मन में हजारों लड्डू एक साथ फूटे लेकिन यह क्या! पहले व्यंजन के भगोंने से ढक्कन हटाते ही उसका मन भन्नाया और कद्दू के कोफ्ते ने भी उसे मुँह चिढ़ाया। करारी भिंडी संग भरवा करेला भी उसके भूख की खिल्ली उड़ाने लगा। 


सारे व्यंजनों का मुआयना करने के बाद उसने अपना माथा धुन लिया।

"यह खाना मेहमान को खिलाने के लिए बनाया गया है या किसी को मजा चखाने के लिए!"


रसोई में पके व्यंजनों से किनारा कर उसने आंख पसार पूरी रसोई का जायजा लिया और उसकी तलाश फ्रिज तक जाकर खत्म हुई। फ्रिज खोलते ही उसकी मुंह मांगी मुराद भी पूरी हुई।


डब्बे भर गुलाबजामुन देख उसकी आंखें फटी की फटी रह गई और मुंह में पानी भर आया। दो-चार गुलाबजामुन तो वह फ्रिज खोलने-बंद करने के दौरान ही चट कर गया।

कटोरा भर गुलाबजामुन ले अपने कमरे में जाने से पहले उसे अपनी दादी का ख्याल आया और उनके कमरे में जा उन्हें प्यार जता एक टुकड़ा गुलाब जामुन वह अपने हाथों से उनके मुंह में डा़ल उन्हें तृप्त कर आया।


पलक झपकते ही कटोरा सफाचट कर वह पुनः रसोई में अवतरित हुआ। फ्रिज खोल उसने डब्बे में कम हो चुके गुलाबजामुनों की गिनती की। पूरे आठ बचे थे।


"बहुत है!" यह सोच एक के बाद एक चार और गुलाबजामुन अपने मुंह में स्वाहा कर गया। 

"चार गुलाब जामुन कम थोड़े ही होते हैं!" यह सोच उनमें से भी एक पर अपना हाथ साफ कर वह अपने कमरे में आ होमवर्क बनाने के लिए कॉपी खोला बैठ गया लेकिन मन अभी भी गुलाबजामुन पर ही अटका रहा। 


"पापा तो वैसे भी अपने हिस्से का गुलाबजामुन अपने आंखों के तारे यानी मेरे मुंह में ही डालेंगे।" यह सोच वह उल्टे पांव रसोई में आ फ्रिज खोले खड़ा था।


"मम्मी भी मुझे कम प्यार थोड़े ही करती है!" यह विचार मन में आते ही छुटकू के हिस्से का एक छोड़ दो और गुलाबजामुन अपने पेट के हवाले कर जोर लगा डब्बे का ढक्कन बंद कर आखिर उसने चैन की सांस ली।


अपने कमरे में आ एक गहरे सुकून के साथ होमवर्क की कॉपी किनारे रख वह बिस्तर पर लेट गया। अभी आंख लगी ही थी कि जैसे किसी ने बांह पकड़ कर उसे झकझोरा

"चल उठ!"..

"क्या हुआ?"... वह नींद में ही बड़बड़ाया।

"बाकी के गुलाबजामुन कहां गए?"


आधा किलो गुलाबजामुन के डब्बे में इधर से उधर धक्के खाता एकलौता गुलाबजामुन देख आंखें तरेरती माँ सामने खड़ी थी और वह बगले झांकता ख्वाब से जाग हकीकत में कदम रखने को तैयार नहीं।





कंजूस पापा

(गोपेश दशोरा - शब्द संख्या – 1,100+)


ऐसी बात नहीं कि पापा कुछ नहीं दिलाते थे, पर जब भी कुछ दिलाते थे... हे भगवान्! इतनी दुकानों के चक्कर, इतना मोल भाव कि कभी-कभी तो हमें लगता था, कि हमने कुछ मांग कर ही गलती कर दी। छोटी-मोटी दुकानों तक तो ठीक वो तो शाॅपिंग माॅल और कम्पनी आउटलेट पर भी भाव करने से नहीं चूकते। सेल्समेन मन ही मन गुस्सा होता पर चेहरे पर मीठी सी स्माइल के साथ कहता “साॅरी सर नहीं हो पायेगा।” अभी पिछले रविवार को ही मेरे लिए क्रिकेट का बेट लेने माॅल चल दिए, वहीं पड़ोस के शर्मा जी भी मिल गए। (पहले ये बता दूं कि शर्मा जी पापा के साथ ही काम करते है और उनका लड़का मोनू मेरे ही साथ स्कूल में पढ़ता है। हम दोनों को ही क्रिकेट का शौख है और दोनों ही ने बेट के लिए दो हफ्तों से घर में थोड़ा माहौल बना रखा है।) हां तो वो भी बेट लेने आए थे और हम भी। दुकान में घुसते ही पापा ने कह दिया ये तो महंगी दुकान लगती है। वो शर्मा जी से बतियाने लगे और मैं और मोनू बेट देखने लगे। क्या बेट थे यार... गजब। तभी एक बेट पर नजर पड़ी तो आँखें खुली की खुली रह गयी। सचिन तेन्दुलकर के आॅटोग्राफ वाला बेट वो भी सिंगल पीस। बस अब तो यही लेना है। मैं और मोनू दोनों अपने-अपने पापा के पास लपके और उस बेट को लेने की जिद करने लगे। पापा आए और उसका दाम पूछा और जैसे उबल पड़े, पांच हजार... क्यूं मजाक करते हो भाई क्या सोने का बेट है। दुकानदार ने बताया कि उस पर सचिन तेन्दुलकर का आॅटोग्राफ है, इसलिए महंगा है। पर पापा कहां मानने वाले थे, उलझ पड़े अरे सचिन ने कौनसा यहाँ आकर साइन किया है, वो तो छपा हुआ है उस पर। तभी शर्मा जी पीछे से आए और बोले “क्या गुप्ता जी बेट पसन्द नहीं आया, भई मोनू तो जीद पे अड गया है कि बेट तो यहीं लेगा।” उन्होंने भी उसका दाम पूछा और जेब से पांच हजार निकाल कर दुकानदार के हाथ में धर दिए, और दूकानदार ने बेट मोनू के हाथों में। और मैं बस खड़ा देखता ही रहा, मेरे सामने मेरे सपनों का बेट मोनू के हाथों में था। शर्मा जी फिर बोले “गुप्ता जी मेरे लिए तो बच्चों की खुशी ही सबसे बड़ी है, भई हम दिन-रात काम आखिर करते किसके लिए है, उनकी खुशी के लिए ही तो ना।” इतना कह कर वो तो लौट गए। पर मेरा मन अभी भी उसी में अटका था। लौटते समय मैंने पापा से कोई बात नहीं, स्थिति को भांप पापा कहने लगे “अरे बेटा तुम निराश ना हो, अपने मोहल्ले में वो दुकान है ना वहां भी ऐसे ही बेट मिलते है, अभी दिला दूंगा, आज तो बेट लेकर ही घर चलेंगे।” आखिर वहां पहूंचे और पन्द्रह सौ का बेट बारह सौ में लेकर घर पहूंचे। बेट तो वैसा ही था पर सचिन का साइन...।


अगले सप्ताह हमारी परीक्षाएं भी शुरू होने वाली थी इसलिए बेट पर ज्यादा घमासान नहीं हुआ। परीक्षाएं खत्म होने के साथ ही स्कूल भी बन्द हो गया.... लाॅक डाउन लग गया। देश में कोरोना का कोहराम मचा था और घर में हमारा। जो मम्मियां हमें सण्डे को भी नहीं झेल पाती थी, उन्हें हर दिन हमें झेलना था और हमें, पापा को। दरअसल पापा की प्राइवेट जाॅब थी और उनके सेक्शन में वर्क एट हाॅम सम्भव था नहीं, तो कम्पनी ने ये कह कर घर बिठा दिया, कि नौकरी नहीं जाएगी पर जब तक फैक्ट्री चालु नहीं हो जाती, घर ही रहना है वो भी बिना तनख्वाह के। पापा को टेन्शन तो थी, पर उन्होंने कभी उसे हमारे सामने नहीं आने दिया।


दिन में टी.वी. और सुबह शाम क्रिकेट में पता ही नहीं चला कब एक महिना निकल गया। एक रोज दिन में टी.वी. देखते समय अचानक दरवाजे पर घण्टी बजी। हम सभी चैंक गए, अभी ऐसे माहौल में कौन आया होगा? मैंने दरवाजा खोला तो देखा शर्मा अंकल खड़े थे, साथ में आण्टी भी थी। मैंने नमस्ते कर उन्हें अन्दर बुलाया। वो आए और पापा के साथ वाले सौफे पर बैठ गए। मैं भी वहीं था। शर्मा अंकल कुछ बैचेन लग रहे थे। कुछ कहना चाह रहे थे, पर कह नहीं पा रहे थे। तभी पापा ने मुझे अन्दर जाकर खेलने के लिए कहा। मेरे मन में ना जाने कितने सवाल उठ रहे थे। मैं गया, पर दरवाजे के पीछे जाकर खड़ा हो गया। शर्मा अंकल लगभग रोने की स्थिति में थे। आण्टी ने तो मम्मी से मिलकर रोना शुरू भी कर दिया था। शर्मा अंकल कहने लगे “गुप्ता जी आपको तो पता ही है, कम्पनी ने घर बिठा दिया है। कब बुलाएगी, कुछ पता नहीं। एक महिना तो जैसे तैसे निकाल लिया पर..... अब थोड़ी दिक्कत आ रही है। अगर थोड़ा पैसा मिल जाता तो.... मैं कम्पनी शुरू होते ही सारे लौटा दूंगा।”


पापा मुस्कुराए और कहने लगे “शर्मा जी पैसे तो मैं दे दूंगा, मगर माफ करना, मैं कुछ कहना भी चाहता हूं। सारी काॅलोनी, अपना स्टाफ, यहाँ तक कि मेरे बच्चे भी मुझे कंजूस कहते है। क्योंकि मैं मौल भाव करता हूं, दो-चार दुकानों में सस्ते के चक्कर में भटकता हूं। पर सच तो यह है शर्मा जी, इस समय के लिए ये सब करना पड़ता है। समय कह कर तो आता नहीं, उसके लिए तैयारी तो हमें पहले से ही करनी होगी ना। एक दिन आपने कहा था कि हम दिन-रात बच्चों की खुशी के लिए ही तो काम करते है.. गलत! हम उनके भविष्य को सुरक्षित करने के लिए काम करते है। अपने सपनों, अपनी ख्वाहिशों को दरकिनार कर उनके लिए एक-एक पैसा जोड़ते है। अभी वो थोड़ा गुस्सा हो सकते है, लेकिन आज जैसी स्थिति कभी इनकी आ गई तो क्या हम देख पाएंगे। थोड़ बचत की आदत डालों गुप्ता जी। ये समय शायद यही सिखाने के लिए आया हो।” 


अब गुप्ता अंकल की आँख के आंसू सारी मयादाएं तोड़ बह निकले थे। उन्होने मान लिया कि माता-पिता पहला कर्तव्य अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित करना होता है, ना कि उनकी हर चाही अनचाही मंागों को पूरा करना। पापा ने उठ कर उनको गले लगाया और अलमारी से पच्चीस हजार रूपये निकाल कर दे दिये। साथ ही यह भी कहा कि और जरूरत पड़े बेहिचक बता देना। शर्मा अंकल और आंटी बहुत खुश हो रहे थे, पर पापा के सामने नजर नहीं उठा पा रहे थे। 


जब वो चले गए, तो मैं गया और सीधा पापा के गले में अपने दोनों हाथों को डाल उनकी गोद में बैठ गया। पापा ने एकदम आश्चर्य से मेरी और देखा, और पूछा क्या हुआ? मैंने कहा “कुछ नहीं अपने कंजूस पापा पे प्यार आ रहा है।” उन्होंने आश्चर्य से फिर मुझे देखा और मुस्कुराने लगे। मैंने फिर कहा “पापा आप ऐसे कंजूस ही रहना।” वो फिर मुस्कुराए और मेरे माथे को चूमते हुए अपने सीने पर मेरे सर को रख, मेरे गालों पर हाथों से हल्की-हल्की थपकिया देने लगे।

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समीक्षा

(“आओ लिखे छठवीं कहानी” का परिणाम व सम्मिलित कहानियों की समीक्षा )

प्रभा मित्तल 


नमस्कार मित्रों, 


एक लम्बे समय के बाद आज पुनः हम यहाँ उपस्थित हैं..... कहानियों के पिटारे को खँगाला तो पाया 4 जनवरी 2021 को दी गई छठवीं कहानी के अन्तर्गत हमारे पास कुल नौ कहानियाँ आईं थीं, जिनका परिणाम अभी देना बाकी था। आज मैं उन्हीं कहानियों की समीक्षा लेकर उपस्थित हूँ। 


सभी प्रतिभागियों ने अपनी अपनी कहानी के पात्रों में जान डालने का भरसक प्रयास किया है। इस बीच एक दुःखद ख़बर भी है ....हमारी एक प्रतिभागी रचनाकार विजय लक्ष्मी भट्ट शर्मा जी... अब इस दुनिया में नहीं हैं.. अकस्मात उनके निधन की खबर ने हमें चौंका दिया। वो जहाँ कहीं भी हैं मैं उन्हें नमन करती हूँ... ईश्वर उनकी दिवंगत आत्मा को शान्ति दे!!! जाने से पहले हमारे लिए वे एक उत्कृष्ट कहानी रच गईं..और उनकी वही कहानी प्रथम स्थान पर उन्हें विजयी घोषित कर रही है। अतः विजय लक्ष्मी भट्ट शर्मा जी की स्मृति में उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए सबसे पहले मैं उन्हीं की कहानी आपके समक्ष रख रही हूँ।.......

 



1. डॉ. विजय लक्ष्मी भट्ट शर्मा की कहानी.......'एक आँख से देखना'.... बेटा-बेटी में भेद-भाव रखने वाले माता-पिता के लिए यह कहानी एक सबक साबित हो सकती है।... एक आँख से देखना... कहानी की मुख्य पात्र निम्मी, अपनी सहेली की उसके माता -पिता द्वारा लड़का-लड़की में अन्तर रखने वाली बातों में आकर,  भूख लगने पर तुरंत खाना न मिलने पर अपनी माँ के लिए भी ऐसी ग़लत धारणा बना लेती है... यह सोचकर कि मेरी माँ भी हम भाई-बहन में भेद रखती हैं... नाराज़ होकर, अपनी माँ को प्रतियोगिता में जीते हुए पुरस्कार दिखाना भूल जाती है। लेकिन भाई के खाना माँगने पर जब माँ को ये कहते हुए सुना कि..बहन भूखी है पहले उसे खाने के लिए बुला ला...निम्मी को अपनी भूल का अहसास होता है और उसकी आँखों में पश्चाताप के आँसू आ जाते हैं। कहानी का सार यही है कि माता-पिता द्वारा बेटा - बेटी में किया जाने वाला भेद - भाव बच्चे का जीवन बर्बाद कर सकता है। वे दोनों बच्चों को समान नज़र से देखें। सोच बदलेगी तभी समानता आएगी। क्या कहूँ मैं विजय लक्ष्मी जी के लिए....हमारे समूह में वो जितने जोश से आईं थीं ..कुछ कहानियाँ और कुछ कविताएँ सुनाकर हँसते - हँसते उतनी ही तेजी से अचानक वो यहाँ से चली भी गईं...वो कहती थीं... 'मैं खुशबू हूँ हवा में मिल संग उड़ान भरती हूँ, मेरी तमन्ना न कर मैं अदृश्य रहा करती हूँ।'  अब न जाने किस दुनियाँ में विचरती होंगी। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे।ओम् शान्ति..शान्ति !! 


2. प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल जी..की कहानी..'नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली'.....! (प्रोत्साहन स्वरूप) प्रतिबिम्ब जी की कहानी नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली ... हमें संदेश देती है कि... फैशन परस्ती और आधुनिकता की होड़ में लोग अंधी दौड़ लगाते हैं और फिर मुँह के बल गिरते हैं....जब होश आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, फिर पछतावे के सिवा हाथ में कुछ नहीं रहता। कहानी का मुख्य पात्र राकेश कुमार उर्फ़ रॉकी हीरोगिरी दिखाकर अपनी लच्छेदार बातों में लपेट कर आए दिन न जाने कितनी लड़कियों के साथ फ्लर्ट कर चुका है। उन्हीं में से एक लड़की रमा से रॉकी को सच्चा प्रेम हो जाता है, अब वह उसके बिना नहीं रह सकता अतः प्रेम का इज़हार भी कर देता है। लेकिन रमा के हाव - भाव व उसके रहन-सहन से उसे जल्दी ही आभास होने लगता है कि यह मेल असम्भव सा है, और दुःखी रहने लगता है। रमा रॉकी के प्रेम को भाँप कर उसे धोखे में नहीं रखना चाहती और एक दिन स्वयं ही अपने इस राज पर से पर्दा उठाती है कि वह विवाहित है उसके पुरुष मित्रों की सूची लम्बी है, वह पैसे के लिए ही नित नए बॉय फ्रैंड बदलती है, और उसके पति भी उसके इस कृत्य में शामिल हैं। इस खबर से तो रॉकी बिल्कुल टूट ही जाता है और अंत में मन ही मन उन सब लड़कियों से क्षमा माँगता है व निर्णय करता है कि अब कभी किसी लड़की के साथ फ्लर्ट नहीं करेगा। वह रॉकी से वापिस राकेश कुमार बन जाता है। आखिर नौ सौ चूहे खाने के बाद बिल्ली ने हज कर ही लिया। यही सार है इस कहानी का। हीरो को सही सबक सिखाया प्रतिबिम्ब जी। अंत भले का भला....देर आए दुरुस्त आए। (प्रोत्साहन स्वरूप सबसे पहले कहानी लिखने के लिए हार्दिक धन्यवाद ...आभार।) 



3.किरण श्रीवास्तव की कहानी..... 'अक्ल पर पत्थर पड़ना'.....! अक्ल पर पत्थर पड़ना कहानी के द्वारा किरण श्रीवास्तव जी ने यह स्पष्ट किया है कि किसी भी स्थिति में किसी अजनबी की बातों में आकर अपना होश नहीं खोना चाहिए...मिसेज शर्मा तो शिक्षित थीं फिर भी सन्तान की चाह में पूजा-पाठ, झाड़-फूँक करवाना चाहती थीं। एक दिन दो अनजान औरतें आईं और उन्हें माँ बनने का लालच देकर बातों - बातों में बड़ी चालाकी से मिसेज शर्मा के सारे गहने लेकर चम्पत हो गईं। अब पुलिस बुलाओ या पछताओ...कुछ नहीं हो सकता था...उन औरतों का नाम -पता, फोन नम्बर सब ग़लत था। सो... अब पछताए क्या होत है जब चिड़िया चुग गई खेत। इसीलिए कहा है....मिसेज शर्मा की अक्ल पर पत्थर पड़ गए थे जो वो अपना होश खो बैठीं।



4. विश्वेश्वर प्रसाद सिलस्वाल की कहानी......'जैसे को तैसा'.....! विश्वेश्वर प्रसाद जी की कहानी में ..जैसे को तैसा से अभिप्राय यही है कि जो जैसा करेगा उसे वैसा ही फल मिलेगा। भाभी जी चाहती थीं उनकी बॉक्सिंग कोच बहू नौकरी के साथ-साथ घर का काम-काज भी किया करे। एक दिन उन्होंने नाश्ता बनाकर, बर्तन माँजकर स्कूल जाने को क्या कहा, बहू ने तो उनके गाल पर दो घूँसे ही जड़ दिए। भाभी जी ने अपने समय में अपनी सासु माँ के साथ भी कुछ ऐसा ही व्यवहार किया था तो आज उन्हें भी ये दिन देखना पड़ा। ये पूर्व उनके कर्मों का फल ही तो है। सो आशय यही है...जैसा करोगे वैसा ही भरोगे। मनुष्य अपने जीवन में जैसा कर्म करता है वह वैसा ही फल भी पाता है। 


5. प्रभा मित्तल की कहानी.... 'उस रात की कहानी'!

कहीं भी किसी भी विभाग में चले जाओ, यदि आपकी पहुँच ऊपर तक है तो आपकी बात हर कोई सुनता है....अन्यथा ग़रीब के लिए कहीं कोई जगह नहीं..कोई सुनवाई नहीं। सत्य कथा पर आधारित ..'उस रात की कहानी'..अस्पताल के प्रशासन की लचर व्यवस्था और स्टाफ का अमानवीय व्यवहार बयां करती है। दो बार घर में जन्म के समय ही बच्चे खो चुकी शांति इस बार गर्भवती होने पर लोगों के समझाने पर तीसरे प्रसव के लिए, ये विश्वास लिए कि उसकी गोद अबकी बार ज़रूर हरी होगी, वह अस्पताल आती है, लेकिन मेडिकल स्टाफ की लापरवाही के कारण उसे प्रसव के बाद इस बार भी सूनी गोद लिए ही वापिस जाना पड़ा। उसका कसूर बस इतना ही था कि वह ग़रीब थी...वहाँ किसी को जानती नहीं थी, इसलिए उसकी ओर किसी ने ध्यान देना उचित नहीं समझा। दूसरी तरफ़ एक अन्य महिला जिसकी पहुँच ऊपर तक थी,पैसा था ..उसका ख़ास ख्याल रखा जा रहा था। क्या ये अन्याय नहीं है? मन के सोए हुए तारों को झिंझोड़ती है ये सत्यकथा। चिकित्सकों का व्यवहार तो सभी के लिए समान होना चाहिए। बस इस कहानी के माध्यम से मैंने यही कहना चाहा है। यदि सभी अपने अपने कर्तव्य का ईमानदारी से पालन करते हुए ग़रीब-अमीर के साथ समता का व्यवहार करें तो ऐसे अनिष्ट को होने से बचाया जा सकता है।


6. गरिमा कांसकार की कहानी .....'हम ही बिगड़ गए' ....! गरिमा कांसकार जी की कहानी...हम ही बिगड़ गए ... हमें आगाह करती है कि अपनी बेटी का रिश्ता करने से पहले उस परिवार को,जाँच-परख लेना चाहिए। पैसा-मकान जायदाद ही सब कुछ नहीं होता बल्कि बेटी के लिए सुयोग्य वर और स्नेही परिवार की तलाश करें। न कि किसी के भी कहने में आकर अपनी बेटी का सम्बंध जहाँ कहीं भी जोड़ दें। कहानी की मुख्य पात्र राधिका के साथ कुछ ऐसा ही हुआ था, राधिका की बुआ के कहने से उसे ऐसे परिवार में ब्याह दिया गया जहाँ बहू केवल घर के काम- काज के लिए लाई जाती है। पति के पास भी अपनी नवविवाहिता पत्नी के लिए समय नहीं है,बस सुबह से रात तक काम काम और काम। समय के साथ वह गर्भवती होती है और एक कन्या को जन्म देती है। तब तो घर में मातम सा छा जाता है मानो लड़की को जन्म देकर उसने बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो।पति और सास की बेरुखी सहते हुए वह प्यार से अपनी बच्ची को पाल रही है। लेकिन एक दिन ऐसा भी आता है जब वह अपनी नन्हीं बेटी के बीमार होने पर, सासु माँ के विरोध करने पर भी स्वयं ही उसे लेकर डॉक्टर के पास जाती है... बच्ची के फेंफड़ों में संक्रमण हो जाने के कारण उसे तीन दिन के लिए अस्पताल में रखना पड़ता है। उस समय पति को अपनी ग़लती पर पश्चाताप होता है और अब वह पत्नी और बेटी की परवाह करने लगा है। लेकिन माँजी का दिल नहीं पिघलता। जिस बहू ने कभी पति और सासु माँ को पलटकर जवाब नहीं दिया था आज वह अपनी बेटी को अस्पताल ले जाने के लिए अड़ गई थी....बस इसी से उसे लगा कोई तो सुधरा नहीं...'हम ही बिगड़ गए'। आशय यह है कि बेटे-बेटी को समान समझें उनको बराबर महत्व दें।


7. अलका गुप्ता 'भारती'  की कहानी.......'अपने पाँव' ! 'अपने पाँव' .... कहानी का कथानक कुछ इस प्रकार है ... मुख्य पात्र भोलू अनाथालय में पहुँचकर आराम से खाना-कपड़ा मिल जाने पर गुज़र-बसर कर पढ़-लिखकर कुछ बनने की बात सोचकर सुकून महसूस कर रहा है...लेकिन तभी अपने पाँवों को देखकर निराश हो जाता है यह सोच कर कि कैसे वह अपने पाँवों पर खड़ा हो सकता है क्योंकि वह भिखारी नहीं बने रहना चाहता था इसलिए उसके भागने पर शेरू दादा ने तो उसके दोनों पाँव काट डाले थे। ताकि वह भीख लाकर शेरूदादा की झोली भरता रहे। वह उदास होकर जमीन पर अपने पाँवों को चॉक से रेखांकित कर पूरा करने लगता है...तभी एक संस्था की कार्यकर्त्री उसे कृत्रिम पाँव लगाने का आश्वासन देती हैं....मैं पुनः चल पाऊँगा इस कल्पना मात्र से ही भोलू का मन खुशी से दौड़ने लगता है।.... इस कहानी के द्वारा अलका जी ने बहुत बड़ी समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया है। तीर्थ हो या महानगर सब जगह बड़े बड़े बच्चे चुराने वाले गैंग हैं जो बच्चों को अपंग बनाकर उनसे भीख मंगवाते हैं और अपनी कमाई का साधन बना लेते हैं।ऐसे लोगों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए। साथ ही अनाथालय ऐसे बच्चों को आश्रय दे तथा उनका उचित इलाज भी करवाए।ताकि बच्चों का जीवन बर्बाद होने से बच सके।काश..बच्चों के साथ हो रहे इस गम्भीर अपराध को किसी तरह रोका जा सके। ...शुभकामनाएँ अलका जी।


8. पुष्पा कुमारी की कहानी......'पेट पूजा'....! जैसा कि शीर्षक से ही ज़ाहिर है....पेट पूजा ...यानि जी भर खाया होगा। कहानी क्या है..किस्सा ए मजेदार है...बच्चा स्कूल से घर लौटता है तो माँ को ढूँढ़ता है..ताकि उसे कुछ खाने को मिल जाए। माँ की अनुपस्थिति में मनपसंद व्यंजन ढूँढ़ते हुए फ्रिज में रखे गुलाब जामुनों पर हाथ साफ कर होमवर्क करने बैठता है...लेकिन उसे तंद्रा घेर लेती है। अभी आँख लगी ही थी कि माँ ने आ झकझोरा ..आधा किलो में से केवल एक बचा ...बाकी गुलाब जामुन कहाँ गए..लेकिन वह सच को स्वीकारने के लिए...इतने मीठे स्वप्न से उबरना ही नहीं चाहता था। कहानी मनोरंजक है...साथ ही ये आभास भी होता है कि बच्चों का मन कितना सुकोमल होता है... वे जानते हैं कि माता-पिता उन्हें कितना अधिक प्यार करते हैं... निःसंदेह वे अपना हिस्सा भी बच्चों के साथ बाँट लेते हैं। तभी तो वह उनके हिस्से के भी गुलाब जामुन खा गया।वाह खूब लिखा पुष्पा जी....मन भी मीठा हो गया।


9.गोपेश दशोरा की कहानी.....'कंजूस पापा'....! गोपेश दशोरा की कहानी 'कंजूस पापा' हमें सतर्क करती है कि माता-पिता अपने बच्चे की हर जिद्द पूरी करने के लिए पैसा पानी की तरह न बहाएँ अपितु थोड़ी सूझ-बूझ से बच्चों का भविष्य सुरक्षित करें । कुछ बचत भी करें। कहानीकार अपने पापा की मोल-भाव करने की आदत से परेशान था। शर्मा जी अपने बेटे की हर जिद्द पूरी कर देते थे, तभी तो उन्होंने मोनू को बहुत महँगा बैट खरीद दिया। लेकिन कोरोना-काल में जब लोगों की नौकरी न रही तब इन्हीं कंजूस पापा ने शर्मा जी की आर्थिक मदद की। तब समझ में आया कि ऐसा कंजूस बने रहना ही अच्छा है ताकि संकट के समय किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े। बहुत सुन्दर.अपने उद्देश्य को स्पष्ट करती कहानी है...'कंजूस पापा'। शुभकामनाओं सहित!

अंत में


हालाँकि यह प्रतियोगिता पिछले वर्ष हुई थी लेकिन कुछ कारणों से इस ओर जाना नहीं हो पाया. मौका मिला तो 6 वीं कहानी प्रतियोगिता में सम्मिलित कहानियों को इसमें जोड़ा और पुस्तक का रूप दे दिया है. 


डॉ विजयलक्ष्मी भट्ट जी से नवम्बर 2020 में एक पुस्तक के लोकार्पण पर मिलना हुआ था. वैसे वे फेसबुक में इस समूह और अन्य समूहों की सदस्य थी. दुबारा मिलने का वादा किया था और अपनी कुछ पुस्तकें देने का भी वादा किया था उन्होंने. पर समय और नियति के क्रूर हाथो ने उन्हें हम से गतवर्ष छीन लिया. कोरोना के कारण कई फेसबुक मित्रो व सदस्यों को हमने खोया. दर्दनाक स्थिति रही. विजय लक्ष्मी भट्ट जी सहित सभी दिवंगत मित्रो को हमारी ओर से पुष्पांजलि.


सभी की कहानियाँ अच्छी लगी. कुछ का प्रयास अति सराहनीय रहा. एक दो कहानियों में बहुत मेहनत करनी पड़ी उन्हें ठीक करने में. एक कहानी को तो पूरी तरह बदलना पड़ा. पर कुल मिलाकर मुहावरों पर आधारित सभी कहानियाँ अच्छी बन पड़ी. डॉ विजयलक्ष्मी जी को उनकी कहानी के लिए प्रथम पुरुस्कार मिला. काश वे....... पवित्र आत्मा को नमन.


“आओ कहानी लिखें” का उद्देश्य हिंदी का प्रचार प्रसार व सृजनता है. जो पाठक ‘कहानियाँ’ लिखना और सीखना चाहते हैं, वे हमारे इस समूह से जुड़ सकते हैं. सबका स्वागत है. 


शुभम 

आपका अपना 

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

दिल्ली, भारत 


Saturday, December 26, 2020

आओ लिखें कहानी - ५वीं कहानी

 



अनुक्रम

संख्या

लेखक

कहानी शीर्षक

कुल शब्द संख्या

1.

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

बगावत

993

2.

बीना भट्ट

जन्म कुंडली

885

3.

अल्का गुप्ता

चलती क्या खंडाला

783

4.

मीनाक्षी कपूर

नई उमंग

659

5.

मदन मोहन थपलियाल

वृद्धा व गाँव की पंगडंडी

709

6.

विश्वेशर प्रसाद सिलस्वाल

क्ल्पा

1000+

7.

मीता चक्रवर्ती

लाली (चित्र रूप मे)

882

8.

सविता जोशी

ताई जी

411

9.

संदीप गढ़वाली

अंजाने में

600

10.

विजय लक्ष्मी भट्ट

शिक्षा

1000

11.

पुष्प कुमारी

पत्र शैली में

416

12.

किरण श्रीवास्तव

परिवर्तन

825


~ बगावत ~
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
(प्रोत्साहन हेतु लिखी गई कहानी)
परिधि उस दिन परिवार, समाज संस्कृति-संस्कार की सभी सीमाओं को तोड़कर, अपने माता-पिता की गुहार को अनदेखा कर मोहित के साथ रहने चली गई । परिधि और मोहित स्नातक की पढ़ाई के दौरान मिले थे और प्रेम का रंग उन पर खूब चढ़ा था । उनके प्रेम का दौर लैला-मजनू के किस्से से कम नहीं था । स्नातकोत्तर भी दोनों ने साथ ही किया था । सारे छात्र और यहाँ तक की कि प्रोफेसर भी उन्हें ‘लव बर्ड’ के नाम से जानते थे । कालिज समाप्त के बाद दोनों को ही अच्छी कंपनियों में नौकरी मिल गई । दोनों के अपने अपने सपने थे लेकिन साथ रहना चाहते थे । उनके बीच का प्रेम जो मजबूत कड़ी बना था आज वही मजबूर सा दिखाई पड़ रहा था । मोहित ने अब तक हमेशा परिधि को सम्मान और प्यार दिया था । वह शादी के पक्ष में था । मोहित के माता-पिता ने उस पर कभी कोई बंदिश नहीं रखी थी । वह अपने निर्णयों के लिए स्वतंत्र था । उन्हें कोई आपत्ति भी नहीं थी अपने बेटे के फैसले पर। परिधि अभी वक्त चाहती थी और अपने सपनों को लेकर वह बहुत ही संवेदनशील थी । मोहित के कई बार कहने पर उसने मोहित से कहा कि हम बिना शादी किए साथ रहते हैं जिससे हम अपने सपनों को भी पूरा करेंगे और प्रेम को भी निभाते रहेंगे । तब मोहित ने एकदम से कहा था “ यू मीन लिव इन?” परिधि ने कहा था “ हाँ मोहित अब हम साथ रहेंगे और सपने पूरे होते ही हम शादी कर लेंगे ।“ मोहित भौंचक्का होकर उसे देखने लगा था । उसे परिधि से इस बात की उम्मीद नहीं थी । लेकिन प्रेम की खातिर उसने परिधि को चुना व उसके साथ चलने के लिए राजी होना पड़ा था ।
माता-पिता की लाड़ली परिधि एकलौती संतान थी । उसका लालन पोषण एक बेटे की तरह ही किया था शर्मा दंपति ने। उसके हर सपने को पूरा करने के लिए, उससे बिना सवाल किए हुये उसकी हर मांग को, हर जरूरत को पूरा किया था उन्होंने । शर्मा दंपति के परिवार व रिश्तेदार सदा उन्हें परिधि के लड़की होने का बोध और उस पर अंकुश लगाने के लिए कहा करते थे । लेकिन शर्मा दंपति ने उनकी बातों को सदा अनसुना किया और अपनी बिटिया को सदा ही इन सब बातों से दूर रखा । लेकिन परिधि के लिव इन में रहने के निर्णय ने उनको एकदम सदमें में डाल दिया । अच्छी पढ़ाई, अच्छी नौकरी के बाद वे देखना चाहते थे परिधि को शादी के जोड़े में । उनका सपना था की परिधि की शादी हो उसके बच्चे उन्हें नाना-नानी होने का गौरव दे । परिधि ने माता-पिता की हर गुहार का नकारते हुये अपना एकटूट निर्णय सुना दिया था । न चाहते हुये भी उन्हें अपनी बेटी की खुशी की खातिर इस के लिए हामी भर दी।
शादी जैसी सामाजिक सहमति को नकारते हुये मोहित और परिधि दोनों साथ आ गए । तन-मन से दोनों प्रेम शब्द की सार्थकता को साकार करते हुये अपने सपनों को साकार करने में जुट गए । प्रेम की हर सीमा को दोनों खुल कर जीने लगे । समय के साथ परिधि की व्यस्तता बढ्ने लगी और रिश्तों में दूरी धीरे-धीरे पैर पसारने लगी । यह दूरी कब मोहित के आफिस में काम करने वाली, उसी की टीम की शबाना के साथ नज़दीकियाँ बनने लगी, उसे पता ही नहीं चला । मोहित को उसके प्रति परिधि की उदासीनता अब खलने लगी । वहीं शबाना उसकी हर छोटी मोटी जरूरतों का ख्याल करने लगी । मोहित अब काम के बहाने आफिस में ही समय व्यतीत करने लगा जहां शबाना हर पल उसका साया बन साथ रहती । वहाँ परिधि अपने काम में इतनी मशगूल हो गई की उसे मोहित का न ख्याल रहता था न उसके बदलते हुये प्रेम का भान हुआ । प्रेम शब्द अब उसके शब्द्कोश से छूटता हुआ दिखने लगा ।
शबाना और मोहित इस दौरान इतने करीब आ गए कि दोनों एक जिस्म एक जान बन गए । इसी बीच परिधि के आफिस की एक कर्मचारी ऋचा अक्सर उसके काम में सहायता करती थी । दोनों में मित्रता के संबंध घनिष्ठ होने लगे । समय मिलते ही दोनों मिलते को बैचेन रहते थे । मोहित अब काम का बहाना कर कई-कई दिन बाहर रहने लगा । परिधि और ऋचा इस दौरान साथ साथ नज़र आने लगे । एक दूसरे के घर जा कर रहने भी लगे । दोनों एक दूजे की संगत मे अधिक संतुष्ट नज़र आने लगे । दोनों को आभास होने लगा कि यह मित्रता से बढ़कर है जहां दोनों एक दूसरे के प्रति आकर्षित हो रहे हैं । जल्द ही दोनों ने इस आकर्षण को समझ भी लिया जिसे समाज समलैंगिकता का नाम देता है । दोनों ने समाज की परवाह किए बिना स्वयं को इसकी इजाजत दे दी ।
मोहित और शबाना ने अपने प्रेम को परवान चढ़ते देख एक साथ भारत से बाहर काम करने और वहाँ शादी करने का निर्णय लिया । परिधि ने उसके बाहर जाने पर न कुछ कहा और न रोकने कि कोशिश की । बल्कि मौन रहकर उसकी ज़िंदगी से निकल जाने का हुक्म सुना दिया क्योंकि उसे अब ऋचा के साथ जीवन सुख को बांटना था । दोनों ने एक दूजे मे खुद का सुख ढूंढ लिया । फैसला हो गया परिधि और ऋचा अब साथ रहकर एक दूजे के लिए समर्पित रहेंगे । न बच्चे/परिवार होने की चिंता न किसी ज़िम्मेदारी का अहसास बस जीना तो केवल अपने लिए । यही फैसला उसने अपने माता पिता को सुना दिया ।
शर्मा दंपति परिधि के इस फैसले से स्तब्ध रह गए । उनके शरीर में ज्यों काटो तो खून नहीं । उन्हें विश्वास था कि एक न एक दिन मोहित और परिधि उन्हे पोते-पोती का सुख देंगे । अभी तक तो वे समाज से उनके तानों की परवाह किए बिना दूरी बनाये हुये थे लेकिन परिधि के इस निर्णय ने उन्हें तोड़कर रख दिया । ईश्वर के बने विधि-विधान व समाज द्वारा संचालित व्यवस्था के उलट पति-पत्नी के उस रिश्ते को ठुकरा कर, समाज की रीतियों को ठेंगा दिखाकर, एक अमानवीय रिश्ते को अपनाकर परिधि ने लोकसंस्कृति व संस्कारों की धज्जियां उड़ा दी । कल तक परिधि को बेटा कहने, उसके सपनों को उड़ान देने वाले माता-पिता ने आज उसे मरा मानकर खुद को समाज से फिर जोड़ लिया है।
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~ जन्म कुंडली ~
पुरुस्कृत कहानी
बीना भट्ट बड़़शिलिया
सूर्य की उजास किरणों के साथ स्वाति निस्तेज सी कुर्सी पर बैठी निढाल कुछ सोच रही थी, तभी माँ की आवाज़ ने जैसे उसे जगा दिया। बेटा नाश्ता कर लो,छुट्टी के दिन भी समय से नहीं खाती हो तुम, ठीक है माँ आती हूँ।
स्वाति इंटरमीडिएट कॉलेज में प्रवक्ता पद पर थी, उसकी ज़िंदगी दिशाहीन सी जैसे कोई सिर्फ अपने जीने का मकसद पूरा कर रहा हो...बावन वर्षीय स्वाति जिसके जीवन में तकरीबन पच्चीस साल पहले एयरफोर्स में तैनात एक युवक का आगमन हुआ था, बस एक दो मुलाकात के बाद निशांत अपनी पोस्टिंग चला गया और ये स्वयं की दिनचर्या में व्यस्त.... अचानक एक दिन भाभी ने माँ को बताया कि माँ निशांत अच्छा लड़का है उसे स्वाति भी जानती है इनकी शादी करा देते हैं शायद भाभी को दोनों के बारे में कुछ पता था, माँ की आँखों में खुशी दिखाई दी कि चलो देर से ही सही स्वाति के लिए रिश्ता आया है, माँ ने बहू को बोला चलो मीतू जन्म कुंडली मिलान करवा लो अब मैं भी बूढ़ी हो गई हूँ ज़िम्मेदारी भी पूरी हो जायेगी। भाभी के दूर के रिश्तेदार होने से निशांत की पत्री तुरन्त मंगा ली गई और माँ ने पंडित जी को बुला लिया मिलान और मुहूर्त के लिए। पंडित जी आकर देखते हुए बोले ये जन्म पत्रिकाएं आपस में बिल्कुल मेल नहीं खाती हैं, शादी के बाद कष्टकारी जीवन हो सकता है बिटिया का,माँ नको पंडित जी की बात का पूरा भरोसा था। बात शाम तक के लिए खत्म हो गई,तभी स्वाति थकी हारी सी पर मन ही मन खुश नज़र आ रही थी घर पहुंच गई चाय पीने के बाद माँ ने पूरी तरह पंडित जी की बात का समर्थन करते हुए शादी की असहमति प्रकट कर दी। माँ के आगे बेटी चुपचाप सुनकर अपने कमरे की तरफ भारी क़दमों से चली गई।
कुछ महिनों बाद परीक्षाओं के चलते स्वाति स्कूल से जल्दी लौट आ गई थी,उसने देखा एक सज्जन पुरुष बैठक में बतिया रहे हैं कि लगता है आपकी बिटिया से मेरे भांजे की जोड़ी ईश्वर की बनाई है बस सब ठीक हो तो बात पक्की। सारी बातें घर पर होने के बाद पत्री मिल गई थीं और शुभ मुहूर्त निकाल लिया गया...स्वाति ने झिझकते हुए कहा माँ इतनी जल्दी क्यों है? मुझे कुछ समय दीजिये सोचने का अंकित के घरवालों से भी पूरी बात कीजिये फिर फैसला लिया जा सकता है मैं मना नहीं कर रही पर...अभी मानसिक रूप से तैयार नहीं हूँ।
उधर निशांत छुट्टियों में घर आया था उसने स्वाति से फोन कर कहा क्या एक बार मिल सकती हो। रविवार की दोपहर दोनों एक पार्क में बैठे गंभीर मुद्रा में बातें कर रहे थे, दोनों साथ बहुत सुंदर लग रहे थे,पर स्वाति बिना कुछ बोले नज़रें नीचे करके टपकती आँखों को पोंछ रही थी।
आँखों से ही उसने निशांत से विदा ली और घर जाकर कमरे में फूट फूट कर रोने लगी, थोड़ा समय बाद शांत होकर माँ से बोली माँ ..शादी की तैयारी कीजिये आपने मेरे लिए बहुत सपने देखे हैं मैं कैसे आपको मना कर सकती हूँ। और कुछ औपचारिकताओं के बाद शादी सम्पन्न हो गई,सब सामान्य रूप से चल रहा था कि एक फोनकॉल ने स्वाति की ज़िंदगी में भूचाल ला दिया.... इंस्पेक्टर ने अंकित के एक्सीडेंट की खबर दी,सभी अस्पताल की ओर भागे, सब गीली आँखों से स्वाति को संभाल रहे थे,उसके ससुराल वाले लोग उसे ही कोस रहे थे कि लड़की के क़दम अच्छे नहीं थे,तभी तो अंकित.....!
धीरे धीरे समय तीव्रता से आगे निकल रहा था स्वाति की ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया था वो सुबह स्कूल जाती और शाम को घर आकर नितांत अकेले रहने की आदी हो चुकी थी। वो सोच रही थी कि खुशियों से शायद उसका रिश्ता ही नहीं।
समय की गति को कौन रोक सकता है एक दिन उसे स्कूल से घर आते हुए एक कार ने ओवरटेक किया और अंदर से आवाज आई अरे मोहतरमा यहां कैसे ? आश्चर्य से स्वाति ने पीछे मुड़कर देखा तो देखती रही वो निशांत था। कार से बाहर निकल कर एक साथ बहुत प्रश्न पूछ लिये.. अवाक स्वाति सिर्फ बोली मैं ठीक हूँ आप बताओ आप यहाँ कैसे ?उसने बताया मैंने जॉब छोड़कर यहीं पर बिजनेस शुरू किया है,तुम बोलो ? स्वाति ने अपने ट्रांसफर की बात बताई कुछ देर में दोनों निकल गए, शाम को निशांत को न चाहकर भी फोन कर पूछा आपका परिवार कैसा है, बच्चे कैसे हैं,शादी में बुलाया नहीं.. वगैरह वगैरह
निशांत हँसते हुए बोला सबसे मिलाता हूँ तुम्हें कल रविवार है घर का पता बताओ मैं लेने आऊँगा।
शाम की चाय के समय दोनों साथ चल पड़े निशांत के घर, अंदर पहुँचते ही देखा भीतर एक दीवार में स्वाति की तस्वीर लगी हुई थी....वो आश्चर्य चकित थी ये क्यों लगाई है बड़े अजीब हो आप कोई कुछ कहता नहीं क्या ?
हँसते हुए निशांत ने कहा कि ये मेरी ज़िंदगी है मैडम! और बच्चों का इंतज़ार है मुझे.....! ठहाका लगाकर हँसने लगा दो घंटे साथ बिताने के बाद स्वाति अपने घर चली गई और सोचने लगी कितना प्यार किया है निशांत ने उसे.. न शादी की और न कभी उसे परेशान किया। सोचते हुए बड़बड़ाई कि डाँट लगायेगी उसे...।
कुछ दिनों में माँ उसके पास आई तो मिलने के लिए निशांत घर आया और पैर छूकर बैठ गया।
और माँ एक कोने से निशांत को एकटक देख रही थी.....एकदम मौन....!!
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~ चलती क्या खंडाला ~
अलका गुप्ता 'भारती'

मनीषा फूट फूट कर रोती रही उस मनहूस दिन को याद करती रही जब वह सलमान के साथ उसके प्रेम जाल में फँस कर अपने ही माँ बाप और परिवार का मुँह काला कर कीमती जेवर गहने और जितनी भी नगदी पल्ले पड़ी लेकर भाग आयी थी। तीन-चार महीने यहाँ मुंबई में मौज मस्ती में कैसे बीत गए पता ही न चला ।
मगर आज सलमान उसे यहाँ अपनी खाला का घर कह कर ..कहाँ ..छोड गया है अब.. सब समझ में आ रहा है ...वह क्या करे ..कैसे यहाँ से पीछा छुड़ाये समझ ही नहीं पा रही थी। आज उसे समझ में आ रहा था अपनी पड़ोसन काकी का कहन "बिटिया अपनी हदें पार न करना जरा भले घर की बिटियन की तरह पहिर ओढ़ के रहा करो सीधे सादे माँ बाप तुम पर कितना विश्वास कर के पढ़ा रहे हैं तो बेजा न उड़ा करो।" दरसल में सलमान के साथ कालेज के बाहर पार्क में एकांत में उन दोनों को एक साथ देख लिया था उनकी अनुभवी दृष्टि कुछ अनहोनी भाँप गई थी ..और तब ..उसने उन्हें वहीं और कुछ कहने से रोक दिया था और माँ को बहाना बना कर काकी की बातों को बकवास करार दिया था । 
इधर सलमान के प्यार में उस अंधी को अपने छोटे भाई बहनों का और माँ बाप के अरमानों का बिलकुल भी ख्याल न आया । सलमान जो ..उसे एक ब्यूटी पार्लर में मिला था जिसने उसे समझाया था कि वह मुंबई में फिल्म इंडस्ट्री के लिए काम करता है । और उस जैसी खूबसूरत लड़की के लिए भी वही जगह सबसे उचित स्थान है ..दोनों शादी कर लेंगे और वहीं दोनों काम करेंगे वह हीरोइन बनेगी और वह हीरोइन का मेकप करेगा ..मजेदार जीवन बीतेगा दोनों का। और वह फिदा हो गयी थी जब उसने उससे बड़ी अदा से पूछा था.. " ए सुन ..चलती क्या खंडाला " और वह भी कैसी मदहोशी में उसी दिशा में बहती चली गई थी । उसे अपने ऊपर और अपनी उस स्वार्थी अंधी बुद्धि पर आज घोर आश्चर्य हो रहा था ..इस अंधेरी कोठरी में कितने घण्टे सुबकते सुबकते बीत गये पता ही न चला । 
पुनः अपने आपको उसने झिड़का तूने ही तो अपने लिए यह जिंदगी चुनी है। अब यहाँ से छूटी भी तो किस मुँह से अपने घर लौटेगी ..कभी सोचा भी है.. तेरे बिना तेरे माँ बाप का क्या हाल हुआ होगा ..कैसे उन्होने सामाज का सामना किया होगा ।कहीं ..अपमान से मर ही न गए हों ...और वह तड़प उठी । इतने में दरवजा खुलने की आहट हुई और एक प्लेट खाना किसी ने सरका दिया ..और एक कड़क दार आवाज गूंजी सुन ले लड़की चुपचाप से ये खाना खा ले और अपना बाना सुधार ले ..यहाँ जो भी एक बार आ जाती है फिर जिंदा वापस बाहर नहीं जाती ..तू यहाँ अकेली नहीं है अगर जरा सा भी दिमाग है ..तो जैसा कहा जाय ..करती रह ..नहीं तो ..न तो तू मर पाएगी और न ही जिंदा ..तेरा वह हश्र होगा कि ..तड़प तड़प कर तू मौत माँगेगी वह भी तुझे नसीब न होगी ..समझी...!!! वह डपट कर चीखी और खटाक से दरवाजा बंद कर चली गई ।और वह दहशत में सनाके में आ गई और पुनः सिसक पड़ी। खाना ज्यों का त्यों पड़ा रहा वह कब सो गई उसे पता ही न चला । 
उसकी आँख अनायास ही शोर शराबे की आवाजों से खुली । वह झटके से खड़े हो कर दरवाजे पर कान लगा कर सुनने लगी ..जिससे उसे पता चला तहखाने से बाहर पुलिस की रेट पड़ी है..वह भी तेज तेज दरवाजे पर हाथ मारने लगी ..जिसकी आवाज सुन कर उसे भी आजा़द करके बाहर लाया गया ...वहाँ सलमान भी पुलिस की हथकड़ी पहने पहले से ही खड़ा हुआ था ..दरसल उस दिन से ही उसके माता पिता चैन से नहीं बैठे थे उनके प्रयासों से और पुलिस द्वारा सलमान के मिले सुरागों के जरिए यहाँ तक पहुँच गयी थी और जब सलमान पकड़ा गया तो उसका भी पता चल सका था उसने तीव्र घृणा से सलमान को एक झन्नाटेदार थप्पड़ राशिद किया । उसके सहारे बहुत सारी लड़कियों को भी मुक्ति मिली थी ..फ़िर उसे अपने शहर में लाया गया और उसके माता पिता के सुपुर्द किया गया ..वह आँख झुकाए उनके कदमों में झुक गयी ..माता पिता ने सुबकते हुए अपनी बिटिया को अपने सीने से लगा लिया और आज एक बार पुनः अपने आपको वह धन्य मान रही थी ..यदि आज माता पिता का स्नेह अपने अंजाम पर न पहुँचता तो वह जिस गर्त में गिर जाती उसका परिणाम भी सोच-सोच कर सिहर जाती है । कितना बड़ा पाप किया था उसने और कितनी खुश नसीब है वह जो माता पिता ने उसे माफ कर एक बार पुनः नव जीवन प्रदान किया है । 
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~ नई उमंग ~
मीनाक्षी कपूर मीनू

प्रीता का मन आज बहुत उदास था और वह सोच रही थी अपनी जिंदगी के बारे में कि ऐसा कैसे हो सकता है। सोचते - सोचते उसकी आंखों के आगे सब ऐसे उभर आया जैसे कल की ही बात हो। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रीता अपनी आगे की पढाई का सोच रही थी और जीवन के सुनहरे सपने बुनने लगी थी। तभी उसके मां पिता जी को एक रिश्ता इतना भाया कि उसके आगे की पढ़ाई के सपने को दरकिनार कर उसकी शादी तय कर दी। पुनीत बैंक में मैनेजर था, उनका छोटा सा परिवार था जिसमें बस माँ थी औऱ एक भाई जिसकी शादी हो चुकी थी। ना चाहते हुये भी प्रीता ने इस शादी के लिए हाँ कर दी।
बड़ी धूमधाम से शादी हुई और प्रीता भी शादी के बाद अपने घर परिवार में खो गयी। ज्यों ज्यों समय बीता, उसके पति के असली रंग धीरे धीरे सामने आने लगे । पुनीत आधुनिक होते हुए भी पुराने विचारों के निकले। यह सोचते - सोचते उसकी आंखे भर आयी ।
उस घटना को याद करते ही वह आज भी सिहर उठती है। वे एक बहुत ही करीबी रिश्तेदार के घर शादी में गए थे। प्रीता उस दिन लाल रंग की साड़ी में बहुत सुंदर लग रही थी। अचानक उसने नोटिस किया कि पुनीत बार - बार उसे घूर रहे है जैसे उसने कोई गलती कर दी हो।
रास्ते भर भी पुनीत ने कोई बात नहीं की लेकिन उसके चेहरे से लग रहा था कि वह बहुत गुस्से में हैं। घर पहुंचते ही जैसे तूफान सा आ गया । पुनीत आते ही प्रीता पर बरस पड़े। और कहने लगे कि “ तुम मेरा और रिश्तेदारों कि परवाह किया बिना कभी उसके साथ इसके साथ कभी उसके साथ ऐसे बाते कर रही थी कि जैसे वे तुम्हारे यार हों। इतना ज्यादा हंसने की और घुलने मिलने की क्या जरूरत थी उन सबसे। तुमको घर परिवार की इज्जत का भी कोई ख्याल न रहा। लोग न जाने क्या क्या बाते तुम्हारे बारे में कह रहे होंगे।“
प्रीता वह सब सुनकर स्तब्ध रह गयी। उसे उम्मीद नहीं थी कि पुनीत इतनी छोटी ख्यालात के हो सकते हैं।अब उसका व्यवहार सामने आया था लेकिन वह यह समझती थी कि शायद पुनीत उसके लिए ज्यादा फिक्रमंद रहते हैं। लेकिन उस दिन तो हद हो गई जब उसने सफाई में कुछ कहना चाहा और पुनीत ने हाथ उठा दिया। सासू माँ ने भी उसका साथ दिया। उसके बाद फिर यह रोज की बात होने लगी।
उस घटना के पश्चात अब प्रीता बस घर में ही रहने लगी। उसका मन बाहर जाने के ख्याल से ही घबरा जाता कि आ कर न जाने क्या होगा। इस बीच वह दो बच्चों की माँ भी बन गयी लेकिन’ पुनीत का विश्वास न जीत पाई । दिन कब शुरू होता और कब रात हुई उसे पता भी न चलता। जिंदगी अब इसी ढर्रे पर गुजरने लगी। मन में बस एक ही बात बार बार उसे कटोचती कि काश उसके मां बाबूजी ने उसे पढ़ने दिया होता तो आज वो इतना तिरस्कृत न महसूस करती । पति पर निर्भरता ने उसे कभी उनके खिलाफ न जाने दिया। दकियानूसी विचार इंसान की सोच को दीमक लगा देते है ।
माँ ...... तभी आवाज आई और उसकी तंद्रा भंग हो गयी । उसकी बेटी दीप्ति उसे बुला रही थी। पढ़ रही थी बिटिया, शायद उसे भूख लगी होगी सोचते हुए वह रसोई घर की तरफ बढ़ गयी। लेकिन दीप्ति का ख्याल आते ही उसने विचार किया और मन बनाया कि चाहे कुछ भी हो जाये वह अपनी बेटी के साथ वह सब न होने देगी जो उसके साथ हुआ। वह उसे खूब पढ़ाएगी औऱ जो वह चाहेगी वही करेगी चाहे इसके लिए उसे पुनीत से और घर वालों से ही टक्कर क्यों न लेनी पड़े । दृढ़ता के साथ अपने इरादे के बारे सोच कर प्रीता धीमे धीमे कदम रखते हुए अपनी बेटी की तरफ मुस्कुराती हुई बढ़ गयी और उसे गले लगा लिया एक नई सोच के साथ , नई उमंग के साथ ।
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~ वृद्धा और गांव की पगडंडी ~
मदन मोहन थपलियाल ‘शैल’
(वो अब जीना नहीं चाहती एक दास्तान – जो आज भी रहस्य है !)

उन्हें दादी कहना ही उचित होगा क्यों कि वे जीवन के नब्बे वसंत देख चुकीं। यों ही रही होंगी लगभग नौ वर्ष की जब उनकी शादी हो गई थी, शादी क्या होती है उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं था, इतना अवश्य याद है कि विदा होते वक्त वो मां ( ब्वे ) से चिपक कर बहुत रोई थी।
समय कहां ठहरता है देखते-देखते वो एक मां बन गईं और इसी दौरान पति नौकरी के लिए लाहोर चले गए, सब ठीक चल रहा था लेकिन भाग्य में सुख नहीं तो कोई क्या करे , बीस वर्ष बीत गए पति कहां चले गए कुछ भी पता नहीं चला । ले दे के इकलौती बेटी का सहारा था वह भी समय से होड़ लगा रही थी , उसके हाथ भी पीले कर दिए और अब वो अकेली ।
दादी का घर गांव के किनारे पर है जहां से एक पगडंडी गुजरती है जो गांव को अन्य स्थानों से जोड़ने का काम सदियों से करती है। दादी न विधवा है न सधवा , अतः मंगलसूत्र ( चरेउ) उसने अपने गले से कभी अलग नहीं किया । उसी को पति का प्रतीक मान कर जीवन जी रही थी । घर पर सदा से एक गाय खूंटे से बंधी रहती है । अब सारा प्यार- दुलार उसी के नाम है, दादी घंटों अपनी कहानी गाय के साथ साझा करती और बीच-बीच में उलाहना भरे शब्दों में यह कहना नहीं भूलती , ‘तू क्या समझेगी' । ईश्वर ने इसका ठेका तो मनुष्य को ही दिया है । कभी मन खिन्न होता, दादी पगडंडी में जहां तक नजर जाती एकटक कुछ खोजने का प्रयास करती । लोगों की भीड़ को गौर से देखना और हालचाल पूछना दादी के जीवन का अहम् हिस्सा था। धीरे-धीरे समय ने करवट ली गांव सड़क द्वारा शहरों से जुड़ गया अब भूले – भटके कभी कोई पगडंडी पर चलता दिखाई देता । पगडंडी में कंटीली झाड़ियों का साम्राज्य हो गया ।
पहले लोग पगडंडी को साफ रखने में खुद को गौरवान्वित समझते थे, न मेहनताना न नाम की भूख , दूर तक सब स्पष्ट दिखाई देता था और अब दिन में भी पगडंडी पर चलने में डर लगता है कहीं कोई जंगली जानवर झाड़ी से निकलकर अपना निवाला न बना दे और ऐसा कई बार हो भी चुका है। लोगों को सरकार ने आलसी और निकम्मा जो बना दिया है, हर किसी की नजर बजट पर टिकी रहती है। कोई सीधे मुंह बात तक नहीं करता।
दादी ने कभी गांव को अपने से अलग नहीं समझा, हर प्राणी दादी का अपना था। हर किसी की कुशलक्षेम पूछना दादी का प्रथम कर्त्तव्य था । लोग अब उसको लालची, विधवा और भी न जाने क्या – क्या नहीं कहते , किसी के हाथ में शगुन का दस रुपए का नोट धरते वक्त लोग मुंह फेर लेते हैं जबकि पहले एक रुपए का सिक्का देते समय लोग दादी को दानी, सबकी सुध लेने वाली कहते नहीं थकते थे।
शाम ढलने लगी, न जाने क्यों दादी को लगा कि कहीं वो आ गए तो रास्ता भटक जाएंगे ,सड़क के बारे में उन्हें पता है ही नहीं, अब तो बहुत बूढ़े हो गए होंगे, चल भी पाते होंगे कि नहीं । मैं भी — इतना सोचकर हाथ में झाड़ी काटने के लिए हंसिया ( दथड़ी) पकड़ी और चल पड़ी पगडंडी की ओर।
काफी रात हो गई , लोगों ने गाय की जोर- जोर से रंभाने की आवाज सुनी , अनहोनी की आशंका से लोग दादी के घर की ओर दौड़ पड़े , देखा गाय बाहर ही बंधी है और दादी का कहीं पता नहीं है। तरह-तरह की बातें होने लगीं, कहीं कोई जंगली जानवर !
गांव में मानवता आज भी जिंदा है, लोगों ने रातभर और अगले दिन दादी को बहुत खोजा लेकिन कुछ भी पता नहीं चल पाया । न कहीं खून, न फटे कपड़े , न कोई निशान। आखिर दादी गई तो गई कहां ? लोगों को पछतावा भी हुआ कि हमने दादी को बहुत सताया, इसीलिए दादी कभी कहती थी कि वह अब जीना नहीं चाहती।
लोगों ने उस रास्ते जाना लगभग बंद कर दिया । उस गांव के बारे में एक कथा प्रचलित हो गई कि आधी रात को कभी- कभी पगडंडी के रास्ते में लकड़ी काटने की आवाज सुनाई देती है।
गांव के युवाओं ने दादी की याद में फिर से पगडंडी का रास्ता साफ कर दादी के निमित एक छोटा सा मंदिर बना दिया इस उद्देश्य से कि दादी एक दिन लौट के आएगी ।
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~ कल्पा ~
विश्वेशर प्रसाद सिलस्वाल

बस पहाड़ियों को चीरते हुए नागिन जैसी घुमावदार सड़क पर सरपट दौड़ रही थी। कल्पा के घुंघराले बाल खिड़की से आती फर्र -फर्र ठण्डी हवा से उसके चेहरे पर हिचकोले खा रहे थे। । बाबा सुबह ही लैंसडाउन बस स्टेण्ड पर सात बजे की बस में उसे बिठा गये थे। बाबा ने अपनी तहसील की मामूली नौकरी में भी उसे एम एस सी (फिजिक्स ) करवा ही दिया। माँ तो बहुत कमजोर हो गई थी। पंद्रह साल की बाल अवस्था में शादी और सोलह साल की पूरी भी न हुई थी कि कल्पा पैदा हो गई। कितनी दर्द भरी दास्तान थी माँ की भी। तभी माँ ने सोच लिया था कि वह अपनी कल्पा को खूब पढायेगी पर बाल विवाह कभी न करेगी। 
बाबा का सपना था कि अपनी इकलोती संतान को खूब पढा लिखाकर शिक्षिका बनाकर ही दम लेंगे। लेकिन शायद ईश्वर ने कल्पा के भाग्य में कुछ और ही लिखा था ।कल्पना को उसके बाबा - माँ प्यार से कल्पा बुलाते थे । 
कल्पा देखने में बहुत ही खूबसूरत थी । घने ,काले घुंघराले बाल, बड़ी-बड़ी हिरन जैसी आंखे, रंग गौरा, संतुलित शरीर और चेहरा तो सर्दियों में सेब की तरह लाल हो जाता था।
कल्पा ऐसे सपनों में खो गई थी कि उसे पता ही नहीं चला कि डेढ़ घण्टे का सफर कैसे कट गया। ।उसे दिल्ली जाना था। दूर के रिश्ते में गोबिंद मामा ने अमेरिका में बिजिनेस कर रहे अपने साले पंकज से उसकी शादी की बात चलाई थी।वो लोग कुछ दिन के लिए ही भारत आये थे ।
गोबिंद मामा दिल्ली जंक्शन में ही उसे लेने आये थे।
- लो बेटा, आ गया किदवई नगर। बिलकुल सफदरजंग अस्पताल के पास ही है। अस्पताल का नाम तो सुना होगा । 
- जी मामा जी । अच्छी तरह। इसको कौन भूल सकता है। मेरी सहेली अल्पना, जिसको दहेज लोभियों ने जला दिया था , ने यहीं तो अपनी अंतिम सांस ली थी। बर्न डिपार्टमेंट फेमस है यहाँ का।
नाश्ता कर गोबिन्द मामा व उनकी पत्नी कल्पा को लेकर सीधे रोहणी लड़के वालों के घर पहुंच गए। कल्पा चुपचाप सबकुछ देखते -सुनती रही । लड़का पंकज देखने में उसे अच्छा ही लगा। उसी समय सबने निर्णय ले लिया कि एक हफ्ते में कोर्ट मैरिज कर दस पंद्रह दिन में कल्पाको लेकर अमेरिका वापस चले जायेंगे।
गोबिन्द ने फोन कर कल्पा के माँ-बाप को तुरंत दिल्ली बुला लिया।गोबिंद मामा ने उनको पटा ही दिया। सारे ख़र्चे पंकज के पापा ने उठाया।एक होटल में बीस लोगों की उपस्थिति में कल्पा की शादी हो गयी। कोर्ट में रजिस्ट्रेशन , पासपोर्ट आदि सारे काम पंकज के पापा ने ले देकर एक हफ्ते में पूरे करवा दिए।
एयर इंडिया की अठारह घंटे की थकानभरी फ्लाइट के बाद कल्पा ने न्यूयॉर्क शहर की चकाचोंध देखीं ,पर उसका दिल-दिमाग तो अपने खूबसूरत पहाड़,खेत , खलियान नदी को ही ढूंढ रहा था।
अपने न्यूयॉर्क के घर पहुंचते ही सब आराम फरमाने लगे।कल्पा को किचन का सामान दिखाकर, जरुरी चीजें समझाकर खाना बनाने का आदेश दे गये। किचन के साथ वाला एक छोटा सा कमरा उसे दे दिया गया।
दोपहर बाद उसकी हम उम्र अंग्रेज महिला सूटकेस लिये घर में आई । सीधे उसके पति का चुंबन लेकर उसी के कमरे में चली गई।शाम को उसके सास ससुर उसे बैठक में नज़र आये ।कल्पा ने उस महिला के बारे में पूछा तो दहेज का ताना दे उसे डाँट कर भगा दिया गया। कल्पा अपने सास-ससुर के बदले तेवर देख अचंभित हो गई।पंकज भी उससे बात नहीं करता।चौबिस घण्टे उस अंग्रेजन के साथ ही मस्त रहता।
कल्पा के रात-दिन रोते -रोते कटने लगे। जिंदा रहने के लिए कुछ निवाले जबरदस्ती मुंह में डाल लेती। न फोन की सुविधा न टीवी। घर का हर काम उसे ही करना होता। एक दिन उसने गुस्से में बोल ही दिया।
-मुझे मालूम न था कि आप इतने जल्लाद हो! तुम्हें बहू नहीं नौकरानी की जरुरत थी।
-हाँ। थी ,तो क्या। तेरे बाप ने क्या दहेज दिया ?जो हम तेरे को बहु समझे।हमने पंद्रह लाख ऐसे ही नहीं खर्चे।पंकज ने कहते हुए कल्पा के गाल पर पूरे जोर से थप्पड़ जड़ दिया।
- तो तुमने वहाँ प्यार जताकर नाटक क्यों किया?मैं शौर मचाऊंगी। पुलिस के पास जाऊंगी।
- तू नौकरानी है । तेरे सारे कागज़ हमारे पास हैं। ज्यादा बोलेगी तो चोरी का आरोप लगा जेल में बंद करवा देंगे। एक बात और अंग्रेजन हैंलिंग बारबरा मेरी बीबी है। समझी।
यह सुनकर कल्पा के पैरों के नीचे से मानो जम़ीन सरक गइ हो। उसका सिर फटने को हो रहा था। मौका मिला तो इनको अवश्य सबक सिखाऊंगी। कब रोते-रोते उसकी आँख लग गई पता ही न चला। आँख खुलि तो माँ बाबा का ख्याल आया। मैं उनके सपनों को मरने ना दूंगी। मेरे ताड़केश्वर बाबा जरुर मेरी मदद करेंगे।
छह महिने कैसे रोते बिलखते बीत गये। सूख कर कांटा हो गया था उसका शरीर।
एक दिन उनके घर एक मेहमान आया । उनकी बात सुन कल्पा को पता चला कि उनका नाम हरीश चंद्र कांडपाल है। उसने सही अंदाजा लगाया कि कांडपाल हैं तो जरुर उत्तराखण्ड से ही होंगे। 
रात को मेहमान को खाना देते समय उसने चुपके से एक कागज मोड़कर कांडपाल के जेब में डाल दिया। जिसमें उसने अपनी पूरी दास्तान लिखी थी एवं साथ ही अपने फूफा का नम्बर व पता। अंत में एक लाइन "भैजी मिते ये नरक से बचाव प्लीज" ।
महीने भर बाद एक दिन अचानक कांडपाल जी के साथ अपने फूफा को घर के प्रवेश द्वार पर देख कर वो न जाने कितनी देर तक उन दोनों से लिपटकर रोती रही।
- मिस्टर पंकज चुपचाप कल्पा का सब सामान पासपोर्ट , सर्टिफिकेट सहित बाहर ले आअो। वरना तुम जानते हो मैं पुलिस में हूँ अौर क्या कर सकता हूँ। हरीश कांडपाल जी ने पंकज को धमकाकर कहा।
उस दिन पहली बार आजाद पंछी की तरह कल्पा ने खुलि हवा में सांस ली। कांडपाल जी उन्हें अपने घर ही ले आए। भारत वापसी का पूरा प्रबंध कांडपाल जी ने अपने खर्चे पर कर दिया था लेकिन कल्पा ने वापस जाने के लिये मना कर दिया। उसने वहीं रुकने का फैसला कर मेहनत करने की ठान ली।कल्पा के फूफा जी निराश हो वापस आ गए। कांडपाल जी की मदद से पार्ट टाइम नौकरी कर कल्पा ने कुछ सालों में वहाँ उच्च शिक्षा पूरी करी ।उसकी मेहनत और लगन से खुश होकर पंकज से तलाक दिलाकर कांडपाल जी ने अपने डाक्टर बेटे से कल्पना की शादी कर दी।आज कल्पना न्यूयॉर्क के एक प्रतिष्ठित स्कूल में प्रबंध निदेशक है और अपने पति डाक्टर राघवेन्द्र व बेटे अनुज के साथ खुशी का जीवन बिता रही है। हाँ , दो साल में एक बार अपने बाबा -माँ को मिलने व ताड़केश्वर बाबा मंदिर के दर्शन करने निरंतर उत्तराखण्ड भारत आती रहती है।
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~ लाली ~
मीता चक्रवर्ती
(उनकी कहानी पीडीएफ रूप में उपलब्ध हुई है ... जिसे चित्र रूप में ही सांझा कर रहा हूँ।)









    
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~ताई जी~
सविता जोशी

हमारे जीवन मे कुछ रिश्ते ईश्वर के घर से बन कर आते है, कुछ खुद हमारे द्वारा बन जाते है। उन्ही मे से एक बहुत प्यारा रिश्ता हमारे ताऊ जी व ताई जी के परिवार से था।
छोटी थी तब हमलोग उत्तर प्रदेश के कस्बे मे रहते थे। पिताजी पुलीस मे थानेदार थे ओर ताऊजी वहाँ अस्पताल मे डाक्टर ,वहीं दोनों की दोस्ती हुईं ओर बहुत पक्की दोस्ती हो गई। पिताजी,ताऊजी को जब भी समय मिलता वह घुमने जाते तो हम बच्चे भी उनके साथ जाते थे।ताईजी कभी कभी ही आती थी क्योंकी बच्चे शहर में पढ़ते थे।ताईजी भी शान्तीनिकेतन से पढ़ी थी इसलिए बच्चों की पढ़ाई मे उनका विशैष योगदान था।उनका व्यक्तित्व बेहद सुंदर था ओर वह बेहद अनुशासन वाली ओर अंधविश्वास को बिलकुल न मानने वाली थी।
बस एक ही दुखद घटना हुई ,कि उनका एक बेटा,जो कि मैसूर मे इंजीनियरिग पढ रहा था ,उनकी अचानक मृत्यू हो गई ,लेकिन ताई जी हिम्मत नहीं हारी ,और अपने दूसरे बच्चों को आगे लेकर,व्सयत हो गई,सबको योग्य बनाकर अच्छी जगह विवाह किये और वे खुद भी बहुत शान से जीवन व्यतीत करनी लगी,दोनों बेटियों के पति आईएएस अफसर थे ,दामाद उन्हें माँ समान मानते थे।ताई जी का ज्यादा समय अपने सब बच्चों के साथ अच्छी तरह बीत रहा था,कभी जब वे मेरी सहेली यानि अपनी छोटी बेटी के पास आतीं तो मैं भी उनसे बात करती,आवाज मे वही रोबीला पन,अच्छा लगता था। मुझे उनका वह अंदाज,सुंदर कपडे,सलीके से रहना,खाने पीने मे शुद्ध चीजें उपयोग करना,देशी दवाओं की वे बहुत बडी ज्ञाता थी।
मैं बहुत समय से उन्हें मिल नहीं पाई थी ईच्छा तो बहुत थी पर ईशवर को शायद मंजूर नहीं था। इसी अगस्त को वे हम सबको छोडकर परलोक चलीं गयी,यह समाचार मेरी सहेली ने जब मुझ सुनाया तो बहुत बुरा लगा,लेकिन उससे भी बुरा यह लगा, कि आखिरी समय मे भाईसाहब जिद करके अपने घर ले गये,केवल इसलिये कि माँ को बेटी के घर मे नहीं रहना चाहिये अंतिम समय मे।
मेरी सहेली और उसके बच्चे नहीं चाहते थे कि नानी उनके घर से जायें,वे बहुत अच्छी तरह उनकी देखभाल कर रहें थे,पर कुछ न कर सके।अतिंम समय मे मे दामादों को कंधा देने से भी मना कर दिया,जिसका उनके दामाद को बहुत बुरा लगा और वे बीमार हो गये, जीवन भर माँ का सम्मान और आदर देकर भी वे इस अंधविशवास के कारण दुखी हुए।
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~ अनजाने में ~
संदीप गढ्वाली

दीवार पर लगी तस्वीर को देख कर अंजलि बोली.. काश तुम सब फ़िर एक बार साथ होते! 
मैं भी चुप था सोच रहा था क्या कहूं. बडी देर बाद मेरी पत्नी को सायद अकल आई थी। आंखों में वो पुराने दिन तैरने लगे। माँ के हाथ का खाना, पिता के साथ खेत पर जाना। तीन भाई और एक बहिन भरा पूरा परिवार। गाँव की सुन्दरता के बीच पलते बढते हम लोग। और फ़िर धीरे धीरे बडे होते। मैं बारहवी करके शहर चला आया नौकरी के लिए। ऐसे ही धीरे - धीरे मेरे भाई भी एक एक कर निकल गये। एक रोज बहिन की भी शादी हो गयी। अब घर में सिर्फ़ माँ और पिताजी। फ़िर मेरे लिये लड़की देखने का सिलसिला शुरू हो गया लडकी मिली नाम था अंजलि। शादी हुई मैं खुश था ये सोचकर की चलो माँ के साथ रहेगी पिता की सेवा करेगी। फ़िर छोटे भाईयो की भी शादी हो गयी अब वे मुझसे अधिक कमाते थे, उन्होने अपने अपने घर शहर में बना दिये। उनकी कामयाबी देखकर माँ पिताजी बहुत खुश हुये। वे अपने परिवार साथ ले गये। अब बार - बार माँ पिताजी मुझे कहने लगे देख कुछ शर्म कर, तेरे से छोटे कहाँ पहुंच गये। रिश्तेदारो ने भी कोई कसर नही छोड़ी मुझे नीचा दिखाने में। 
एक दिन मैंने अपनी पत्नी अंजलि से कहा चल मेरे साथ शहर किराये में रह लेंगे। वह बोली क्यों जब अपना घर है खुशहाल पहाड है तो हम शहर क्यों जायें। 
मैंने कहा तुम भी पढ़ी लिखी हो दोनो नौकरी करेंगे, खूब पैसा कमायेन्गे हम भी एक घर लेंगे। अंजलि बोली बूढ़े माँ बाप कहाँ जाएंगे अगर सभी चले गए तो। मैं नहीं माना। धीरे - धीरे पैसा कमाया घर भी ले लिया मगर उस दौड़ में सब कुछ छूट गया। न भाईयो से मिलना जुलना रहा न बहिन को देख पाया, न बूढे माँ बाप साथ रहे। अचानक मेरी आँखों में आँसू देखकर मेरी पत्नी बोली अब रो के क्या फ़ायदा। सब कुछ तो बिखर गया। 
तभी फोन कि घंटी बजी,मैंने अचानक फ़ोन की तरफ़ देखा मेरे छोटे भाई फ़ोन आया था। मैने हाल चाल पूछा तो वह रो रहा था मेरी तरह। हमने फ़िर मिलने पर विचार किया, गाँव गये मगर अब वो प्यार वो अपना पन नही था। सभी अपने पैसे का हिसाब करने और अपनी मजबूरी गिनने में ब्यस्त थे। माँ पिताजी हमें देखकर भीगी आंखों से मुस्कुराते हुये यही कह रहे थे जहाँ भी रहो खुश रहो। तब मुझे अहसास हुआ कि कभी - कभी तरक्की या पैसे की चाह अनजाने में ही सही मगर एक दूरी बना देती है अपनो के बीच। शहर में रहना कभी - कभी मजबूरी बन जाती है मगर सभी को ये लगता है कि सारे खुश हैं। मगर सच कुछ अलग है। हर कोई लौटना चाहता है अपने गाँव मगर मजबूर है सारा पैसा तो लग गया फ़्लैट में। किसी को बीमारी ने पकड़ लिया, किसी का गाँव में कुछ नहीं बचा। सभी मन ही मन रोते हैं मगर मजबूर है। किया क्या हमने सिर्फ़ तरक्की तो की है? जब बुरा किया नहीं, किसी को बुरा कहा नहीं तो ये रिशते में दूरियाँ क्यों? पैसा कमाया मगर किसी अपने से तो नहीं छीना, न ही किसी का हक छीना फ़िर ये दूरी क्यों? 
अंजलि बोली अत्यधिक ब्यस्तता ही इसका कारण है। रिस्तो को पैसा पद या जायदाद से नहीं बल्कि समय और प्रेम से सींचा जाता है। रिश्ते समय चाहते हैं, रिश्ते प्रेम चाहते हैं, रिश्ते एक दूसरे के साथ चलना चाहते हैं। इन्हे सिर्फ़ आपकी सोच, आपका समय और आपका प्रेम बचा सकता है। दुनियां की कोई भी दौलत ये रिश्ते खरीद नहीं सकती.. ..कुछ बातें मन मस्तिस्क में उतर जाती है जाने अनजाने में…. 
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~ शिक्षा ~
विजय लक्ष्मी भट्ट शर्मा 

मनुष्य की प्रकृति भिन्न - भिन्न होती है वो खिड़की के पास बैठी बैठी सोच रही थी और याद कर रही थी जब उसकी शादी हुई थी… उम्र में बहुत छोटी भी नहीं थी उस वक्त वो पर इतनी परिपक्व भी नहीं जो जमाने को समझ सके। अल्हड़ उम्र और परिपक्वता की उम्र के बीच हिंडोले खाती उम्र में शादी के बंधन में बंधी थी वो। सुन्दर थी या नहीं उसे पता नहीं था पर उसकी सुंदरता की परिभाषा जरूर अलग थी। मन की सुंदरता से वो व्यक्ति की सुंदरता आंकती थी। यूँ तो उसकी सहेलियाँ, रिश्तेदार कहते थे की रूप के साथ दिमाग़ भी पाया है इस लड़की ने पर उसने कभी अपने आप को इस कसौटी में नापा नहीं। उसके हिसाब से सोच सकारात्मक हो तो चेहरे से सुंदरता यूँ भी झलकती है। सबसे प्यार और सम्मान से मिलो तो वही आपकी शिक्षा का पैमाना है। 
हाँ तो बात उसकी शादी की चल रही थी। वो सोच रही थी कितनी साधारण सी शादी थी - परिवार, नाते रिश्तेदार सभी मौजूद थे, सब मिलजुल कर काम कर रहे थे। आजकल की दिखावे की ज़िंदगी से अलग बिल्कुल साधारण सा अपनत्व था उस वातावरण में। शादी की रस्में और एक आख़िरी रात अल्हड़पन की सुबह विदाई के साथ ही एक ज़िम्मेदार बहु का तमग़ा मिल जाएगा। इसी सोच में विदाई का समय भी आ गया, कुछ ही पलों में पिता का घर अब पराया हो गया था। माँ मन ही मन बेटी के सुखी जीवन की कामना कर सोच रही थी की इसे अच्छा घर संसार मिले। भोली माँ स्त्री होने पर भी अपने आप को धोखा दे रही थी की ये मेरी तरह लाचार ना हो खूब खुश रहे… माँ तो माँ है। पिता भी कम दु:खी न थे, बेटी हर पिता को प्यारी होती है और उन्होंने भी दामाद से ये कह फ़र्ज निभाया कि कभी डाँटा तक नहीं इसे बेटा, कोई गलती करे तो प्यार से समझा देना। बेटी के पिता साफ़ भी न कह पाये कि डाँटना नहीं से नाजों से पली है। वो सोच रही थी पिता लाचार, माँ दुःखी… फिर भी बेटी के सुख की कामना। क्या नियम है ये जो वो आज भी उम्र के इस पड़ाव पर समझ नहीं पाई थी…. खैर सोचने का सिलसिला आगे बढ़ा, ससुराल पहुँच गई। नये लोग नया वातावरण… पर अब यही उसका घर है ये बात उसने समझ ली थी। सारी रस्में होने लगीं धीरे धीरे… फिर शुरू हुई मुँह दिखाई की रस्म। एक - एक कर सब कुछ न कुछ दे रहे थे कुछ करीबी थे, कुछ दूर के थे। बड़ी अजीब मुहँ दिखाई थी… करीबी कोई सौ रुपए दे रहे थे, कोई बैग या फिर किसी एक ने साड़ी में लटकाने वाला छल्ला जो की सोने की पोलिश जड़ा था, दिया। और एक तो कुछ दिन बाद आये साथ में एक विदेशी साड़ी जिसका एक धुलाई में ही रंग कई रंगो में बदल गया साथ में पतिदेव के लिये ओवर साइज़ क़मीज़। पता नहीं उनपर मुँह दिखाई का इतना दवाब क्यूँ था ये वो उस समय समझ नहीं पाई थी पर बहुत कुछ भाँप गई थी। एक ही दिन में अमीरी ग़रीबी के बीच के अन्तर को समझ गई थी। .वक्त के साथ - साथ साड़ी के सुनहरी छल्ले ने भी रंग दिखाने शुरू किये और वो दिखावे के रिस्तों की तरह अपने सोने के रंग को छोड़ गिलट का निकला। उसकी मासूम बुद्धि ने सोचा की इन सबको कुछ देने की होड़ थी या दिखावा करना था या किसी का मज़ाक़ उड़ाना था। उसने किसी से कुछ कहा नहीं पर कहीं न कहीं आहत थी लेकिन गिलट की झूठी चमक से परे वो खरा सोना थी क्यूँकि माँ की बात उसे याद थी बेटा घर बनाने में वर्षों लगते हैं, खुद को तपाना पड़ता है तब रिस्तों में मज़बूती आती है। कभी कोई ऐसी बात न कर देना कि बाद में पछताना पड़े… यही सोच उसने सब भुला उन्ही रिश्तों को बांधना शुरू किया था, धीरे - धीरे सभी का दिल जीतना शुरू किया। दिल जीतने में कामयाबी भी हाँसिल की…. घर दफ़्तर सभी में तालमेल बिठा गृहस्थी की गाड़ी खींच रही थी और इस बीच दो बच्चों की माँ भी हो गई थी। वक्त के साथ - साथ आज वही रिस्ते एक - एक कर उसके अहसानो तले दबे थे, जो कल उसे गरीब साधारण समझ उसका मज़ाक़ उड़ाया करते थे। उसने सोचा मुझसे ना कहें पर मन में तो अपने किये पर पछता रहे होंगे। पिताजी कहते थे किसी को पहचानने में जल्दबाज़ी मत करो, उसे देख उसकी हैसियत मत आंको…. क्या पता किस भेष में नारायण मिल जाएँ। पर इन सबको ऐसी शिक्षा देने वाला कोई नहीं था या इन सबको अपनी बुद्धि का घमण्ड था, जो आगे की सोच नहीं पाये की हक़ीक़त तो एक दिन रंग दिखाएगी। वो सोच रही थी की अगर उस वक्त वो भी अल्पज्ञानी हो इनकी तरह व्यवहार कर देती तो ये सफर इतना लम्बा न होता, अगर चलता भी तो नफ़रतों से भरा होता या फिर अकेले गुजर रहा होता। माँ की एक सकारात्मक सीख ने आज सभी को मेरा मुरीद बना रखा था। इस लम्बे सफर से एक ही सीख मिली की शिक्षक आपके माता - पिता ही होते हैं। उनकी सीख सकारात्मक सोच, प्रेम पूर्वक व्यवहार भी दूसरों की सोच बदल, रिस्तों में मज़बूती लाता है।
अच्छी शिक्षा का बहुत महत्व है, घर बनाने या बिगाड़ने की एक मजबूत कड़ी अच्छी शिक्षा है…. चलो मन हल्का हुआ साथ ही नई सोच मिली ....कुछ कुरीतियों को दूर करना है तो शुरुआत अपने घर से करनी होगी। वो मुँह दिखाई के बहाने अपनी बहु की नुमाइश नहीं करेगी, साथ ही वो भी अपनी बेटी को रिश्तों की अहमियत, नारी के गुण घर संवारने की कला, सकारात्मक सोच, प्रेम से रहने की सीख जैसा दहेज ही दे ससुराल भेजेगी जिससे वो हमेशा खुश रहे और इस गृहस्थ रूपी सफर की थकान उससे कोसों दूर रहे। सोचते - सोचते वो सालों पीछे घूम आई थी आज पर खुश थी की आज एक बार फिर माँ - पिताजी की शिक्षा ने उसे संकल्प लेने में मदद कर उसकी सोच को मज़बूती दी कि हर स्त्री का सम्मान उसका अधिकार है जिसकी शुरुआत स्त्री को ही करनी होगी।
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~ मेरे दिल की अधूरी इच्छाएं ~
पुष्प कुमारी ‘पुष्प’
(पत्र शैली में लिखी गई एक लघुकथा)
मेरे दिल की अधूरी इच्छाएं, 
तुम्हें ढेर सारी दुआएं। 
यूं तो तुम्हारे साकार होने का इंतजार मैं उम्र भर करूंगी किंतु हर इच्छा अपने वक्त पर पूर्ण हो जाए तो उसका आनंद, उसकी खुशी दुगनी हो जाती है। आज मैं अपने इच्छित जीवनसाथी के साथ सपनों की दुनिया में जीती हूं जिसे मुझसे पल भर की दूरी भी बर्दाश्त नहीं। फिर भी मेरी कुछ ऐसी इच्छाएं हैं जिन्हें पूर्ण करने के लिए मुझे अपने इस सपनों की दुनिया से अकेले ही बाहर आना होगा और मैं यह हिम्मत शायद ही कर पाऊं। लेकिन इच्छाएं तो इच्छाएं ही होती है और मेरी इच्छा है कि एक बार मैं फिर से झारखंड के उस गांव में जाऊं जहां मेरा जन्म हुआ था। जहां की धूल मिट्टी में मैं खेलकर बड़ी हुई और जिस गांव के लोग आपस में पड़ोसी नहीं एक परिवार हुआ करते थे। 
बड़ी इच्छा है कि उस गांव के हर उस आंगन में मैं फिर से पगफेरी लगाऊं जहां हम उम्र सखियों संग खेलती मैं कभी थकती नहीं थी। सुना है हमारे लिए अक्सर अपने पेड़ के मीठे अमरुद दे जाने वाली पंडिताइन दादी अब चल - फिर नहीं पाती। कोई बता रहा था गांव भर के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने वाले सीताराम मास्टर भी अब नहीं रहे। अब कोई साइकिल की घंटी बजा डाक देने नहीं आता होगा क्योंकि पोस्टमैन चाचा तो अब पोस्टऑफिस की नौकरी से रिटायर्ड हो गए होंगे। 
फिर भी मुझे उस गांव की उन गलियों में घूमने की इच्छा है जहां अब पहले की तरह रौनक नहीं रही होगी क्योंकी गाँव के नौजवान तो नौकरी के चक्कर में शहर या महानगर में जा बसे उस गांव में अब सारे बुजुर्ग रह गए होंगे। मुझे उस गाँव में अपनी बचपन की उस सहेली के घर भी जाना है जो जाड़े की धूप में मुझे संग ले पगडंडियों से होकर खेत तक जाती थी और अधपके धान की बालियाँ नोंच मुझे भी उनकी चोटी बनाना सिखाती थी। लेकिन अब वह भी मुझे अपने उस घर के आंगन में नहीं मिलेगी क्योंकि उसका ब्याह तो तभी हो गया था जब मैं हाई स्कूल में पढ़ती थी। मेरे सामने ही उसका गौना भी हुआ था और वह विदा होने से पहले मुझसे लिपटकर खूब रोई थी। उससे मिलने मुझे उसके ससुराल भी जाना है। अचानक और भी ढेर सारी इच्छाएं सर उठाने लगी हैं। खैर पत्र में शब्दों की सीमा है इच्छाओं की नहीं अतः कम लिख रही हूं ज्यादा समझना।
तुम्हारे पूर्ण होने के इंतजार में।
अपनी अधूरी इच्छाओं संग…
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~ परिवर्तन ~
किरण श्रीवास्तव
इतना शोर कहां से आ रहा है ,श्वेता ने खिड़की खोल कर देखा तो लोग उसके घर की तरफ ही आते दिखे और नीचे से आवाजें भी आ रही थी एक अनजानी आशंका हुई जानने के लिए वह बिना कुछ सोचे सर पर दुपट्टा लिया और नीचे दौड़ी जहां कुछ लोग बाबूजी को घेर कर खड़े थे ! सासू मां छाती पीटे जा रही थी उसने आव देखा न ताव बाबूजी के पास गई उनके नाक से खून बह रहा था और वह अचेत पड़े थे वह समझ गई कि बाबूजी को ब्रेन हेमरेज हुआ है और बिना देर किए अपनी गाड़ी निकाली, उसमें लोगों की मदद से बाबूजी को लेकर तुरंत हॉस्पिटल चली गई लोग सन्न देखते रहे...! डॉक्टर ने बाबूजी को तुरंत एडमिट करने को कहा सारी प्रक्रिया पूरी होने के बाद उसने अपने चाचा जी से बात की, जो दूसरे शहर में एक डॉक्टर थे! उन्होंने वहां के डॉक्टर से बात की जिसके परिणाम स्वरूप त्वरित गति से उनका इलाज शुरू हो गया! जो भी दवा इंजेक्शन की जरूरत होती वो फौरन लेकर आती! डॉक्टर ने ब्लड प्रेशर हाई होने की वजह से ब्रेन हेमरेज ही बताया ... अब तक उसके घर से भी उसके जेठ और कुछ रिश्तेदार आ चुके थे! सब किंकर्तव्यविमूढ़ ....समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें कुछ लोग श्वेता को घूर रहे थे लेकिन उन सब की भावनाएं उसके प्रति बदल गई थी उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि जिस लड़की को वह लोग कोसते रहते थे, उसी ने आज बाबूजी की जान बचायी ... लेकिन वह इसकी वजह खुद को ही मान रही थी....!! 
सूर्य प्रताप के तीन बेटे थे अमित अजीत दो तो उनका जमा जमाया बिजनेस देखते थे उनकी दोनों बहुएं घर के कामकाज देखती थीं, और घर के भीतर ही रहती! तीसरा बेटा बहुत ही होनहार था 12वीं के बाद वह आगे की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर चला गया! इंजीनियरिंग पढ़ाई के दौरान ही उसकी मुलाकात श्वेता से हुई, कॉलेज में संगीत की एक प्रतियोगिता हुई जिसमें दोनों ने एक साथ हिस्सा लिया और विजयी हुए! दोनों बेहद अच्छा गाते थे ! मधुर संगीत के साथ ही इनके रिश्ते भी मधुर होते गए ...फिर प्यार और बात शादी तक पहुंच गई। पर सूर्य प्रताप टस से मस ना हुए। ठाकुर घराने का जो सवाल था और श्वेता उनके जाति की भी नहीं थी। अपने से नीचे कुल की लड़की उनको हरगिज बर्दाश्त नहीं थी। दो साल तक मान मनौव्वल चलता रहा इसी बीच दोनों की नौकरी भी हो गई। फिर वही हुआ जो होना चाहिए था दोनों ने शादी कर ली.....कुछ दिन बाद वह श्वेता को लेकर जब अपने घर आया तो घर में भयंकर कोहराम मच गया सूर्य प्रताप ने तो यहां तक कह दिया कि आज से मेरे दो ही बेटे हैं मां का रो रो कर बुरा हाल हो गया, दोनों जेठानियों ने भी नाक भौं सिकोड़ा..! पास पड़ोस में भी कानाफूसी होने लगी! घर के लोग जब श्वेता को भला-बुरा कहते तो सुमित को बहुत ही नागवार लगता। जब उसे लगा कि वह किसी को समझा नहीं सकता तो उसने मन ही मन निर्णय लिया कि कुछ दिन रुकने के बाद हम फिर वापस चले जाएंगे क्योंकि पिताजी मानने वाले नहीं थे। सुमित उसे लेकर अपने रूम में ऊपर चला गया श्वेता बहुत ही उदास हुई... । उस दिन वह किसी काम बस दूसरे शहर गया हुआ था की ये वाकया हो गया। 
बाबूजी को होश आते ही उनका बेटा दौड़ कर गया और डॉक्टर को बुला लाया डॉक्टर ने चेकअप किया और बोला अगर समय से अस्पताल नहीं आए होते तो बचना मुश्किल था। बाबूजी के आंखों के सामने वह सारा मंजर घूम गया जब वह तड़पकर जमीन पर गिरे थे और घर में कोई नहीं था। श्वेता ने डॉक्टर को थैंक्यू कहा, और जाने के लिए मुड़ी तभी जेठ ने पुकारा सुनो! तुझे बाबूजी बुला रहे हैं मानो वह इन्हीं शब्दों का इंतजार कर रही थी। लगभग दौड़ते हुए कदमों से बाबूजी के करीब पहुंची बाबूजी ने इशारे से करीब बैठने को कहा उनकी आंखों में प्यार साफ दिख रहा था। उसने बाबूजी के सर पर हाथ फेरा बाबूजी के आंखों के कोर से टप - टप आंसू गिरे मानो सारा द्वेष धूल गया हो....! बाबूजी की अस्पताल से छुट्टी हो गई जब श्वेता बाबूजी को लेकर घर पहुंची तब मां ने पूजा की थाल लेकर बहु का स्वागत किया। घर को बंदनवार से सजाया गया... कुछ ही दिनों में श्वेता ने सबका मन मोह लिया। पूरे बीस दिन रहने के बाद उनके वापस जाने का समय आ गया, उन्हें विदा करते समय बाबूजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया और जल्दी आने को कहा..... । 
ये तो कहानी थी पात्र हमारे हिसाब से चलतें है कहानी का सुखद अंत होता है पर आज भी जाति - पाति और ऊंच - नीच जो कि इंसान द्वारा ही बनाए गए हैं पढ़े लिखे लोग भी जब अपनी मानसिकता नहीं बदल पा रहें हैं तो समाज में बदलाव कैसे होगा? जरा सोचिए!!!
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