Monday, May 23, 2016

प्रथम कहानी - समूह "आओ कहानी लिखें "

प्रथम कहानी
आओ मित्रो आज एक कहानी की शुरआत करते है केवल शुरआत के लिए जिसमे हम अपनी कहानी लेखन की क्षमता का अनुमान लगा सके. 
कहानी के लिए रूप रेखा : 
१. 
सत्य या काल्पनिक 
२. 
इसमें आप किसी घटना को जोड़ कर मन के भावो को उदृत करे
३. 
- पहला भाव इन चार शब्दों के अन्तरगत हो 
"घर, पंछी, जिज्ञासा, उड़ान "
- और दूसरा भाव इन चार शब्दों के साथ 
किस्मत, टूटना, हौसला, विजय 
- कम से कम २ मुहावरे इसमें जोड़ने का प्रयास करे.
४. 
यह इस मंच से आपकी प्रथम कहानी की शुरआत है इसलिए आप इसे एडिट कर सकते है अगर कुछ आज लिखा कल कुछ लिखना चाहते है लिखिए. 
५. 
समय सीमा १ सप्ताह. 
६. 
अगर मुझे या किसी भी पढने वाले को कुछ कहना या जोड़ना है तो आप अपने या उस व्यक्ति विशेष की टिप्पणी में जोड़े.




कहानी लिखने के प्रथम प्रयास में निम्नलिखित कहानियां अभी शामिल की जा रही है  इस लिंक पर पहली कहानी की शर्ते [ रूपरेखा किस आधार पर ] 

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
 ~कमला~

घर की चारदीवारी के बीच दम घुटता था उसका. हालात और घर के वातावरण में उसे बंदिश नज़र आती थी. ज्यों ज्यो कमला बड़ी होती गई उसका रंग रूप निखर रहा था और उसी अनुपात से उसकी इच्छाएं भी चादर के बाहर पैर पसारने लगी थी. वह उड़ना चाहती थी एक पंछी कि मानिद. सारे अरमान पा लेना चाहती थी जो उसने अब तक देखा सुना था लोगो से या घर में. परिवार में पांचवे नम्बर पर, पांच भाइयो की इकलौती बहन, पांचवी कक्षा पढी कमला न जाने कब बड़ी हो गई.कमला कभी अपने भाइयों की बहन बन न सकी. उसका परिवार पुराने ख्यालातो को अपनाये हुए, बेटी को बोझ समझ बस चाहते थे कि किसी तरह कमला के हाथ पीले हो जाए. अपनी ख्वाईशों को जिन्दा रखते हुए उसने सोच लिया था कि जब भी उसे इस घर से बहार जाने का मौका मिलेगा वो उस जिज्ञासा भरी दुनियां को समेटना चाहेगी.

आखिर वो दिन आ गया. कमला आज दुल्हन बन अपने पति राज कुमार के घर आई. सच में राजकुमार ही था दिखने में.. शायद कल्पनाओ के आँगन में उसने जो चेहरा चुना था, उसी से मिलता जुलता चेहरा था उसके पति का. इकलौता बेटा था राजकुमार और घराना भी ठीक था लेकिन समाज की कुरीतियों से उसे सख्त नफरत थी. इसलिए उसने कमला से बिना मिले देखे ब्याह का फैसला किया था. बस पहले ही रिश्ते के आने पर हामी भर दी थी उसने. राजकुमार का परिवार एक खुशहाल परिवार होने के साथ नए ज़माने के साथ कदम मिलाकर चल रहा था.

आज पहली बार उसने कमला को देखा जब उसे उसकी आस पड़ोस की बहनों और भाभियों ने उस कमरे में धकेल दिया था जहाँ कमला घूँघट ओढ़े बैठी थी. राजकुमार ने उसका घूँघट उठा कर उससे बात शुरू की. अपने बारे में बताया और उसके बारे में जानना चाहा. कमला तो बस इस अवसर की तलाश में थी. अब तक की बातो से उसका हौसला बढ़ गया था. उसने अपनी सभी इच्छाओं की लिस्ट उसे सुना दी. आगे पढना, घूमना-फिरना, और कुछ न कुछ ऐसा कार्य करे जिससे उसका नाम हो और वो पहचानी जाए समाज में. राजकुमार ने उसे दिलासा दी कि जो जो उसकी इच्छाए है वह उन्हें एक एक कर पूरा करेगा. राजकुमार ने कहा वह उसे जल्द ही आगे पढने के लिए स्कूल भेजेगा और फिर जैसा उसका मन चाहे वह इस घर मे अपनी हर इच्छा पूरी कर सकती है. वह हर हाल में उसका साथ देगा.

कमला को अपनी किस्मत पर यकीन नही हो रहा था कि जो सपने उसे लगता था कि कही टूट जायेंगे, वे आज उसकी झोली में यूं आ गिरेंगे. एक उसका अपना घर था जिसे छोड़ते हुए उसके आंसू नही निकले और आज पहली रात में इस अजनबी ने उसे अपना बना कर खुशी केआंसू छलका दिए. इस रात ने उसे यकीन दिला दिया कि उसका राजकुमार उसके सपनो का सौदागर बन कर आया है जो उसकी हर इच्छा की पूर्ति करेगा. दोनों ने पूरी रात बातो में गुजार दी. सुबह न जाने कब दोनों की आँख लग गई. कमला को तो शायद बरसो बाद इतनी मीठी आई होगी. जब उसकी आँख खुली तो राजकुमार चाय लिए खड़ा था उसके लिए. वह मुस्करा उठी अपनी विजय पर, अपने सपनो को साकार करने की पहली सीढ़ी खड़ा पाया उसने खुद को....

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डॉ चन्द्र बल्लभ ढौंडियाल
दृढ़ संकल्प - सच्ची कहानी

जुलाई का महीना था, एम ए के दाखिले चल रहे थे। एक नौजवान आया और दाखिले के लिए आग्रह करने लगा। उसके चेहरे में गंभीरता साफ़ छलक रही थी। लेकिन उसके हौसलों की उड़ान उसकी आँखों में दिख रही थी. उसके स्नातक में कुछ कम अंक थे इसलिए प्रवेश मिलने में कुछ कठिनाई आ रही थी। यही उसकी परेशानी का कारण बना हुआ था। उसने अपने बारे में बतलाना शुरू किया कि उसकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब है और आज भी वह अपने गाँव से रेलवे स्टेशन तक पैदल और रेलगाड़ी में बिना टिकट आया है। उसकी स्थिति को समझ उसे दाखिला देने का मन तो हुआ फिर भी मैंने उसे पूछा यदि प्रवेश मिल भी गया तो रहने, खाने का प्रबंध कैसे होगा?“ वह तो पढ़ने का संकल्प लेकर घर से चला था। उसने कहा, “गुरुकुल में रहने खाने की व्यवस्था हो जाएगी। एक खाकी पैंट और एक कमीज है, शाम को धो लूँगा और सुबह पहन कर क्लास में आ जाऊँगाउसका इस दृढ़ निश्चय को देख कर उसे दाखिला दिया। फीस माफ की गई और पुस्तकें भी उपलब्ध करवाई गई। इस उम्र में अक्सर बच्चे भटक जाते है उन्हें स्वच्छंद वातावरण में आसमान में पंछी के समान विचरना पसंद होता है। लेकिन परस्थितियाँ कई बार नौजवानों को बहुत गंभीर बना देती है जीवन में।
दो वर्ष का समय बीतता गया। बीच-बीच में वह अपने गाँव आता जाता रहता और यदा कदा पैंसे लेता रहता और लौटाता रहता। वो कहते है न दिवस जात न लागे बारा. और एक दिन एम ए पास कर उसने अपना दृढ़ निश्चय पूरा किया।

कुछ वर्षों बाद एक दिन मैं अपने चचेरे भाई के साथ 5 बजे के लगभग दिल्ली आइ टी ओ से जा रहा था। दफ्तरों की छुट्टी अभी हुई ही थी और भीड़ इतनी थी कि मेला लग रहा था। एकाएक मैंने देखा कि एक नौजवान तेज कदमों से मेरी ओर आ रहा है। मैं दिल्ली में अपरिचित था और उसका यूं सीधे मेरी ओर चले आना, मुझे कुछ असहज महसूस करने लगा। लेकिन अगले ही क्षण नौजवान ने पैरों को छूते हुए अभिवादन किया और पिछला परिचय याद दिलाया। मेरे मना करने के बावजूद वह हमें ए जी सी आर की कैन्टीन में ले गया और प्रेम से चाय-नाश्ता करवाया । वह वहाँ आडीटर के पद पर नियुक्त था। उसने बतलाया कि वह भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी कर रहा है। उसकी बाते सुनकर मन आनंदित हो उठा। उसकी लगन और मेहनत ने उसकी किस्मत बदल दी। जिन्दगी की जंग में विजय सा स्वाभिमान लिए वो नौजवान मुझसे बात कर रहा।

शुभकामनाएँ देकर जब हम चलने लगे तो उसने दस रुपए का नोट मुझे देना चाहा। मैंने पूछा यह किसलिए तो कहने लगा आपके 10 रुपए मेरी तरफ शेष थे। आज दूर से आपको देखा तो सब याद आ गया। मना मत कीजिएगा। इतना कह कर उसने पैसे मेरी जेब में डाल दिए और मैं देखता रहा कुछ देर उस दृढ़ संकल्प और आत्मविश्वास से सराबोर नौजवान को जाते हुए .....
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नैनी ग्रोवर
.... और सीमा बड़ी हो गई

पिताजी की अकस्मात मृत्यु के बाद सारा घर सकते में था, माँ का रो रो के बुरा हाल था. भैया भी कितने दिन ऑफिस से छुट्टी करते, पांचवें दिन से वो ऑफिस जाने लगे, सभी रिश्तेदार भी लौट गए. पंछी की तरह उड़ती फिरती सीमा जैसे अचानक ही बड़ी हो गई. पिताजी के रहते हुए उसे कभी किसी कोई परेशानी आई ही नही. पिता के साए में वह खुद को महफूज पाती थी. घर परिवार की जिम्मेदारी पिता और भाई निभाते आ रहे थे. लेकिन अब उसे हर समय माँ की चिंता लगी रहती. भाभी तो अब बच्चों में व्यस्त रहती थीं और भैया ने नया व्यवसाय शुरू कर लिया था तो उन्हें न माँ न सीमा नज़र आते थे. माँ बेटी जैसे अपने ही घर में अकेले हो गए हो.

एक दिन माँ को ज़बरदस्ती नाश्ता करवा कर, वो बाहर आई ही थी और भैया ऑफिस जाने के लिए निकल रहे थे उसने उन्हें रोककर कहा भैया आपसे कुछ बात करनी थी.
हाँ बोलो जल्दी देर हो रही हैभैया बोले
भैया वो माँ को डॉ. को दिखा देते, उनकी तबियत खराब हो रही है रात रात भर जागती हैं.सीमा ने डरते डरते कहा.
अब इसमें डॉ क्या करेगा, समय के साथ ठीक हो जायेगी माँ..इतना कह के भैया निकल गए और सीमा वहीँ खड़ी उन्हें देखती रही. क्या ये वही भैया हैं जो माँ को एक छींक भी आती थी तो दौड़ पड़ते थे.

रात को देखा भैया के कमरे की बत्ती जल रही है. एक बार फिर भैया से बात करूँ, ये सोचकर वो दरवाज़े तक पहुंची के अचानक अंदर से आती आवाज़ों सुनकर ठिठक गई..
अब क्या करोगे ? भाभी पूछ रही थीं
क्या करूँ, कोई और रास्ता भी तो नहीं, अब सब मुझे ही तो करना होगाभैया बोले
कितना खर्च होगा सीमा की शादी पर सोचो ज़रा, लाखों की बात है, पिताजी तो अब रहे नहीं, सारे पैसों से तुमने बिज़नेस शुरू किया है, अब नए नए बिज़नेस से इतनी रकम कैसे निकालोगे..भाभी ने भैया को बातो बातो में नसीहत देते हुए कहा.
अरे अभी बहुत समय है दो साल बाद करेंगे सीमा की शादी.भैया बोले
“देख लो बच्चों के लिए भी तो कुछ रखना है” भाभी ने रूठे स्वर में कहा
सीमा यह सब सुनकर स्तब्ध रह गई और उलटे पाँव वापिस लौट आई, मगर इक फैंसले के साथ.. टूटना उसे मंज़ूर नहीं था. वह खुद को और माँ को तिल तिल के लिए यूं मजबूर नही देखना चाहती थी.

ग्रेजुएशन सीमा की पूरी हो गई थी. उन्हीं दिनों महिला पुलिस के दाखिले के फ़ार्म भरे जा रहे थे. सीमा ने भी वो फार्म बिना किसी से पूछे भर दिया. किस्मत भी उसके हौसले के साथ थी. कुछ ही दिनों में इम्तिहान हुआ और वह उसमे पास हो गई,. जल्द ही वह 3 महीने की ट्रेनिंग के लिए चली गई. जब वो लौटी तो उसके बदन पर सब इंस्पेक्टर की वर्दी थी और होठों पर विजियी मुस्कान लिए वो भैया और भाभी के पाँव छूकर माँ के पास चली गई. माँ के पैर छूकर और गले लगाकर बोली मैं आ गई हूँ माँ तुम्हें लेने, सरकार की तरफ से एक छोटा सा क्वाटर भी मिला है.

माँ आँखों में खुशी के आंसू लिए मुस्कुरा कर उठ खड़ी हुई. माँ का सारा सामान वहीं रखा था, सिवाए उसकी और पिताजी की तस्वीर के. भैया भाभी देखते ही रह गए और माँ का हाथ पकड़े सीमा घर से बाहर निकल गई...!!
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किरन श्रीवास्तव 
"निर्णय"

घंटी बजी .... माँ दरवाजा खोल दो, कोई है! कह कर नीरजा किताब पढनें का असफल प्रयास करनें लगी..! नीरजा कुछ दिनों से मायके में ही है. ससुराल में रहकर उसका दम घुटता था. मस्त मौला नीरजा शादी के कुछ दिनों बाद ही खुद को वहां असहज महसूस करने लगी थी. उसकी सारी हसरतें कुछ ही महीनो में दम तोड़ती नज़र आई. नीरजा को लगा था कि पति के घर में उसे सुख चैन नसीब होगा पर सब धरा का धरा रह गया... मायके में भी उसे अच्छा नही लगता था लेकिन हालात उसके पक्ष में नही थे.

माँ गायत्री देवी दरवाजा खोलतीं हैं और आगुन्तक को देख आश्चर्य से पूछती है अरे !शीला तुम! तुम कब आई , बुधिया कहां रह गयी थी ?”
कल ही आई हूँ माँ जी. अम्मा को तेज ज्वर था कहकर शीला झाडू लेने चली गई.  नीरजा देखो कौन आया है कह कर गायत्री देवी रसोईघर की तरफ बढ जाती है.

अरे शीला कैसी हो कहते हुए नीरजा कमरे से बाहर आती है. वह शीला को आत्मीयता भरी नजरों से देखती है. दोनों साथ-साथ पले बढे थे, दोनों एक ही परिवार का हिस्सा हों जैसे. ठीक हूँ दीदी,जी रही हूँ. तुम सुनाओ. वैसे राजकुमारी लग रही हो दीदी.शीला कभी उसके सोने की चूड़ियों को देखती, कभी बुदों को, कभी कपड़ो को. दीदी ! तुमको देखकर कोई भी कह सकता है कि तुम बहुत खुश हो कह कर शीला जमीन पर थहरा कर बैठ गई. मेरी तो किस्मत ही फूटी है दीदी , बचपन में बाप छोड कर चला गया. दो-दो बेटियां और पति ऐसा मिला की पूछो मत..!
क्यों क्या हुआ?” नीरजा ने उसे जिज्ञासा वश पूछा !
छोड आई उसे हमेशा के लिए ..मर गया वो मेरे लिए ..कह कर शीला आंसू पोछने लगी!

नीरजा सोचने लगी ये गरीब लोग कितने स्वछन्द और बेबाक होतें हैं. अपनी सारी बात कह के हल्का हो लेतें हैं और हम उच्च शिक्षित, संभ्रात लोग दिल पर बोझ लिए घुटते रहतें हैं! अपनी खुद की सारी समस्याएं नीरजा के आखों के सामनें तैर गयी. उसका पति भी तो उच्चकोटि का विजनेसमैन था, बडे-बडे लोगों के साथ उठना बैठना था लेकिन सोच बिल्कुल घटिया. बात-बात में जलील करने वाला और शक्की मिजाज इंसान था उसका पति. और वह पढी-लिखी, एम.बी.ए.पास होकर भी सब झेलती! मौका मिलता तो माँ-पिता से बताती. और वो आगे सब ठीक होने का दिलासा देते हर बार और घर की बात बाहर जाएगी तो बदनामी होगी कहकर उसे चुप रहने को कहते....इसी माहौल में जीते-मरते दो साल गुजार चुकी थी नीरजा, अंदर से टूट बिखर कर....!!! आज अपनी कहानी शीला के जबान से सुनकर सोचने लगी की सुख अमीरी गरीबी से नही बल्कि आपसी प्रेम विश्वास से मिलता है...! जो की हमारे रिश्ते में था ही नही.

फिर अपने आप को सँभालते हुए बोली अरे! नहीं शीला पति के लिए ऐसा नहीं बोलते,वो तुम्हारा जीवनसाथी है, बच्चों का पिता है, आज नही तो कल जाना तो पडेगा ही और लोग क्या कहेंगे....! शीला खीझते हुए बोली अरे दीदी! लोगो का क्या है वो तो कहेंगे ही...मुझे क्या करना है ये मुझे सोचना है और उसे जो करना था मैने देख लिया. अभी इन दो हाथों में इतना दम है कि मैं अपना और अपनी बेटियों का पेट पाल सकतीं हूँ .दिन रात मेहनत मजदूरी करके बटियों को स्कूल भी भेजूंगी. और हाँ दीदी लातो के भूत बातो से नही मानते मात्र पांचवी तक पढी शीला आज नीरजा को गुरू प्रतीत हो रही थी....उसकी सोई हुई आत्मा मानों उसे झकझोर रही हो. जगा रही हो कि क्यों कर रही थी बर्दास्त अब तक ... आखिर क्यूं...दो साल में जो नीरजा नही सोच पायी वो उसने दो घंटे में सोच लिया....! नीरजा ने सोचा कि मेरा पति भी सुधरने वालो में से नहीं था क्योंकि शुरू से वैसा ही था और आगे भी वैसा ही रहेगा... नीरजा ने मन ही मन एक निर्णय लिया और शीला को धन्यवाद दिया...... खुद को बदलना है किस्मत को बदलना है ठान लिया नीरजा ने!!!!!!
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किरण आर्य
बिगुल (व्यंग्य कहानी)

शची ने बालों को समेटते हुए जल्दी से पिन लगाईं और अपना बैग उठाकर तुरंत घर का ताला बंद किया. आज वह ऑफिस के लिए लेट हो गई थी बहुत. शची एक कामकाजी महिला है, उसके घर में उसके अलावा उसके पति नीरव और एक प्यारी सी बेटी भीनी है, छोटा सा परिवार जो अपने नीड़ में सुकून से रहता है. रोज़ सुबह सवेरे पंछी की भांति तीनो प्राणी निकल जाते घर से. नीरव ७ बजे आफिस के लिए निकलते फिर बिटिया कालिज के लिए और सब काम निपटाकर अंत में शची निकलती आफिस के लिए. व्यस्तता उनकी दिनचर्या में शामिल हो गई. आम लोगो की तरह कई जिज्ञासाएं पाले अपने काम और दिनचर्या में व्यस्त जिन्दगी....

शची ने तुरंत रिक्शा पकड़ा और मेट्रो स्टेशन पहुँच गई. उसने देखा मेट्रो खड़ी थी शची भागकर सामने वाले डिब्बे में चढ़ गई. मेट्रो के दरवाजे बंद हुए और मेट्रो चल पड़ी, शची के पीछे कुछ लड़के खड़े थे, जो तेज़ आवाज़ में आपस में भद्दे मजाक कर रहे थे. शची उन्हें अनदेखा करके खड़ी ही थी कि अचानक उसकी बायीं तरफ से एक लड़की की तेज़ आवाज़ ने उसका ध्यान आकर्षित किया अपनी ओर. वह लडकी अपने आगे खड़े व्यक्ति को कह रही थी जरा साइड हटना भाई साहबउस व्यक्ति के साइड हटते ही वह उन लडको की और मुखातिब होकर बोली आप लोगो को शर्म नहीं आती है मैं इतनी देर से सुन रही हूँ आप माँ बहन की भद्दी गालियाँ दे रहे है, बिना इस बात का ख्याल किये कि यहाँ कई महिलाए उपस्थित है.

उनमे से एक लड़का जो सबसे ज्यादा बोल रहा था, थोडा ऐंठकर बोला मैडम जी हम आपस में कैसे भी बात करे आप कौन होती हो कुछ भी कहने वाली ? आपको ज्यादा ही तकलीफ है तो अपनी गाड़ी से चलना शुरू कर दो.लड़की ने गुस्से से कहा ऐसा है गर गाली देकर बात करने का इतना ही शौक है तो हर गाली के साथ मेरी बहन की... मेरी माँ की.... कहो. क्यों दूसरों की माँ बहनों को इज्ज़त बक्श रहे हो यूँ सरेआम?”

उसकी इस बात सुनकर वो लड़का तिलमिला गया और गुस्से में दांत पीसते हुए बोला तेरी माँ की..... लड़की ने बहुत सहजता से थोडा मुस्कुराकर कहा हाँ मेरी माँ या बहन के पास तो है, तुम्हारी माँ बहन के पास नहीं है यह अंग जो एक स्त्री को पूर्णता प्रदान करते है, शायद तुम कान से पैदा हुए हो और इसीलिए मेरी माँ को याद कर रहे हो,” लड़का बंगले झाँकनेलगा और वहां खड़े लोग मुस्कुराने लगे.

लोगो को हँसते देख लड़के ने सिटपिटाकर कहा अगर इतनी परेशानी हो रही तो कान बंद कर लो अपने और साथ ही सीना तानकर बोला इस डिब्बे में तुमसे ज्यादा पढ़े लिखे लोग भी है, जब उन्हें परेशानी नहीं हो रही तब तुम्हे क्यों दिक्कत हो रही है ?” इतना कहकर वह खिसियाता हुआ बेशर्मी से हंस दिया. उसकी इस बात पर आसपास खड़े लोग जो मज़ा ले रहे थे इस नोक-झोंक का, वो भी हंसने लगे. शची को उसकी इस बेशर्मी पर बड़ा अचरज हुआ उसने थोडा तेज़ आवाज़ में बिना पीछे मुड़े कहा आपको शर्म आनी चाह्हिये एक तो आप गलती कर रहे और ऊपर से इस तरह की बात कहकर क्या साबित करना चाह रहे हैशची के इतना बोलते ही वो लड़का थोडा झेप गया बाकी लोग भी चुप खड़े थे. लड़का थोडा हकलाते हुए बोला मैडम मैंने सिर्फ एक बार ऐसा कुछ कहा था.वह लड़की बोली झूठ बोलते हो तुम, लगातार गालियाँ देकर बात कर रहे हो तबसे.बस फिर क्या था कई और स्वर उभरने लगे विद्रोह के. अक्सर यह देखा जाता है कोई किसी के फटे में टांग अडानानहीं चाहता है. जिसके दामन में आग लगीवहीँ बुझावे लेकिन जब कोई एक खड़ा होता है और उसके पीछे एक और स्वर मुखरित हो तो फिर कई आवाज़े उठती है. शायद इसी तरह से बदलाव होता होगा, एक क्रांति होती होगी.......

शची सोचने लगी कि वैसे गालियों का एक अलग संसार है. ऐसी अलहदा गालियाँ कि क्या कहिये ? वैसे ग़ालियों के विषय में एक अजब सी बात ये है कि गाली हिंदी में हो तो बेहूदगी, गंवारपन कहलाती है  और जैसे ही गाली अंग्रेजी में होती तब्दील सभ्यता की चुनरी ओढ़ इतराती है. अनायास ही आधुनिकता का जामा पहन सभ्य हो जाती है और गाली के विषय में दूसरी सबसे अहम् बात ये है कि चाहे जीवन में दूसरों की माँ बहने माल, पटाखा सी लगे लेकिन गाली के मामले में उन्हें फुलटुस इज्ज़त बक्शी जाती है. गाली रूपी स्तुति दूसरों की माँ बेटियों की शान में ही गाई जाती है और उस समय लगता ऐसा जैसे महाशय की माँ बहने उस सुख से विहीन जो एक स्त्री को पूर्ण और सृष्टि की पोषक बनाती है और इनका जन्म कान या नाक से हुआ प्रतीत होता उस समय....

शची की गाली पुराण से उपजते है कुछ महत्वपूर्ण तथ्य और ये ससुरी इंसानी प्रवृति.... पर जब बात आती दूसरों के कीड़े बीनने की तो हम पूरी तन्मयता और इमानदारी से जुट जाते कीड़े निकालने में. कीड़े इतने निकाल देते कि अगला बन्दा रह जाता भौच्च्का ! हाय, इत्ता वायरस लिए घूम रहा ये नश्वर शरीर और गर कोई गलती से कह दें अपने कीड़े तो दर्शाए तो मन दार्शनिक मुद्रा अख्तियार कर अपने सगरे कीड़ों को शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बनाये रखने वाले जीवाणु करार देता है और मुस्कुराता शकुनी मुस्कान ! देखा.. शची के साथ हम भी गालियों के संसार में भटक लिए ना... उफ्फ्फ ! इन बावरी गलियों से निकल हम और शची अपने गंतव्य की ओर अग्रसर हुए........

खैर यहाँ क्रांति का बिगुल बज चुका था और शची का स्टेशन भी आ गया था. वह एक गर्वीली मुस्कान के साथ डिब्बे से उतर अपने गंतव्य की और चल पड़ी, हमें गहन चिंतन के सागर में गोते लगाता छोड़कर........
(सत्य घटना पर आधारित)........
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आभा अग्रवाल 
'' अपनी बीती '' (सत्यघटना )

कैम्पस स्लैकशन आज का ट्रेंड है।  सैंतीस - अड़तीस वर्ष पूर्व डिग्री लेने के पश्चात अखबारों से या जान-पहचान से ही मालूम होता था कहाँ मिलेगी नौकरी। ''अपने पैरों पर खड़े होना'' तब भी ''टेढ़ी खीर'' ही था| MSc के बाद एक महीना "घर" में बैठना इतना असहज होगा कभी सोचा भी न था। ये वही तो घर है जहाँ "पंछी ''बनी उड़ती रही बचपन से अब तक, फिर अब क्या हो गया ? शायद सभी को ऐसा ही कुछ अनुभव होता हो। इसी उधेड़बुन में थी  और इसी बीच टिहरी कन्या विद्यालय से राजमाता का बुलावा आया। मैं स्वेच्छा से टीचर बनना नही चाहती थी पर एक महीने में ही सारे सपने ''गूलर का फूल ''हो गये थे। इससे पहले विज्ञानं पढने के चक्कर में पंतनगर से होमसाइंस के डिप्लोमा को ठुकरा चुकी थी। इसलिये इस बार कोई ''अटकल पच्चू '' नही चलाया और TGMO की बस में सवार होकर माँ के साथ आ गयी उत्तरकाशी से टिहरी। लेकिन  हाय री किस्मत -  महल में इन्टरव्यू होना था पर बाहर ही राजमाता का फरमान  लिए एक आदमी मिल गया। उसने बताया की तबियत अचानक खराब होने से उन्हें दिल्ली जाना पड़ा।  

माँ ने सोचा आज बिटिया को विद्यालय घुमाया जाये। विद्यालय देखने की "जिज्ञासा" तो थी ही क्यूंकि कभी मेरी माँ भी यहाँ पढ़ी थीं और शिक्षिका भी रह चुकी थीं। पर माँ से कहा हम आज ही लौट चलेंगे।  बस में तब गेट सिस्ट्म हुआ  करता था, समय से ही बसें छूटती थीं।  इस बीच माँ ने अपने एक रिश्ते के भाई से मुलाकात करवाई, वो बैंक मैनेजर थे। लंच का समय था और जब हम पहुंचे तो वे खाना खा रहे थे। केवल एक दाल और रोटी. बोले मैं कम से कम में गुजारा करता हूँ और जितना भी मेरे पास है उससे गरीब बच्चों को पढ़ाता हूँ, परिवार में भी यही संस्कार हैं - वो मेरे जीवन का शुरूआती सबक था जो आज भी फ़ालतू खर्च नही करने देता। मन पे अंकुश हम स्वयं ही लगा सकते हैं। खुद खाया तो क्या खाया, किसी के काम आये यही जिन्दगी। कहना नही चाहिये पर अपनी कमाई होने पे एक बच्चे की फीस तो देनी ही है - यह सीख लेकर मैं उठी वहां से और ईश्वर ने साथ भी दिया संकल्प पूरा करने में।

पहाड़ों का जुलाई का महिना - कब झड़ी लग जाये. और हुआ  भी यूं  ही। लो झड़ी लग गयी, डुंडा तक आते आते घना अँधेरा घिर आया और स्वाद में सुगंध की तरह ये खबर कि सड़के बंद हो गयी है। कानो में  सुनाई  भी पड़ा कि पहाड़ तीन जगहों पे टूट चुके है और सड़को पर मलबा आ गया है।  यदि आपने कभी पहाड़ी रास्तों में सफर किया हो तो आपको मालूम होगा यहाँ आपको सुविधा के नाम पे सड़क किनारे चाय की दुकानें ही मिलेंगी वो भी अँधेरा घिरते ही बंद हो जाती हैं. अब रात भर कहाँ रुकें, कई सारी बसे पर महिला यात्री केवल हम दो।  हमने निश्चय किया अठारह मील जाना है तो पैदल चलते है।  कुछ दूर तक सह यात्री चले पर फिर बारिश, अँधेरे और ठंड ने सभी के "हौसले" पस्त कर दिये। सभी यात्री  दुकानों की बैंच पे बैठ गये।  मन हमारा भी घबराया, मजबूत इरादों की" उड़ान" "टूटने" लगी  पर हम दोनों माँ बेटी चलती रहीं। रात्री का अन्धकार, सड़क के एक ओर विशालकाय काला पहाड़  तो दूसरी ओर खाई - नीचे बहती गंगा की सांय-सांय - वो भी बरसात की चढ़ी हुई गंगा, झींगुरों का शोर ,बारिश की बौछार और गिरते पत्त्थर। कुल मिलाकर भय का वातावरण बना हुआ था। 

पिछले वर्ष तांबाखानी में पत्थर गिरने से मरे किस्णु की याद आ रही थी रह -रह के - लोग कहते हैं वो यहीं घूम रहा है भूत बनके ! रात का पक्षी भी बोल रहा था, और सड़क पर पड़ा मलबा दिखाई भी नही दे रहा था, जरा सा पैर गलत पड़ा तो सीधे गंगा शरण ! इस पर कहीं कहीं जुगनू भी थे जगमग करते हुए जो मन को ढाढस बंधा रहे थे हम हैं न साथ तुम्हारे। यूँ ही खतरों से खेलते हम ब्रह्ममुहूर्त में सवेरे चार बजे घर के किवाड़ खटखटा रहे थे। पिताजी को लगा इस वक्त कैसे आ सकती हैं ये लोग, कोई साधन भी नही, बरखा भी तेज, सड़क भी टूटी हुई, जरुर बस'' ढंगार '' [खाई ] में गिर गयी होगी, जरुर इन लोगो के साथ कोई हादसा हो गया है। ये उन दोनों का भूत आवाज दे रहा होगा! लेकिन हमें देख वो अचंभित रह गये खूब डांट भी पड़ी दुस्स? कई दिनों तक अस्थि पंजर ढीले रहे, हड्डियाँ कीर्तन करती रहीं ,पर मन प्रसन्न था मानो कोई किला फतह किया था।

जी ये मेरी ही ''आप बीती '',  हाँ ! माँ के साथ का ये मेरा पहला रोमांचक अनुभव। इससे अनुभव ने जीवन के आरम्भ में ही मुझे जीवट दिया, विजय का आभास सा दिलाया।  और ये भूत, भविष्य और वर्तमान तो सब समय ही है, और अगर खुद पर भरोसा हो तो विजय ही विजय है, विजय अपने को पाना ही तो है। हाँ भूत मुझे तब भी नही मिला और आज भी खोज ही रही हूँ, शायद कभी मिले 
आभा अग्रवाल 


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प्रभा मित्तल
फैसला

 ठक..ठक..ठक
आज सुबह से ही बिजली नही है तो हर कोई दरवाजा ही बजा रहा है...
दरवाज़े पर थाप सुन कर मैंनेे दरवाज़ा खोला।
श्रीमती कल्याणी हैं ?....
जी मैं ही हूँ, मैंने उसे कहा। सामने कूरियर वाला, बड़ा सा सुन्दर फूलों का गुलदस्ता लिेए खड़ा था। मुझे लगा वो ग़लत पते पर आ गया है, मैं उससे सही पता देखने के लिए जोर दे ही रही थी और वो अपनी जिद पर अड़ा था. नहीं ! मैडम यहीं का पता है. तभी पति अन्दर से ये कहते हुए आए.. अरे तुम्हारे लिए ही होगा, ले लो। मेरे लिए ? हैरान थी मैं ! लेकिन हस्ताक्षर कर और गुलदस्ता लेकर उसे विदा किया। जिज्ञासावश गुलदस्ता अलट-पलट कर देख ही रही थी कि कौन भेज सकता है मेरे लिए गुलदस्ता. तभी संलग्न छोटे से कार्ड पर नज़र पड़ी। लिखा था ...."लव यू माँ !" तब ध्यान आया..ओह, आज तो मदर्स डे है...और मन खुशी से गद् गद् हो आया। पास होते तो अंक में भर प्यार कर लेती अपने बच्चों को।

मैं सोचने लगी कि आजकल तो हर दिन उत्सव के नाम पर तय है। मदर्स डे,फादर्स डे,डॉटर्स डे,फैमिली डे,वूमन्स डे और तो और रोज़ डे,चॉकलेट डे भी...और न जाने क्या - क्या। माता-पिता- बच्चे परिवार , फूल-पत्ती, मिठाई..ये सब तो पहले भी होते थे..आपस में प्रेम भी खूब रहता था.. पर ऐसा डे सेलिब्रेशन कभी सुनने में नहीं आता था। असल में हमारे समय में तो कोई जन्मदिन भी नहीं मनाता था, बहुत हुआ तो आस-पड़ोस की स्त्रियों को बुलाकर घर में भगवान का कीर्तन करवा कर लड़्डू या बताशे बाँट दिए जाते थे। पर अब तो जमाना बदल गया है।समय के साथ सब उसी के रंग में रंगते जा रहे हैं। बस इतना है की इस बहाने खुशियों के छोटे-छोटे पल बीन कर बच्चों के साथ हम भी खुश हो लेते हैं। 

गुलदस्ते को प्यार से गुलदान में सजाकर बैठी ही थी कि उसमे सजे फूलों को देख-देख मेरा मन न जाने कहाँ-कहाँ की उड़ान भर पंछी की तरह उस डाल पर जा बैठा जहाँ से वह बार - बार बचकर आ जाती थी। मैं बहुत छोटी थी तब....रही होगी कोई तीन -साढ़े तीन बरस की। इतनी छोटी उम्र का, यौं तो क्या कुछ याद रहता है लेकिन कहते हैं ना जो घटनाएँ मन में घर कर जाती हैं, ताज़िन्दगी नहीं भूलतीं। फिर दिमाग उसी दौर में पहुँच गया और सोचने लगी किस्मत ने मेरे साथ ऐसा मज़ाक क्यों किया...सब कुछ भूल गया पर वो दिन आज भी मेरे मानस-पटल पर ज्यों का त्यों अंकित है....

हाँ उस दिन कचहरी में गहमा-गहमा चल रही थी। वकील-मुवक्किल अपने -अपने मुकदमों की सुनवाई के लिेए आ-जा रहे थे। मैं वहीं एक कोने में अपने पिता और अपने से तीन साल बड़े भाई के साथ बैठी थी मुझे कुछ ज्ञात नहीं था कि अब क्या होने वाला है। पिता हम दोनों को लेकर वहाँ क्यों आए हैं ,हमेशा किस्से- कहानी सुनाते और उनके साथ खेलते रहने वाले उसके पिता आज गुमसुम क्यों बैठे हैं ? मुझे तो बस उनका साथ अच्छा लग रहा था.. बहुत लगाव था मुझे अपने पिता से। नौकरी के सिलसिले में माँ की पोस्टिंग जब दूर-दराज़ के क्षेत्रों में होती रहती थी ..तब भी मेरा मन करता था कि माँ के साथ न जाना पड़े और मैं पिता जी के पास ही रह जाऊँ। तभी मेरे पिता का नाम पुकारा गया और वे उठकर जज साहब के सामने जाने को उद्यत हुए ही थे कि उन्हें बच्चों को साथ लाने को कहा गया।हम दोनों पिता का हाथ पकड़ साथ चल दिए। 

मैंने सुना भइया जज साहब से कह रहे थे ..'मैं पिताजी के पास रहना चाहता हूँ।'अब मेरी बारी थी पिताजी ने मुझे गोद में उठाकर जज साहब के सामने खड़ा कर दिया...मुझसे भी उन्होंने यही सवाल किया...'बेटी तुम किसके पास रहना चाहती हो'...मैं घबरा रही थी...इधर उधर नज़र दौड़ाई तो भी़ड़ में खड़ी माँ दिखाई दीं।वो मेरी तरफ ही देख रहीं थीं,वो इतनी दूर क्यों खड़ी हैं,मेरे पास क्यों नहीं हैं..कुछ समझ में नहीं आ रहा था।मेैं भी उन्हें देखने लगी।तभी जज साहब के द्वारा दोबारा पूछे जाने पर सकपका कर काँपते स्वर में बस इतना ही कह पाई ..'ताजी के पास'।लाख बार सिखाने पर भी मुझे पिताजी बोलना कभी नहीं आया..बड़े होने पर भी ताजी ही पुकारती रही।इसके बाद हम दोनों को लेकर पिताजी घर आ गए।उस दिन के बाद मैंने माँ को कभी नहीं देखा।

उस दिन क्या होने वाला था इसका मुझे जरा भी भान नहीं था।क्यों माँ उस दिन हमारे साथ घर नहीं आईं...ऐसा क्या हुआ था जो हम कभी फिर एक साथ नहीं रहे।कभी मिले भी नहीं।घर में माँ का ज़िक्र फिर कभी किसी ने नहीं किया।क्या मेरी अक्ल पर पत्थर पड़ गए थे ..जो मैंने पिता का साथ माँग लिया..पर .. कोई क्यों नहीं समझता.. मुझे तो माँ-पिता दोनों के साथ रहना था। कोई कुछ बताता भी नहीं था।पिता जी ने भी माँ के विरोध में कभी कुछ नहीं कहा बल्कि वो तो जैसे सारी ज़िन्दगी उनके लौटने का इन्तज़ार ही करते रहे।पारिवारिक दबाव के बावज़ूद उन्होंने दूसरा विवाह भी नहीं किया... इसलिए मुझे कभी समझ में नहीं आया कि दोनों अलग क्यों हुए ?

मेरे मन में आज भी बहुत सारे सवाल हैं.. ..क्या तीन साल का बच्चा अपनी जरूरतों के बारे में सही निर्णय ले सकता है,क्या अच्छा है क्या बुरा.. क्या उसे पता है कि उसे क्या चाहिए ? क्या जज साहब मेरी तक़दीर का सही फैसला कर रहे थे...क्या उस दिन उन्होंने जीवनभर के लिए मुझे मेरी माँ से अलग नहीं कर दिया था ? 

जब भी वो दिन याद आया टूट-टूट कर जीती रही हूँ मैं ।अगर उस दिन मैं कचहरी में कुछ न बोलती तो क्या मुझे मेरी माँ का साथ नहीं मिल जाता ? उसका बाल-मन ऐसे कई सवालों के घेरे में उलझ-उलझ कर रह जाता । यौं तो घर में किसी चीज की कमी नहीं थी।पिता ने हमें बहुत लाड़-प्यार और संस्कारों के साथ पाला। लेकिन माता-पिता के अलगाव से उत्पन्न भावनात्मक पीड़ा और अभाव को मन ही मन झेलते हुए कल्याणी कब बड़ी हो गई..विवाह भी हो गया.. पता ही नहीं चला...किसने देखेे उसके वो निश्छल मौन आँसू ...ऐसे ही एक एक कर बीत गए दिन।

पर हाँ उस टूटे घर की परवरिश से एक हौसला तो पाया था कि हर हाल में अपने घर को बचाना है...सम्बन्धों को गरिमा के साथ जीना है।  जिस दिन मैं स्वयं माँ बनी,खुश थी मैं... मैंने प्रण किया कि जीवन में कितनी भी विषम परिस्थिति आए ..मैं अपनी सन्तान को उन परिस्थितियों में नहीं डालूँगी जिनमें से मैं गुज़री.. उसे अपनी ममता से वञ्चित नहीं करूँगी।

इस के साथ ही मैंने महसूस किया कि मनुष्य जब चाहे अपने जीवन में परिवर्तन ला सकता है ..नया जीवन आरंभ कर सकता है।भले ही पुरानी यादें भुलाई नहीं जा सकती,पर अतीत उसकी गति में तब तक दख़ल नहीं दे सकता जब तक कि वह अनासक्ति की कुल्हाड़ी से उन यादों और संस्कारों से अपना सम्बन्ध विच्छेद न कर ले।

अचानक ही कल्पना लोक से मैं धरती पर उतर आई....पति कह रहे थे .अरे कल्याणी ! भई, अब एक कप चाय तो पिला दो या इन फूलों को ही निहारती रहोगी...और मैं जैसे भूतकाल से जूझकर अपनी विजय पर मुसकुराती हुई रसोईघर की तरफ चल दी। 

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डॉली अग्रवाल
अमन की सज़ा 

ट्रिन ट्रिन ट्रिन 
फ़ोन बज रहा था , अधखुली आँखों से फ़ोन उठा बोली - हेल्लो ! उधर किसने जाने क्या सुना या कहा , उसने फ़ोन बंद किया और सो गयी ! अनामिका कल वैसे भी पार्टी से लेट आई थी. घर का माहौल भी आज़ाद ख्यालों का था. उस पर कोई रोक टोक न थी. पढाई समाप्त हुई थी और अभी उसने सोचा नही था की उसे क्या करना है. आजकल देर रात तक पार्टी और सुबह देर तक सोना, यही दिनचर्या थी उसकी. 

कुछ घंटो के बाद उठी, हाथ में चाय और अखबार लिया ही था की फ़ोन फिर बज उठा - उठाया तो आवाज आई “गुड मार्निंग” और कट गया ! अजीब सा लगा पर जल्दी में ध्यान ना देकर वो तैयार होने चली गयी !आज उसे एक सहेली की मेहंदी की रस्म में जाना था. उसने पिंक साडी पहनी, ऊँचा सा जुड़ा बनाया हल्का सा मेकअप किया और घर से निकल गई !

रोड पर आकर टेक्सी ली और चल पड़ी. फिर से ट्रिन को सुन अजीब सा मुह बना फ़ोन उठाया - आवाज आई पिंक साडी में बहुत खूबसूरत लग रही ,बस बालो को खुला छोड़ दो ! वो कुछ कहती इससे पहले ही फ़ोन कट गया ! रिप्लाई कॉल की तो उठाया ही नहीं ! उसे गुस्सा तो बहुत आ रहा था की कौन उसके साथ ये बदतमीजी कर रहा है.

हैरान, परेशान अनामिका सहेली के यहाँ पहुची ! मेहँदी की रस्म चल रही थी, की फ़ोन फिर बज उठा - महेंदी तुम भी लगवा लो ! अब तो हद ही हो गयी थी ! गुस्से में फ़ोन उसने स्विच ऑफ कर बैग में रख दिया ! कुछ देर सहेलियों के साथ हंसी मजाक करते हुए समय बीत गया. एक दो बार उसने बीच में बैग खोलकर फोन देखा भी की कहीं कोई काल तो नही आई जबकि खुद ही उसने फोन आफ कर बैग में रखा था. शायद कुछ था ऐसा जो आवाज उसके दिलो दिमाग में असर करने लगी थी. 

मेहँदी के बाद संगीत प्रोग्राम शुरू हुआ ! अचानक से गाना बजा--- मेहँदी लगा कर रखना ! आवाज पहचान कर उसने घूम कर देखा तो कोई था लेकिन कौन ? ये वही आवाज़ थी जो उसने फोन पर सुनी थी. अनामिका का ध्यान वहीं था. तभी देखा उसके मम्मी पापा भी सामने से आ रहे है. वे पास आकर मुस्कुराये और बोले “बेटा ये अमन है ! मेरे दोस्त का बेटा. ये इसी का प्लान था तुम्हे देखने और परखने का! अभी फ़ोन कर इसने ही हमें बुलाया ! “

अनामिका सुनकर स्तब्ध रह गई उफ्फ्फ क्या मज़ाक है, तभी अमन सामने आ गया और कान पकड़ते हुए बोला -- सारी उम्र के लिए सजा भुगतने को तैयार हूँ ! अनामिका को उसकी इस अदा पर प्यार आ गया ! उसका 'मन बल्लियों उछलने लगा' उसका मन हुआ गुनगुनाने का लेकिन सबके सामने वह इस खुशी का इजहार नही करना चाहती थी.. बस स्वीकृति में सर हिला दिया और अनामिका इस अनजानी सी ट्रिन ट्रिन के साथ ताउम्र के लिए जुड़ गयी !

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भगवान सिंह जयाड़ा
----गाँव की ओर----
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आज आरव और रूचि बहुत खुश नज़र आ रहे है. घड़ी की सुई रात के बारह बजा रही है लेकिन दोनों की नींद जैसे आँखों से ओझल हो. अब तक दोनों इस घर को ही घर समझते है जहाँ पापा मम्मी और वो दोनों भाई बहन है. गाँव शब्द सुना था उन्होंने कई बार लेकिन जब उन्हें पापा ने बताया कि इस बार गर्मियों की छुट्टियों में गाँव जायेंगे और दादा दादी नाना नानी से मिलेंगे तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा.  अब तक उनसे फोन पर ही बात हुआ करती थी, कभी मिले नही थे उनसे. कल वो दिन था जब उन्हें गाँव के लिए प्रस्थान करना था. अपने मन में एक कल्पना कर ली थी उन्होंने कि गाँव ऐसा होगा, वहां के लोग , बच्चे  और उनके दादा दादी नाना नानी ऐसे होंगे  वैसे होंगे. जितने उत्सुक हम है शायद हमसे मिलकर वे भी उतने ही उत्सुक होंगे. बस यही सोच विचार और खुशी के साथ आखिर नींद ने उन्हें सुला ही दिया. 

सुबह उठते ही उन्हें उत्सुकता ने फिर घेर लिया. हाँ राजेश एवं सुनीता भी बच्चो के साथ उतने ही खुश थे. आज उन्हें लग रहा था कि वे आज एक ऐसा कार्य करने जा रहे है जो उन्हें बहुत पहले करना चाहिए था. बच्चो को अपने गाँव और उसकी मिट्टी से प्यार करना सिखाना चाहिए था. आखिर वह घडी आ ही गई जब शाम को दोनों पापा मम्मी के साथ गाँव जाने के लिए बस अड्डे की ओर रवाना हुए. गर्मी बहुत थी और बड़ी कोशिश के बाद कहीं जा के ए सी कोच की टिकिट मिल ही गई. बस सफर शुरू हुवा अपनी मातृभूमि की ओर. बच्चे खुशी से खिड़की से बाहर झांक रहे थे और उनके माँ पिता सोच में डूबे थे की उस भूमि के और कण कण के हम कर्जदार है. उस की पावन  मिट्टी में पल बढ़ कर हम जवान हुए और इस काबिल हुए कि आज अपने पैरों पर खड़े है. 

आरव रूचि दोनों को सफर में आनंद आ रहा था, बस के इस सफर में भी रातभर उन्हें कौतहुलवश नींद न आई. कुछ घंटों के बाद टिम टिमाती रोशनी में कुछ पहाड़ियाँ नजर आने लगी. पहाड़  भी पहली बार देख रहे थे वे. मम्मी पापा ने बताया था की उनका गाँव पहाड़ो पर है. उन्हें पता था कि उत्तराखंड को देवभूमि भी कहते है. वे जानते थे कि यहाँ हिन्दू मानयताओं के कई धार्मिक तीर्थ स्थल है. आरव ने पूछा पापा क्या हम  देव भूमि में प्रवेश कर चुके है? पापा ने कहा "हाँ बच्चों अब कुछ देर में ही हम अपने गाँव के बाज़ार में होंगे. "

जैसे भोर की पहली किरण ने सुबह होने का एलान किया वैसे ही ड्राइवर ने भी बस को बाज़ार के स्टेशन पर खड़ा कर दिया. ये बाज़ार आसपास के सैकड़ो गाँवों का एकमात्र बाज़ार है. और सुबह होते ही चल पहल नज़र आने लगी थी. सभी बस से उतरे ही थे कि राजेश को अपने बचपन का साथी राजू मिल गया. जैसे ही दोनों की आंखे चार हुई उन्होंने एक दुसरे को गले लगा लिया. फिर राजेश ने उसे परिवार बच्चो से मिलाया. बच्चो ने भी झुककर राजू चाचा को नमस्कार किया. राजू ने भी बच्चो के सर प्यार से हाथ फेरा और कहने लगा " आखिर ले आये तुम  बच्चो को  गाँव. बहुत प्यारे बच्चे है और बच्चे भी देखो कितनी जल्दी  बड़े हो गए, सच है दिवस जात न लागे बारह"  रूचि बोली "आप अच्छे है अंकल, पापा अक्सर आपका जिक्र किया करते थे."  फिर राजेश और राजू आपस में बतियाने लगे. फिर सबने वही चाय पी और गाँव /घर जाने की तैयारी करने लगे.

गाँव जाने के लिए कच्ची सड़क का रास्ता ही एकमात्र सहारा था.  वहा कुछ टैक्सियाँ  चलती है लेकिन पूरी भरने के बाद ही चलती है. वैसे पहाड़ पर लोग पैदल चलना ही पसंद करते है. टैक्सियाँ तो हम जैसे शहरी लोगों के लिए थी और कुछ लोगो के जीविका का साधन भी. आरव रूचि और सुनीता तो बस आस पास के माहौल को निहार रहे थे. तब राजू ने कहा राजेश वो श्याम ने टैक्सी खरीद ली है वह आने वाला होगा उसी की टैक्सी में चले जाना. थोड़ी देर में श्याम आ ही गया और उसे मिलकर भी राजेश सुनीता और बच्चो को अच्छा लगा. वह तुरंत टियर भी हो गया बोला बाकी सवारी छोडो, अब तो बस आप लोगो को गाँव ले जाना है. उसने जल्दी से सब सामान टैक्सी में डाल सबको आराम से बिठाया. श्याम खुश था आज. राजू ने कहा आप लोग चलिए मुझे बाजार में कुछ काम है फिर मिलते है.  श्याम को अच्छा लगा कि देर से ही सही उसके गाँव के लोग अपने गाँव की सुध लेने लगे है.  कच्ची ससड़क पर बस हिचकोले खाती आगे बढ़ रही थी और बच्चे जिज्ञासा से यहाँ वहां देख रहे थे. ,, पहाडी रास्ते, घुमावदार रोड, चीड के पेड़, कभी बरसाती नाले, नीचे बहती नदी... सब उनके लिए नया था. राजेश और सुनीता  तो श्याम से बस गाँव घर की खबर ले रहे थे. वे भी सबके बारे में जानना चाहते थे. और बच्चे तो उतर कर भागना दौड़ना चाहते थे पहाडियों पर ... लेकिन  फ़िलहाल वे पहले दादा दादी से मिलना चाहते थे  इसलिए खुद  पर नियंत्रण कर वे रास्ते का मज़ा लेते रहे.

श्याम ने गाड़ी गाँव के रास्ते पर लगा दी यहाँ से तो उन्हें अब पैदल ही जाना था. वहा हरियाली, शांति, पक्षियों का कलरव, पशुओं की आवाजाही देख सब का मन ख़ुशी से झूम उठा. उनके लिए यह उत्सव से कम नही थी. भरी सामान श्याम ने उठाया और सब अपने सामन के साथ गाँव की ओर चल दिए. अपनों से मिलने की खुशी उनके चेहरे और कदमो में देखी जा सकती थी. गाँवों में आने की खबर आग की तरह फैलती है और  थोड़ी देर जाने पर ही कई बच्चे और लोग  उनके स्वागत में खड़े हो. सब अनजानी जानी पहचानी नज़रो से देख रहे थे. सबको नमस्ते मुस्कारते हुए वे अपने घर पहुंचे. वहां दादा दादी तिलक लिए स्वागत में खड़े थे. आज पहली बार उनके पोता पोती घर आये थे. पहुँचते ही सबने उनके पैर छुए और आशीर्वाद के साथ तिलक लगवाया. आज पोता पोती भी अपने दादा दादी के आशीर्वाद को पाकर खुद को किसी राजकुमार राजकुमारी से कम नही आंक रहे थे. दादा दादी की तो आँख के आंसू उनकी खुशी बयाँ कर रहे थे. गले लिपट सबने अपने प्यार का इजहार किया. और दादा दादी  तो आरव रुचो को अपनी गोदी में बिठा सर पर हाथ फेरते रहे. बार बार उन्हें देखते और फिर आंसू निकल आते.

कुछ हाल राजेश और सुनीता का भी यूं ही था. अपनों से दूर कौन रहना चाहता है. लेकिन मजबूरी इन्सान से क्या नही करवाती. लेकिन आज अपने माँ पिता की बूढ़ी आँखों में प्यार आंसू देख उन्होंने फैसला कर लिया कि वे हर साल या छुट्टियां होते ही अवश्य यहाँ आया करेंगे. बच्चे भी अपनी मिट्टी और जड़ो से जुड़े रहेंगे और वे भी.  आरव और रूचि भी अब घर में अन्य लोगो से मिलने लगे. चाय नाशता आज  दादी ने बनाया था सबके लिए प्यार से. सबने मिलकर  नाश्ता किया ही था कि गाँव के कुछ लोग और ब्च्चे वहा आ गए. यह सब देख कर बच्चे प्रफुल्लित होने लगे.. कोई उन्हें अपने घर आने के लिए कहने लगा औए बच्चे उन्हें खेतो की ओर चलने को कहने लगे .... इसी का तो इन्जार था उन्हें ... और अब आएगा उनकी छुट्टियों का असली मज़ा ..हाँ एक  हफ्ता उन्हें इस माहौल में रहने का अवसर मिलेगा....मस्ती और मज़े के साथ आरव और रूचि इसे अपने जीवन की सुनहरी यादगार बना लेना चाहते है ....