Saturday, December 26, 2020

आओ लिखें कहानी - ५वीं कहानी

 



अनुक्रम

संख्या

लेखक

कहानी शीर्षक

कुल शब्द संख्या

1.

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल

बगावत

993

2.

बीना भट्ट

जन्म कुंडली

885

3.

अल्का गुप्ता

चलती क्या खंडाला

783

4.

मीनाक्षी कपूर

नई उमंग

659

5.

मदन मोहन थपलियाल

वृद्धा व गाँव की पंगडंडी

709

6.

विश्वेशर प्रसाद सिलस्वाल

क्ल्पा

1000+

7.

मीता चक्रवर्ती

लाली (चित्र रूप मे)

882

8.

सविता जोशी

ताई जी

411

9.

संदीप गढ़वाली

अंजाने में

600

10.

विजय लक्ष्मी भट्ट

शिक्षा

1000

11.

पुष्प कुमारी

पत्र शैली में

416

12.

किरण श्रीवास्तव

परिवर्तन

825


~ बगावत ~
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
(प्रोत्साहन हेतु लिखी गई कहानी)
परिधि उस दिन परिवार, समाज संस्कृति-संस्कार की सभी सीमाओं को तोड़कर, अपने माता-पिता की गुहार को अनदेखा कर मोहित के साथ रहने चली गई । परिधि और मोहित स्नातक की पढ़ाई के दौरान मिले थे और प्रेम का रंग उन पर खूब चढ़ा था । उनके प्रेम का दौर लैला-मजनू के किस्से से कम नहीं था । स्नातकोत्तर भी दोनों ने साथ ही किया था । सारे छात्र और यहाँ तक की कि प्रोफेसर भी उन्हें ‘लव बर्ड’ के नाम से जानते थे । कालिज समाप्त के बाद दोनों को ही अच्छी कंपनियों में नौकरी मिल गई । दोनों के अपने अपने सपने थे लेकिन साथ रहना चाहते थे । उनके बीच का प्रेम जो मजबूत कड़ी बना था आज वही मजबूर सा दिखाई पड़ रहा था । मोहित ने अब तक हमेशा परिधि को सम्मान और प्यार दिया था । वह शादी के पक्ष में था । मोहित के माता-पिता ने उस पर कभी कोई बंदिश नहीं रखी थी । वह अपने निर्णयों के लिए स्वतंत्र था । उन्हें कोई आपत्ति भी नहीं थी अपने बेटे के फैसले पर। परिधि अभी वक्त चाहती थी और अपने सपनों को लेकर वह बहुत ही संवेदनशील थी । मोहित के कई बार कहने पर उसने मोहित से कहा कि हम बिना शादी किए साथ रहते हैं जिससे हम अपने सपनों को भी पूरा करेंगे और प्रेम को भी निभाते रहेंगे । तब मोहित ने एकदम से कहा था “ यू मीन लिव इन?” परिधि ने कहा था “ हाँ मोहित अब हम साथ रहेंगे और सपने पूरे होते ही हम शादी कर लेंगे ।“ मोहित भौंचक्का होकर उसे देखने लगा था । उसे परिधि से इस बात की उम्मीद नहीं थी । लेकिन प्रेम की खातिर उसने परिधि को चुना व उसके साथ चलने के लिए राजी होना पड़ा था ।
माता-पिता की लाड़ली परिधि एकलौती संतान थी । उसका लालन पोषण एक बेटे की तरह ही किया था शर्मा दंपति ने। उसके हर सपने को पूरा करने के लिए, उससे बिना सवाल किए हुये उसकी हर मांग को, हर जरूरत को पूरा किया था उन्होंने । शर्मा दंपति के परिवार व रिश्तेदार सदा उन्हें परिधि के लड़की होने का बोध और उस पर अंकुश लगाने के लिए कहा करते थे । लेकिन शर्मा दंपति ने उनकी बातों को सदा अनसुना किया और अपनी बिटिया को सदा ही इन सब बातों से दूर रखा । लेकिन परिधि के लिव इन में रहने के निर्णय ने उनको एकदम सदमें में डाल दिया । अच्छी पढ़ाई, अच्छी नौकरी के बाद वे देखना चाहते थे परिधि को शादी के जोड़े में । उनका सपना था की परिधि की शादी हो उसके बच्चे उन्हें नाना-नानी होने का गौरव दे । परिधि ने माता-पिता की हर गुहार का नकारते हुये अपना एकटूट निर्णय सुना दिया था । न चाहते हुये भी उन्हें अपनी बेटी की खुशी की खातिर इस के लिए हामी भर दी।
शादी जैसी सामाजिक सहमति को नकारते हुये मोहित और परिधि दोनों साथ आ गए । तन-मन से दोनों प्रेम शब्द की सार्थकता को साकार करते हुये अपने सपनों को साकार करने में जुट गए । प्रेम की हर सीमा को दोनों खुल कर जीने लगे । समय के साथ परिधि की व्यस्तता बढ्ने लगी और रिश्तों में दूरी धीरे-धीरे पैर पसारने लगी । यह दूरी कब मोहित के आफिस में काम करने वाली, उसी की टीम की शबाना के साथ नज़दीकियाँ बनने लगी, उसे पता ही नहीं चला । मोहित को उसके प्रति परिधि की उदासीनता अब खलने लगी । वहीं शबाना उसकी हर छोटी मोटी जरूरतों का ख्याल करने लगी । मोहित अब काम के बहाने आफिस में ही समय व्यतीत करने लगा जहां शबाना हर पल उसका साया बन साथ रहती । वहाँ परिधि अपने काम में इतनी मशगूल हो गई की उसे मोहित का न ख्याल रहता था न उसके बदलते हुये प्रेम का भान हुआ । प्रेम शब्द अब उसके शब्द्कोश से छूटता हुआ दिखने लगा ।
शबाना और मोहित इस दौरान इतने करीब आ गए कि दोनों एक जिस्म एक जान बन गए । इसी बीच परिधि के आफिस की एक कर्मचारी ऋचा अक्सर उसके काम में सहायता करती थी । दोनों में मित्रता के संबंध घनिष्ठ होने लगे । समय मिलते ही दोनों मिलते को बैचेन रहते थे । मोहित अब काम का बहाना कर कई-कई दिन बाहर रहने लगा । परिधि और ऋचा इस दौरान साथ साथ नज़र आने लगे । एक दूसरे के घर जा कर रहने भी लगे । दोनों एक दूजे की संगत मे अधिक संतुष्ट नज़र आने लगे । दोनों को आभास होने लगा कि यह मित्रता से बढ़कर है जहां दोनों एक दूसरे के प्रति आकर्षित हो रहे हैं । जल्द ही दोनों ने इस आकर्षण को समझ भी लिया जिसे समाज समलैंगिकता का नाम देता है । दोनों ने समाज की परवाह किए बिना स्वयं को इसकी इजाजत दे दी ।
मोहित और शबाना ने अपने प्रेम को परवान चढ़ते देख एक साथ भारत से बाहर काम करने और वहाँ शादी करने का निर्णय लिया । परिधि ने उसके बाहर जाने पर न कुछ कहा और न रोकने कि कोशिश की । बल्कि मौन रहकर उसकी ज़िंदगी से निकल जाने का हुक्म सुना दिया क्योंकि उसे अब ऋचा के साथ जीवन सुख को बांटना था । दोनों ने एक दूजे मे खुद का सुख ढूंढ लिया । फैसला हो गया परिधि और ऋचा अब साथ रहकर एक दूजे के लिए समर्पित रहेंगे । न बच्चे/परिवार होने की चिंता न किसी ज़िम्मेदारी का अहसास बस जीना तो केवल अपने लिए । यही फैसला उसने अपने माता पिता को सुना दिया ।
शर्मा दंपति परिधि के इस फैसले से स्तब्ध रह गए । उनके शरीर में ज्यों काटो तो खून नहीं । उन्हें विश्वास था कि एक न एक दिन मोहित और परिधि उन्हे पोते-पोती का सुख देंगे । अभी तक तो वे समाज से उनके तानों की परवाह किए बिना दूरी बनाये हुये थे लेकिन परिधि के इस निर्णय ने उन्हें तोड़कर रख दिया । ईश्वर के बने विधि-विधान व समाज द्वारा संचालित व्यवस्था के उलट पति-पत्नी के उस रिश्ते को ठुकरा कर, समाज की रीतियों को ठेंगा दिखाकर, एक अमानवीय रिश्ते को अपनाकर परिधि ने लोकसंस्कृति व संस्कारों की धज्जियां उड़ा दी । कल तक परिधि को बेटा कहने, उसके सपनों को उड़ान देने वाले माता-पिता ने आज उसे मरा मानकर खुद को समाज से फिर जोड़ लिया है।
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~ जन्म कुंडली ~
पुरुस्कृत कहानी
बीना भट्ट बड़़शिलिया
सूर्य की उजास किरणों के साथ स्वाति निस्तेज सी कुर्सी पर बैठी निढाल कुछ सोच रही थी, तभी माँ की आवाज़ ने जैसे उसे जगा दिया। बेटा नाश्ता कर लो,छुट्टी के दिन भी समय से नहीं खाती हो तुम, ठीक है माँ आती हूँ।
स्वाति इंटरमीडिएट कॉलेज में प्रवक्ता पद पर थी, उसकी ज़िंदगी दिशाहीन सी जैसे कोई सिर्फ अपने जीने का मकसद पूरा कर रहा हो...बावन वर्षीय स्वाति जिसके जीवन में तकरीबन पच्चीस साल पहले एयरफोर्स में तैनात एक युवक का आगमन हुआ था, बस एक दो मुलाकात के बाद निशांत अपनी पोस्टिंग चला गया और ये स्वयं की दिनचर्या में व्यस्त.... अचानक एक दिन भाभी ने माँ को बताया कि माँ निशांत अच्छा लड़का है उसे स्वाति भी जानती है इनकी शादी करा देते हैं शायद भाभी को दोनों के बारे में कुछ पता था, माँ की आँखों में खुशी दिखाई दी कि चलो देर से ही सही स्वाति के लिए रिश्ता आया है, माँ ने बहू को बोला चलो मीतू जन्म कुंडली मिलान करवा लो अब मैं भी बूढ़ी हो गई हूँ ज़िम्मेदारी भी पूरी हो जायेगी। भाभी के दूर के रिश्तेदार होने से निशांत की पत्री तुरन्त मंगा ली गई और माँ ने पंडित जी को बुला लिया मिलान और मुहूर्त के लिए। पंडित जी आकर देखते हुए बोले ये जन्म पत्रिकाएं आपस में बिल्कुल मेल नहीं खाती हैं, शादी के बाद कष्टकारी जीवन हो सकता है बिटिया का,माँ नको पंडित जी की बात का पूरा भरोसा था। बात शाम तक के लिए खत्म हो गई,तभी स्वाति थकी हारी सी पर मन ही मन खुश नज़र आ रही थी घर पहुंच गई चाय पीने के बाद माँ ने पूरी तरह पंडित जी की बात का समर्थन करते हुए शादी की असहमति प्रकट कर दी। माँ के आगे बेटी चुपचाप सुनकर अपने कमरे की तरफ भारी क़दमों से चली गई।
कुछ महिनों बाद परीक्षाओं के चलते स्वाति स्कूल से जल्दी लौट आ गई थी,उसने देखा एक सज्जन पुरुष बैठक में बतिया रहे हैं कि लगता है आपकी बिटिया से मेरे भांजे की जोड़ी ईश्वर की बनाई है बस सब ठीक हो तो बात पक्की। सारी बातें घर पर होने के बाद पत्री मिल गई थीं और शुभ मुहूर्त निकाल लिया गया...स्वाति ने झिझकते हुए कहा माँ इतनी जल्दी क्यों है? मुझे कुछ समय दीजिये सोचने का अंकित के घरवालों से भी पूरी बात कीजिये फिर फैसला लिया जा सकता है मैं मना नहीं कर रही पर...अभी मानसिक रूप से तैयार नहीं हूँ।
उधर निशांत छुट्टियों में घर आया था उसने स्वाति से फोन कर कहा क्या एक बार मिल सकती हो। रविवार की दोपहर दोनों एक पार्क में बैठे गंभीर मुद्रा में बातें कर रहे थे, दोनों साथ बहुत सुंदर लग रहे थे,पर स्वाति बिना कुछ बोले नज़रें नीचे करके टपकती आँखों को पोंछ रही थी।
आँखों से ही उसने निशांत से विदा ली और घर जाकर कमरे में फूट फूट कर रोने लगी, थोड़ा समय बाद शांत होकर माँ से बोली माँ ..शादी की तैयारी कीजिये आपने मेरे लिए बहुत सपने देखे हैं मैं कैसे आपको मना कर सकती हूँ। और कुछ औपचारिकताओं के बाद शादी सम्पन्न हो गई,सब सामान्य रूप से चल रहा था कि एक फोनकॉल ने स्वाति की ज़िंदगी में भूचाल ला दिया.... इंस्पेक्टर ने अंकित के एक्सीडेंट की खबर दी,सभी अस्पताल की ओर भागे, सब गीली आँखों से स्वाति को संभाल रहे थे,उसके ससुराल वाले लोग उसे ही कोस रहे थे कि लड़की के क़दम अच्छे नहीं थे,तभी तो अंकित.....!
धीरे धीरे समय तीव्रता से आगे निकल रहा था स्वाति की ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया था वो सुबह स्कूल जाती और शाम को घर आकर नितांत अकेले रहने की आदी हो चुकी थी। वो सोच रही थी कि खुशियों से शायद उसका रिश्ता ही नहीं।
समय की गति को कौन रोक सकता है एक दिन उसे स्कूल से घर आते हुए एक कार ने ओवरटेक किया और अंदर से आवाज आई अरे मोहतरमा यहां कैसे ? आश्चर्य से स्वाति ने पीछे मुड़कर देखा तो देखती रही वो निशांत था। कार से बाहर निकल कर एक साथ बहुत प्रश्न पूछ लिये.. अवाक स्वाति सिर्फ बोली मैं ठीक हूँ आप बताओ आप यहाँ कैसे ?उसने बताया मैंने जॉब छोड़कर यहीं पर बिजनेस शुरू किया है,तुम बोलो ? स्वाति ने अपने ट्रांसफर की बात बताई कुछ देर में दोनों निकल गए, शाम को निशांत को न चाहकर भी फोन कर पूछा आपका परिवार कैसा है, बच्चे कैसे हैं,शादी में बुलाया नहीं.. वगैरह वगैरह
निशांत हँसते हुए बोला सबसे मिलाता हूँ तुम्हें कल रविवार है घर का पता बताओ मैं लेने आऊँगा।
शाम की चाय के समय दोनों साथ चल पड़े निशांत के घर, अंदर पहुँचते ही देखा भीतर एक दीवार में स्वाति की तस्वीर लगी हुई थी....वो आश्चर्य चकित थी ये क्यों लगाई है बड़े अजीब हो आप कोई कुछ कहता नहीं क्या ?
हँसते हुए निशांत ने कहा कि ये मेरी ज़िंदगी है मैडम! और बच्चों का इंतज़ार है मुझे.....! ठहाका लगाकर हँसने लगा दो घंटे साथ बिताने के बाद स्वाति अपने घर चली गई और सोचने लगी कितना प्यार किया है निशांत ने उसे.. न शादी की और न कभी उसे परेशान किया। सोचते हुए बड़बड़ाई कि डाँट लगायेगी उसे...।
कुछ दिनों में माँ उसके पास आई तो मिलने के लिए निशांत घर आया और पैर छूकर बैठ गया।
और माँ एक कोने से निशांत को एकटक देख रही थी.....एकदम मौन....!!
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~ चलती क्या खंडाला ~
अलका गुप्ता 'भारती'

मनीषा फूट फूट कर रोती रही उस मनहूस दिन को याद करती रही जब वह सलमान के साथ उसके प्रेम जाल में फँस कर अपने ही माँ बाप और परिवार का मुँह काला कर कीमती जेवर गहने और जितनी भी नगदी पल्ले पड़ी लेकर भाग आयी थी। तीन-चार महीने यहाँ मुंबई में मौज मस्ती में कैसे बीत गए पता ही न चला ।
मगर आज सलमान उसे यहाँ अपनी खाला का घर कह कर ..कहाँ ..छोड गया है अब.. सब समझ में आ रहा है ...वह क्या करे ..कैसे यहाँ से पीछा छुड़ाये समझ ही नहीं पा रही थी। आज उसे समझ में आ रहा था अपनी पड़ोसन काकी का कहन "बिटिया अपनी हदें पार न करना जरा भले घर की बिटियन की तरह पहिर ओढ़ के रहा करो सीधे सादे माँ बाप तुम पर कितना विश्वास कर के पढ़ा रहे हैं तो बेजा न उड़ा करो।" दरसल में सलमान के साथ कालेज के बाहर पार्क में एकांत में उन दोनों को एक साथ देख लिया था उनकी अनुभवी दृष्टि कुछ अनहोनी भाँप गई थी ..और तब ..उसने उन्हें वहीं और कुछ कहने से रोक दिया था और माँ को बहाना बना कर काकी की बातों को बकवास करार दिया था । 
इधर सलमान के प्यार में उस अंधी को अपने छोटे भाई बहनों का और माँ बाप के अरमानों का बिलकुल भी ख्याल न आया । सलमान जो ..उसे एक ब्यूटी पार्लर में मिला था जिसने उसे समझाया था कि वह मुंबई में फिल्म इंडस्ट्री के लिए काम करता है । और उस जैसी खूबसूरत लड़की के लिए भी वही जगह सबसे उचित स्थान है ..दोनों शादी कर लेंगे और वहीं दोनों काम करेंगे वह हीरोइन बनेगी और वह हीरोइन का मेकप करेगा ..मजेदार जीवन बीतेगा दोनों का। और वह फिदा हो गयी थी जब उसने उससे बड़ी अदा से पूछा था.. " ए सुन ..चलती क्या खंडाला " और वह भी कैसी मदहोशी में उसी दिशा में बहती चली गई थी । उसे अपने ऊपर और अपनी उस स्वार्थी अंधी बुद्धि पर आज घोर आश्चर्य हो रहा था ..इस अंधेरी कोठरी में कितने घण्टे सुबकते सुबकते बीत गये पता ही न चला । 
पुनः अपने आपको उसने झिड़का तूने ही तो अपने लिए यह जिंदगी चुनी है। अब यहाँ से छूटी भी तो किस मुँह से अपने घर लौटेगी ..कभी सोचा भी है.. तेरे बिना तेरे माँ बाप का क्या हाल हुआ होगा ..कैसे उन्होने सामाज का सामना किया होगा ।कहीं ..अपमान से मर ही न गए हों ...और वह तड़प उठी । इतने में दरवजा खुलने की आहट हुई और एक प्लेट खाना किसी ने सरका दिया ..और एक कड़क दार आवाज गूंजी सुन ले लड़की चुपचाप से ये खाना खा ले और अपना बाना सुधार ले ..यहाँ जो भी एक बार आ जाती है फिर जिंदा वापस बाहर नहीं जाती ..तू यहाँ अकेली नहीं है अगर जरा सा भी दिमाग है ..तो जैसा कहा जाय ..करती रह ..नहीं तो ..न तो तू मर पाएगी और न ही जिंदा ..तेरा वह हश्र होगा कि ..तड़प तड़प कर तू मौत माँगेगी वह भी तुझे नसीब न होगी ..समझी...!!! वह डपट कर चीखी और खटाक से दरवाजा बंद कर चली गई ।और वह दहशत में सनाके में आ गई और पुनः सिसक पड़ी। खाना ज्यों का त्यों पड़ा रहा वह कब सो गई उसे पता ही न चला । 
उसकी आँख अनायास ही शोर शराबे की आवाजों से खुली । वह झटके से खड़े हो कर दरवाजे पर कान लगा कर सुनने लगी ..जिससे उसे पता चला तहखाने से बाहर पुलिस की रेट पड़ी है..वह भी तेज तेज दरवाजे पर हाथ मारने लगी ..जिसकी आवाज सुन कर उसे भी आजा़द करके बाहर लाया गया ...वहाँ सलमान भी पुलिस की हथकड़ी पहने पहले से ही खड़ा हुआ था ..दरसल उस दिन से ही उसके माता पिता चैन से नहीं बैठे थे उनके प्रयासों से और पुलिस द्वारा सलमान के मिले सुरागों के जरिए यहाँ तक पहुँच गयी थी और जब सलमान पकड़ा गया तो उसका भी पता चल सका था उसने तीव्र घृणा से सलमान को एक झन्नाटेदार थप्पड़ राशिद किया । उसके सहारे बहुत सारी लड़कियों को भी मुक्ति मिली थी ..फ़िर उसे अपने शहर में लाया गया और उसके माता पिता के सुपुर्द किया गया ..वह आँख झुकाए उनके कदमों में झुक गयी ..माता पिता ने सुबकते हुए अपनी बिटिया को अपने सीने से लगा लिया और आज एक बार पुनः अपने आपको वह धन्य मान रही थी ..यदि आज माता पिता का स्नेह अपने अंजाम पर न पहुँचता तो वह जिस गर्त में गिर जाती उसका परिणाम भी सोच-सोच कर सिहर जाती है । कितना बड़ा पाप किया था उसने और कितनी खुश नसीब है वह जो माता पिता ने उसे माफ कर एक बार पुनः नव जीवन प्रदान किया है । 
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~ नई उमंग ~
मीनाक्षी कपूर मीनू

प्रीता का मन आज बहुत उदास था और वह सोच रही थी अपनी जिंदगी के बारे में कि ऐसा कैसे हो सकता है। सोचते - सोचते उसकी आंखों के आगे सब ऐसे उभर आया जैसे कल की ही बात हो। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रीता अपनी आगे की पढाई का सोच रही थी और जीवन के सुनहरे सपने बुनने लगी थी। तभी उसके मां पिता जी को एक रिश्ता इतना भाया कि उसके आगे की पढ़ाई के सपने को दरकिनार कर उसकी शादी तय कर दी। पुनीत बैंक में मैनेजर था, उनका छोटा सा परिवार था जिसमें बस माँ थी औऱ एक भाई जिसकी शादी हो चुकी थी। ना चाहते हुये भी प्रीता ने इस शादी के लिए हाँ कर दी।
बड़ी धूमधाम से शादी हुई और प्रीता भी शादी के बाद अपने घर परिवार में खो गयी। ज्यों ज्यों समय बीता, उसके पति के असली रंग धीरे धीरे सामने आने लगे । पुनीत आधुनिक होते हुए भी पुराने विचारों के निकले। यह सोचते - सोचते उसकी आंखे भर आयी ।
उस घटना को याद करते ही वह आज भी सिहर उठती है। वे एक बहुत ही करीबी रिश्तेदार के घर शादी में गए थे। प्रीता उस दिन लाल रंग की साड़ी में बहुत सुंदर लग रही थी। अचानक उसने नोटिस किया कि पुनीत बार - बार उसे घूर रहे है जैसे उसने कोई गलती कर दी हो।
रास्ते भर भी पुनीत ने कोई बात नहीं की लेकिन उसके चेहरे से लग रहा था कि वह बहुत गुस्से में हैं। घर पहुंचते ही जैसे तूफान सा आ गया । पुनीत आते ही प्रीता पर बरस पड़े। और कहने लगे कि “ तुम मेरा और रिश्तेदारों कि परवाह किया बिना कभी उसके साथ इसके साथ कभी उसके साथ ऐसे बाते कर रही थी कि जैसे वे तुम्हारे यार हों। इतना ज्यादा हंसने की और घुलने मिलने की क्या जरूरत थी उन सबसे। तुमको घर परिवार की इज्जत का भी कोई ख्याल न रहा। लोग न जाने क्या क्या बाते तुम्हारे बारे में कह रहे होंगे।“
प्रीता वह सब सुनकर स्तब्ध रह गयी। उसे उम्मीद नहीं थी कि पुनीत इतनी छोटी ख्यालात के हो सकते हैं।अब उसका व्यवहार सामने आया था लेकिन वह यह समझती थी कि शायद पुनीत उसके लिए ज्यादा फिक्रमंद रहते हैं। लेकिन उस दिन तो हद हो गई जब उसने सफाई में कुछ कहना चाहा और पुनीत ने हाथ उठा दिया। सासू माँ ने भी उसका साथ दिया। उसके बाद फिर यह रोज की बात होने लगी।
उस घटना के पश्चात अब प्रीता बस घर में ही रहने लगी। उसका मन बाहर जाने के ख्याल से ही घबरा जाता कि आ कर न जाने क्या होगा। इस बीच वह दो बच्चों की माँ भी बन गयी लेकिन’ पुनीत का विश्वास न जीत पाई । दिन कब शुरू होता और कब रात हुई उसे पता भी न चलता। जिंदगी अब इसी ढर्रे पर गुजरने लगी। मन में बस एक ही बात बार बार उसे कटोचती कि काश उसके मां बाबूजी ने उसे पढ़ने दिया होता तो आज वो इतना तिरस्कृत न महसूस करती । पति पर निर्भरता ने उसे कभी उनके खिलाफ न जाने दिया। दकियानूसी विचार इंसान की सोच को दीमक लगा देते है ।
माँ ...... तभी आवाज आई और उसकी तंद्रा भंग हो गयी । उसकी बेटी दीप्ति उसे बुला रही थी। पढ़ रही थी बिटिया, शायद उसे भूख लगी होगी सोचते हुए वह रसोई घर की तरफ बढ़ गयी। लेकिन दीप्ति का ख्याल आते ही उसने विचार किया और मन बनाया कि चाहे कुछ भी हो जाये वह अपनी बेटी के साथ वह सब न होने देगी जो उसके साथ हुआ। वह उसे खूब पढ़ाएगी औऱ जो वह चाहेगी वही करेगी चाहे इसके लिए उसे पुनीत से और घर वालों से ही टक्कर क्यों न लेनी पड़े । दृढ़ता के साथ अपने इरादे के बारे सोच कर प्रीता धीमे धीमे कदम रखते हुए अपनी बेटी की तरफ मुस्कुराती हुई बढ़ गयी और उसे गले लगा लिया एक नई सोच के साथ , नई उमंग के साथ ।
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~ वृद्धा और गांव की पगडंडी ~
मदन मोहन थपलियाल ‘शैल’
(वो अब जीना नहीं चाहती एक दास्तान – जो आज भी रहस्य है !)

उन्हें दादी कहना ही उचित होगा क्यों कि वे जीवन के नब्बे वसंत देख चुकीं। यों ही रही होंगी लगभग नौ वर्ष की जब उनकी शादी हो गई थी, शादी क्या होती है उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं था, इतना अवश्य याद है कि विदा होते वक्त वो मां ( ब्वे ) से चिपक कर बहुत रोई थी।
समय कहां ठहरता है देखते-देखते वो एक मां बन गईं और इसी दौरान पति नौकरी के लिए लाहोर चले गए, सब ठीक चल रहा था लेकिन भाग्य में सुख नहीं तो कोई क्या करे , बीस वर्ष बीत गए पति कहां चले गए कुछ भी पता नहीं चला । ले दे के इकलौती बेटी का सहारा था वह भी समय से होड़ लगा रही थी , उसके हाथ भी पीले कर दिए और अब वो अकेली ।
दादी का घर गांव के किनारे पर है जहां से एक पगडंडी गुजरती है जो गांव को अन्य स्थानों से जोड़ने का काम सदियों से करती है। दादी न विधवा है न सधवा , अतः मंगलसूत्र ( चरेउ) उसने अपने गले से कभी अलग नहीं किया । उसी को पति का प्रतीक मान कर जीवन जी रही थी । घर पर सदा से एक गाय खूंटे से बंधी रहती है । अब सारा प्यार- दुलार उसी के नाम है, दादी घंटों अपनी कहानी गाय के साथ साझा करती और बीच-बीच में उलाहना भरे शब्दों में यह कहना नहीं भूलती , ‘तू क्या समझेगी' । ईश्वर ने इसका ठेका तो मनुष्य को ही दिया है । कभी मन खिन्न होता, दादी पगडंडी में जहां तक नजर जाती एकटक कुछ खोजने का प्रयास करती । लोगों की भीड़ को गौर से देखना और हालचाल पूछना दादी के जीवन का अहम् हिस्सा था। धीरे-धीरे समय ने करवट ली गांव सड़क द्वारा शहरों से जुड़ गया अब भूले – भटके कभी कोई पगडंडी पर चलता दिखाई देता । पगडंडी में कंटीली झाड़ियों का साम्राज्य हो गया ।
पहले लोग पगडंडी को साफ रखने में खुद को गौरवान्वित समझते थे, न मेहनताना न नाम की भूख , दूर तक सब स्पष्ट दिखाई देता था और अब दिन में भी पगडंडी पर चलने में डर लगता है कहीं कोई जंगली जानवर झाड़ी से निकलकर अपना निवाला न बना दे और ऐसा कई बार हो भी चुका है। लोगों को सरकार ने आलसी और निकम्मा जो बना दिया है, हर किसी की नजर बजट पर टिकी रहती है। कोई सीधे मुंह बात तक नहीं करता।
दादी ने कभी गांव को अपने से अलग नहीं समझा, हर प्राणी दादी का अपना था। हर किसी की कुशलक्षेम पूछना दादी का प्रथम कर्त्तव्य था । लोग अब उसको लालची, विधवा और भी न जाने क्या – क्या नहीं कहते , किसी के हाथ में शगुन का दस रुपए का नोट धरते वक्त लोग मुंह फेर लेते हैं जबकि पहले एक रुपए का सिक्का देते समय लोग दादी को दानी, सबकी सुध लेने वाली कहते नहीं थकते थे।
शाम ढलने लगी, न जाने क्यों दादी को लगा कि कहीं वो आ गए तो रास्ता भटक जाएंगे ,सड़क के बारे में उन्हें पता है ही नहीं, अब तो बहुत बूढ़े हो गए होंगे, चल भी पाते होंगे कि नहीं । मैं भी — इतना सोचकर हाथ में झाड़ी काटने के लिए हंसिया ( दथड़ी) पकड़ी और चल पड़ी पगडंडी की ओर।
काफी रात हो गई , लोगों ने गाय की जोर- जोर से रंभाने की आवाज सुनी , अनहोनी की आशंका से लोग दादी के घर की ओर दौड़ पड़े , देखा गाय बाहर ही बंधी है और दादी का कहीं पता नहीं है। तरह-तरह की बातें होने लगीं, कहीं कोई जंगली जानवर !
गांव में मानवता आज भी जिंदा है, लोगों ने रातभर और अगले दिन दादी को बहुत खोजा लेकिन कुछ भी पता नहीं चल पाया । न कहीं खून, न फटे कपड़े , न कोई निशान। आखिर दादी गई तो गई कहां ? लोगों को पछतावा भी हुआ कि हमने दादी को बहुत सताया, इसीलिए दादी कभी कहती थी कि वह अब जीना नहीं चाहती।
लोगों ने उस रास्ते जाना लगभग बंद कर दिया । उस गांव के बारे में एक कथा प्रचलित हो गई कि आधी रात को कभी- कभी पगडंडी के रास्ते में लकड़ी काटने की आवाज सुनाई देती है।
गांव के युवाओं ने दादी की याद में फिर से पगडंडी का रास्ता साफ कर दादी के निमित एक छोटा सा मंदिर बना दिया इस उद्देश्य से कि दादी एक दिन लौट के आएगी ।
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~ कल्पा ~
विश्वेशर प्रसाद सिलस्वाल

बस पहाड़ियों को चीरते हुए नागिन जैसी घुमावदार सड़क पर सरपट दौड़ रही थी। कल्पा के घुंघराले बाल खिड़की से आती फर्र -फर्र ठण्डी हवा से उसके चेहरे पर हिचकोले खा रहे थे। । बाबा सुबह ही लैंसडाउन बस स्टेण्ड पर सात बजे की बस में उसे बिठा गये थे। बाबा ने अपनी तहसील की मामूली नौकरी में भी उसे एम एस सी (फिजिक्स ) करवा ही दिया। माँ तो बहुत कमजोर हो गई थी। पंद्रह साल की बाल अवस्था में शादी और सोलह साल की पूरी भी न हुई थी कि कल्पा पैदा हो गई। कितनी दर्द भरी दास्तान थी माँ की भी। तभी माँ ने सोच लिया था कि वह अपनी कल्पा को खूब पढायेगी पर बाल विवाह कभी न करेगी। 
बाबा का सपना था कि अपनी इकलोती संतान को खूब पढा लिखाकर शिक्षिका बनाकर ही दम लेंगे। लेकिन शायद ईश्वर ने कल्पा के भाग्य में कुछ और ही लिखा था ।कल्पना को उसके बाबा - माँ प्यार से कल्पा बुलाते थे । 
कल्पा देखने में बहुत ही खूबसूरत थी । घने ,काले घुंघराले बाल, बड़ी-बड़ी हिरन जैसी आंखे, रंग गौरा, संतुलित शरीर और चेहरा तो सर्दियों में सेब की तरह लाल हो जाता था।
कल्पा ऐसे सपनों में खो गई थी कि उसे पता ही नहीं चला कि डेढ़ घण्टे का सफर कैसे कट गया। ।उसे दिल्ली जाना था। दूर के रिश्ते में गोबिंद मामा ने अमेरिका में बिजिनेस कर रहे अपने साले पंकज से उसकी शादी की बात चलाई थी।वो लोग कुछ दिन के लिए ही भारत आये थे ।
गोबिंद मामा दिल्ली जंक्शन में ही उसे लेने आये थे।
- लो बेटा, आ गया किदवई नगर। बिलकुल सफदरजंग अस्पताल के पास ही है। अस्पताल का नाम तो सुना होगा । 
- जी मामा जी । अच्छी तरह। इसको कौन भूल सकता है। मेरी सहेली अल्पना, जिसको दहेज लोभियों ने जला दिया था , ने यहीं तो अपनी अंतिम सांस ली थी। बर्न डिपार्टमेंट फेमस है यहाँ का।
नाश्ता कर गोबिन्द मामा व उनकी पत्नी कल्पा को लेकर सीधे रोहणी लड़के वालों के घर पहुंच गए। कल्पा चुपचाप सबकुछ देखते -सुनती रही । लड़का पंकज देखने में उसे अच्छा ही लगा। उसी समय सबने निर्णय ले लिया कि एक हफ्ते में कोर्ट मैरिज कर दस पंद्रह दिन में कल्पाको लेकर अमेरिका वापस चले जायेंगे।
गोबिन्द ने फोन कर कल्पा के माँ-बाप को तुरंत दिल्ली बुला लिया।गोबिंद मामा ने उनको पटा ही दिया। सारे ख़र्चे पंकज के पापा ने उठाया।एक होटल में बीस लोगों की उपस्थिति में कल्पा की शादी हो गयी। कोर्ट में रजिस्ट्रेशन , पासपोर्ट आदि सारे काम पंकज के पापा ने ले देकर एक हफ्ते में पूरे करवा दिए।
एयर इंडिया की अठारह घंटे की थकानभरी फ्लाइट के बाद कल्पा ने न्यूयॉर्क शहर की चकाचोंध देखीं ,पर उसका दिल-दिमाग तो अपने खूबसूरत पहाड़,खेत , खलियान नदी को ही ढूंढ रहा था।
अपने न्यूयॉर्क के घर पहुंचते ही सब आराम फरमाने लगे।कल्पा को किचन का सामान दिखाकर, जरुरी चीजें समझाकर खाना बनाने का आदेश दे गये। किचन के साथ वाला एक छोटा सा कमरा उसे दे दिया गया।
दोपहर बाद उसकी हम उम्र अंग्रेज महिला सूटकेस लिये घर में आई । सीधे उसके पति का चुंबन लेकर उसी के कमरे में चली गई।शाम को उसके सास ससुर उसे बैठक में नज़र आये ।कल्पा ने उस महिला के बारे में पूछा तो दहेज का ताना दे उसे डाँट कर भगा दिया गया। कल्पा अपने सास-ससुर के बदले तेवर देख अचंभित हो गई।पंकज भी उससे बात नहीं करता।चौबिस घण्टे उस अंग्रेजन के साथ ही मस्त रहता।
कल्पा के रात-दिन रोते -रोते कटने लगे। जिंदा रहने के लिए कुछ निवाले जबरदस्ती मुंह में डाल लेती। न फोन की सुविधा न टीवी। घर का हर काम उसे ही करना होता। एक दिन उसने गुस्से में बोल ही दिया।
-मुझे मालूम न था कि आप इतने जल्लाद हो! तुम्हें बहू नहीं नौकरानी की जरुरत थी।
-हाँ। थी ,तो क्या। तेरे बाप ने क्या दहेज दिया ?जो हम तेरे को बहु समझे।हमने पंद्रह लाख ऐसे ही नहीं खर्चे।पंकज ने कहते हुए कल्पा के गाल पर पूरे जोर से थप्पड़ जड़ दिया।
- तो तुमने वहाँ प्यार जताकर नाटक क्यों किया?मैं शौर मचाऊंगी। पुलिस के पास जाऊंगी।
- तू नौकरानी है । तेरे सारे कागज़ हमारे पास हैं। ज्यादा बोलेगी तो चोरी का आरोप लगा जेल में बंद करवा देंगे। एक बात और अंग्रेजन हैंलिंग बारबरा मेरी बीबी है। समझी।
यह सुनकर कल्पा के पैरों के नीचे से मानो जम़ीन सरक गइ हो। उसका सिर फटने को हो रहा था। मौका मिला तो इनको अवश्य सबक सिखाऊंगी। कब रोते-रोते उसकी आँख लग गई पता ही न चला। आँख खुलि तो माँ बाबा का ख्याल आया। मैं उनके सपनों को मरने ना दूंगी। मेरे ताड़केश्वर बाबा जरुर मेरी मदद करेंगे।
छह महिने कैसे रोते बिलखते बीत गये। सूख कर कांटा हो गया था उसका शरीर।
एक दिन उनके घर एक मेहमान आया । उनकी बात सुन कल्पा को पता चला कि उनका नाम हरीश चंद्र कांडपाल है। उसने सही अंदाजा लगाया कि कांडपाल हैं तो जरुर उत्तराखण्ड से ही होंगे। 
रात को मेहमान को खाना देते समय उसने चुपके से एक कागज मोड़कर कांडपाल के जेब में डाल दिया। जिसमें उसने अपनी पूरी दास्तान लिखी थी एवं साथ ही अपने फूफा का नम्बर व पता। अंत में एक लाइन "भैजी मिते ये नरक से बचाव प्लीज" ।
महीने भर बाद एक दिन अचानक कांडपाल जी के साथ अपने फूफा को घर के प्रवेश द्वार पर देख कर वो न जाने कितनी देर तक उन दोनों से लिपटकर रोती रही।
- मिस्टर पंकज चुपचाप कल्पा का सब सामान पासपोर्ट , सर्टिफिकेट सहित बाहर ले आअो। वरना तुम जानते हो मैं पुलिस में हूँ अौर क्या कर सकता हूँ। हरीश कांडपाल जी ने पंकज को धमकाकर कहा।
उस दिन पहली बार आजाद पंछी की तरह कल्पा ने खुलि हवा में सांस ली। कांडपाल जी उन्हें अपने घर ही ले आए। भारत वापसी का पूरा प्रबंध कांडपाल जी ने अपने खर्चे पर कर दिया था लेकिन कल्पा ने वापस जाने के लिये मना कर दिया। उसने वहीं रुकने का फैसला कर मेहनत करने की ठान ली।कल्पा के फूफा जी निराश हो वापस आ गए। कांडपाल जी की मदद से पार्ट टाइम नौकरी कर कल्पा ने कुछ सालों में वहाँ उच्च शिक्षा पूरी करी ।उसकी मेहनत और लगन से खुश होकर पंकज से तलाक दिलाकर कांडपाल जी ने अपने डाक्टर बेटे से कल्पना की शादी कर दी।आज कल्पना न्यूयॉर्क के एक प्रतिष्ठित स्कूल में प्रबंध निदेशक है और अपने पति डाक्टर राघवेन्द्र व बेटे अनुज के साथ खुशी का जीवन बिता रही है। हाँ , दो साल में एक बार अपने बाबा -माँ को मिलने व ताड़केश्वर बाबा मंदिर के दर्शन करने निरंतर उत्तराखण्ड भारत आती रहती है।
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~ लाली ~
मीता चक्रवर्ती
(उनकी कहानी पीडीएफ रूप में उपलब्ध हुई है ... जिसे चित्र रूप में ही सांझा कर रहा हूँ।)









    
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~ताई जी~
सविता जोशी

हमारे जीवन मे कुछ रिश्ते ईश्वर के घर से बन कर आते है, कुछ खुद हमारे द्वारा बन जाते है। उन्ही मे से एक बहुत प्यारा रिश्ता हमारे ताऊ जी व ताई जी के परिवार से था।
छोटी थी तब हमलोग उत्तर प्रदेश के कस्बे मे रहते थे। पिताजी पुलीस मे थानेदार थे ओर ताऊजी वहाँ अस्पताल मे डाक्टर ,वहीं दोनों की दोस्ती हुईं ओर बहुत पक्की दोस्ती हो गई। पिताजी,ताऊजी को जब भी समय मिलता वह घुमने जाते तो हम बच्चे भी उनके साथ जाते थे।ताईजी कभी कभी ही आती थी क्योंकी बच्चे शहर में पढ़ते थे।ताईजी भी शान्तीनिकेतन से पढ़ी थी इसलिए बच्चों की पढ़ाई मे उनका विशैष योगदान था।उनका व्यक्तित्व बेहद सुंदर था ओर वह बेहद अनुशासन वाली ओर अंधविश्वास को बिलकुल न मानने वाली थी।
बस एक ही दुखद घटना हुई ,कि उनका एक बेटा,जो कि मैसूर मे इंजीनियरिग पढ रहा था ,उनकी अचानक मृत्यू हो गई ,लेकिन ताई जी हिम्मत नहीं हारी ,और अपने दूसरे बच्चों को आगे लेकर,व्सयत हो गई,सबको योग्य बनाकर अच्छी जगह विवाह किये और वे खुद भी बहुत शान से जीवन व्यतीत करनी लगी,दोनों बेटियों के पति आईएएस अफसर थे ,दामाद उन्हें माँ समान मानते थे।ताई जी का ज्यादा समय अपने सब बच्चों के साथ अच्छी तरह बीत रहा था,कभी जब वे मेरी सहेली यानि अपनी छोटी बेटी के पास आतीं तो मैं भी उनसे बात करती,आवाज मे वही रोबीला पन,अच्छा लगता था। मुझे उनका वह अंदाज,सुंदर कपडे,सलीके से रहना,खाने पीने मे शुद्ध चीजें उपयोग करना,देशी दवाओं की वे बहुत बडी ज्ञाता थी।
मैं बहुत समय से उन्हें मिल नहीं पाई थी ईच्छा तो बहुत थी पर ईशवर को शायद मंजूर नहीं था। इसी अगस्त को वे हम सबको छोडकर परलोक चलीं गयी,यह समाचार मेरी सहेली ने जब मुझ सुनाया तो बहुत बुरा लगा,लेकिन उससे भी बुरा यह लगा, कि आखिरी समय मे भाईसाहब जिद करके अपने घर ले गये,केवल इसलिये कि माँ को बेटी के घर मे नहीं रहना चाहिये अंतिम समय मे।
मेरी सहेली और उसके बच्चे नहीं चाहते थे कि नानी उनके घर से जायें,वे बहुत अच्छी तरह उनकी देखभाल कर रहें थे,पर कुछ न कर सके।अतिंम समय मे मे दामादों को कंधा देने से भी मना कर दिया,जिसका उनके दामाद को बहुत बुरा लगा और वे बीमार हो गये, जीवन भर माँ का सम्मान और आदर देकर भी वे इस अंधविशवास के कारण दुखी हुए।
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~ अनजाने में ~
संदीप गढ्वाली

दीवार पर लगी तस्वीर को देख कर अंजलि बोली.. काश तुम सब फ़िर एक बार साथ होते! 
मैं भी चुप था सोच रहा था क्या कहूं. बडी देर बाद मेरी पत्नी को सायद अकल आई थी। आंखों में वो पुराने दिन तैरने लगे। माँ के हाथ का खाना, पिता के साथ खेत पर जाना। तीन भाई और एक बहिन भरा पूरा परिवार। गाँव की सुन्दरता के बीच पलते बढते हम लोग। और फ़िर धीरे धीरे बडे होते। मैं बारहवी करके शहर चला आया नौकरी के लिए। ऐसे ही धीरे - धीरे मेरे भाई भी एक एक कर निकल गये। एक रोज बहिन की भी शादी हो गयी। अब घर में सिर्फ़ माँ और पिताजी। फ़िर मेरे लिये लड़की देखने का सिलसिला शुरू हो गया लडकी मिली नाम था अंजलि। शादी हुई मैं खुश था ये सोचकर की चलो माँ के साथ रहेगी पिता की सेवा करेगी। फ़िर छोटे भाईयो की भी शादी हो गयी अब वे मुझसे अधिक कमाते थे, उन्होने अपने अपने घर शहर में बना दिये। उनकी कामयाबी देखकर माँ पिताजी बहुत खुश हुये। वे अपने परिवार साथ ले गये। अब बार - बार माँ पिताजी मुझे कहने लगे देख कुछ शर्म कर, तेरे से छोटे कहाँ पहुंच गये। रिश्तेदारो ने भी कोई कसर नही छोड़ी मुझे नीचा दिखाने में। 
एक दिन मैंने अपनी पत्नी अंजलि से कहा चल मेरे साथ शहर किराये में रह लेंगे। वह बोली क्यों जब अपना घर है खुशहाल पहाड है तो हम शहर क्यों जायें। 
मैंने कहा तुम भी पढ़ी लिखी हो दोनो नौकरी करेंगे, खूब पैसा कमायेन्गे हम भी एक घर लेंगे। अंजलि बोली बूढ़े माँ बाप कहाँ जाएंगे अगर सभी चले गए तो। मैं नहीं माना। धीरे - धीरे पैसा कमाया घर भी ले लिया मगर उस दौड़ में सब कुछ छूट गया। न भाईयो से मिलना जुलना रहा न बहिन को देख पाया, न बूढे माँ बाप साथ रहे। अचानक मेरी आँखों में आँसू देखकर मेरी पत्नी बोली अब रो के क्या फ़ायदा। सब कुछ तो बिखर गया। 
तभी फोन कि घंटी बजी,मैंने अचानक फ़ोन की तरफ़ देखा मेरे छोटे भाई फ़ोन आया था। मैने हाल चाल पूछा तो वह रो रहा था मेरी तरह। हमने फ़िर मिलने पर विचार किया, गाँव गये मगर अब वो प्यार वो अपना पन नही था। सभी अपने पैसे का हिसाब करने और अपनी मजबूरी गिनने में ब्यस्त थे। माँ पिताजी हमें देखकर भीगी आंखों से मुस्कुराते हुये यही कह रहे थे जहाँ भी रहो खुश रहो। तब मुझे अहसास हुआ कि कभी - कभी तरक्की या पैसे की चाह अनजाने में ही सही मगर एक दूरी बना देती है अपनो के बीच। शहर में रहना कभी - कभी मजबूरी बन जाती है मगर सभी को ये लगता है कि सारे खुश हैं। मगर सच कुछ अलग है। हर कोई लौटना चाहता है अपने गाँव मगर मजबूर है सारा पैसा तो लग गया फ़्लैट में। किसी को बीमारी ने पकड़ लिया, किसी का गाँव में कुछ नहीं बचा। सभी मन ही मन रोते हैं मगर मजबूर है। किया क्या हमने सिर्फ़ तरक्की तो की है? जब बुरा किया नहीं, किसी को बुरा कहा नहीं तो ये रिशते में दूरियाँ क्यों? पैसा कमाया मगर किसी अपने से तो नहीं छीना, न ही किसी का हक छीना फ़िर ये दूरी क्यों? 
अंजलि बोली अत्यधिक ब्यस्तता ही इसका कारण है। रिस्तो को पैसा पद या जायदाद से नहीं बल्कि समय और प्रेम से सींचा जाता है। रिश्ते समय चाहते हैं, रिश्ते प्रेम चाहते हैं, रिश्ते एक दूसरे के साथ चलना चाहते हैं। इन्हे सिर्फ़ आपकी सोच, आपका समय और आपका प्रेम बचा सकता है। दुनियां की कोई भी दौलत ये रिश्ते खरीद नहीं सकती.. ..कुछ बातें मन मस्तिस्क में उतर जाती है जाने अनजाने में…. 
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~ शिक्षा ~
विजय लक्ष्मी भट्ट शर्मा 

मनुष्य की प्रकृति भिन्न - भिन्न होती है वो खिड़की के पास बैठी बैठी सोच रही थी और याद कर रही थी जब उसकी शादी हुई थी… उम्र में बहुत छोटी भी नहीं थी उस वक्त वो पर इतनी परिपक्व भी नहीं जो जमाने को समझ सके। अल्हड़ उम्र और परिपक्वता की उम्र के बीच हिंडोले खाती उम्र में शादी के बंधन में बंधी थी वो। सुन्दर थी या नहीं उसे पता नहीं था पर उसकी सुंदरता की परिभाषा जरूर अलग थी। मन की सुंदरता से वो व्यक्ति की सुंदरता आंकती थी। यूँ तो उसकी सहेलियाँ, रिश्तेदार कहते थे की रूप के साथ दिमाग़ भी पाया है इस लड़की ने पर उसने कभी अपने आप को इस कसौटी में नापा नहीं। उसके हिसाब से सोच सकारात्मक हो तो चेहरे से सुंदरता यूँ भी झलकती है। सबसे प्यार और सम्मान से मिलो तो वही आपकी शिक्षा का पैमाना है। 
हाँ तो बात उसकी शादी की चल रही थी। वो सोच रही थी कितनी साधारण सी शादी थी - परिवार, नाते रिश्तेदार सभी मौजूद थे, सब मिलजुल कर काम कर रहे थे। आजकल की दिखावे की ज़िंदगी से अलग बिल्कुल साधारण सा अपनत्व था उस वातावरण में। शादी की रस्में और एक आख़िरी रात अल्हड़पन की सुबह विदाई के साथ ही एक ज़िम्मेदार बहु का तमग़ा मिल जाएगा। इसी सोच में विदाई का समय भी आ गया, कुछ ही पलों में पिता का घर अब पराया हो गया था। माँ मन ही मन बेटी के सुखी जीवन की कामना कर सोच रही थी की इसे अच्छा घर संसार मिले। भोली माँ स्त्री होने पर भी अपने आप को धोखा दे रही थी की ये मेरी तरह लाचार ना हो खूब खुश रहे… माँ तो माँ है। पिता भी कम दु:खी न थे, बेटी हर पिता को प्यारी होती है और उन्होंने भी दामाद से ये कह फ़र्ज निभाया कि कभी डाँटा तक नहीं इसे बेटा, कोई गलती करे तो प्यार से समझा देना। बेटी के पिता साफ़ भी न कह पाये कि डाँटना नहीं से नाजों से पली है। वो सोच रही थी पिता लाचार, माँ दुःखी… फिर भी बेटी के सुख की कामना। क्या नियम है ये जो वो आज भी उम्र के इस पड़ाव पर समझ नहीं पाई थी…. खैर सोचने का सिलसिला आगे बढ़ा, ससुराल पहुँच गई। नये लोग नया वातावरण… पर अब यही उसका घर है ये बात उसने समझ ली थी। सारी रस्में होने लगीं धीरे धीरे… फिर शुरू हुई मुँह दिखाई की रस्म। एक - एक कर सब कुछ न कुछ दे रहे थे कुछ करीबी थे, कुछ दूर के थे। बड़ी अजीब मुहँ दिखाई थी… करीबी कोई सौ रुपए दे रहे थे, कोई बैग या फिर किसी एक ने साड़ी में लटकाने वाला छल्ला जो की सोने की पोलिश जड़ा था, दिया। और एक तो कुछ दिन बाद आये साथ में एक विदेशी साड़ी जिसका एक धुलाई में ही रंग कई रंगो में बदल गया साथ में पतिदेव के लिये ओवर साइज़ क़मीज़। पता नहीं उनपर मुँह दिखाई का इतना दवाब क्यूँ था ये वो उस समय समझ नहीं पाई थी पर बहुत कुछ भाँप गई थी। एक ही दिन में अमीरी ग़रीबी के बीच के अन्तर को समझ गई थी। .वक्त के साथ - साथ साड़ी के सुनहरी छल्ले ने भी रंग दिखाने शुरू किये और वो दिखावे के रिस्तों की तरह अपने सोने के रंग को छोड़ गिलट का निकला। उसकी मासूम बुद्धि ने सोचा की इन सबको कुछ देने की होड़ थी या दिखावा करना था या किसी का मज़ाक़ उड़ाना था। उसने किसी से कुछ कहा नहीं पर कहीं न कहीं आहत थी लेकिन गिलट की झूठी चमक से परे वो खरा सोना थी क्यूँकि माँ की बात उसे याद थी बेटा घर बनाने में वर्षों लगते हैं, खुद को तपाना पड़ता है तब रिस्तों में मज़बूती आती है। कभी कोई ऐसी बात न कर देना कि बाद में पछताना पड़े… यही सोच उसने सब भुला उन्ही रिश्तों को बांधना शुरू किया था, धीरे - धीरे सभी का दिल जीतना शुरू किया। दिल जीतने में कामयाबी भी हाँसिल की…. घर दफ़्तर सभी में तालमेल बिठा गृहस्थी की गाड़ी खींच रही थी और इस बीच दो बच्चों की माँ भी हो गई थी। वक्त के साथ - साथ आज वही रिस्ते एक - एक कर उसके अहसानो तले दबे थे, जो कल उसे गरीब साधारण समझ उसका मज़ाक़ उड़ाया करते थे। उसने सोचा मुझसे ना कहें पर मन में तो अपने किये पर पछता रहे होंगे। पिताजी कहते थे किसी को पहचानने में जल्दबाज़ी मत करो, उसे देख उसकी हैसियत मत आंको…. क्या पता किस भेष में नारायण मिल जाएँ। पर इन सबको ऐसी शिक्षा देने वाला कोई नहीं था या इन सबको अपनी बुद्धि का घमण्ड था, जो आगे की सोच नहीं पाये की हक़ीक़त तो एक दिन रंग दिखाएगी। वो सोच रही थी की अगर उस वक्त वो भी अल्पज्ञानी हो इनकी तरह व्यवहार कर देती तो ये सफर इतना लम्बा न होता, अगर चलता भी तो नफ़रतों से भरा होता या फिर अकेले गुजर रहा होता। माँ की एक सकारात्मक सीख ने आज सभी को मेरा मुरीद बना रखा था। इस लम्बे सफर से एक ही सीख मिली की शिक्षक आपके माता - पिता ही होते हैं। उनकी सीख सकारात्मक सोच, प्रेम पूर्वक व्यवहार भी दूसरों की सोच बदल, रिस्तों में मज़बूती लाता है।
अच्छी शिक्षा का बहुत महत्व है, घर बनाने या बिगाड़ने की एक मजबूत कड़ी अच्छी शिक्षा है…. चलो मन हल्का हुआ साथ ही नई सोच मिली ....कुछ कुरीतियों को दूर करना है तो शुरुआत अपने घर से करनी होगी। वो मुँह दिखाई के बहाने अपनी बहु की नुमाइश नहीं करेगी, साथ ही वो भी अपनी बेटी को रिश्तों की अहमियत, नारी के गुण घर संवारने की कला, सकारात्मक सोच, प्रेम से रहने की सीख जैसा दहेज ही दे ससुराल भेजेगी जिससे वो हमेशा खुश रहे और इस गृहस्थ रूपी सफर की थकान उससे कोसों दूर रहे। सोचते - सोचते वो सालों पीछे घूम आई थी आज पर खुश थी की आज एक बार फिर माँ - पिताजी की शिक्षा ने उसे संकल्प लेने में मदद कर उसकी सोच को मज़बूती दी कि हर स्त्री का सम्मान उसका अधिकार है जिसकी शुरुआत स्त्री को ही करनी होगी।
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~ मेरे दिल की अधूरी इच्छाएं ~
पुष्प कुमारी ‘पुष्प’
(पत्र शैली में लिखी गई एक लघुकथा)
मेरे दिल की अधूरी इच्छाएं, 
तुम्हें ढेर सारी दुआएं। 
यूं तो तुम्हारे साकार होने का इंतजार मैं उम्र भर करूंगी किंतु हर इच्छा अपने वक्त पर पूर्ण हो जाए तो उसका आनंद, उसकी खुशी दुगनी हो जाती है। आज मैं अपने इच्छित जीवनसाथी के साथ सपनों की दुनिया में जीती हूं जिसे मुझसे पल भर की दूरी भी बर्दाश्त नहीं। फिर भी मेरी कुछ ऐसी इच्छाएं हैं जिन्हें पूर्ण करने के लिए मुझे अपने इस सपनों की दुनिया से अकेले ही बाहर आना होगा और मैं यह हिम्मत शायद ही कर पाऊं। लेकिन इच्छाएं तो इच्छाएं ही होती है और मेरी इच्छा है कि एक बार मैं फिर से झारखंड के उस गांव में जाऊं जहां मेरा जन्म हुआ था। जहां की धूल मिट्टी में मैं खेलकर बड़ी हुई और जिस गांव के लोग आपस में पड़ोसी नहीं एक परिवार हुआ करते थे। 
बड़ी इच्छा है कि उस गांव के हर उस आंगन में मैं फिर से पगफेरी लगाऊं जहां हम उम्र सखियों संग खेलती मैं कभी थकती नहीं थी। सुना है हमारे लिए अक्सर अपने पेड़ के मीठे अमरुद दे जाने वाली पंडिताइन दादी अब चल - फिर नहीं पाती। कोई बता रहा था गांव भर के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने वाले सीताराम मास्टर भी अब नहीं रहे। अब कोई साइकिल की घंटी बजा डाक देने नहीं आता होगा क्योंकि पोस्टमैन चाचा तो अब पोस्टऑफिस की नौकरी से रिटायर्ड हो गए होंगे। 
फिर भी मुझे उस गांव की उन गलियों में घूमने की इच्छा है जहां अब पहले की तरह रौनक नहीं रही होगी क्योंकी गाँव के नौजवान तो नौकरी के चक्कर में शहर या महानगर में जा बसे उस गांव में अब सारे बुजुर्ग रह गए होंगे। मुझे उस गाँव में अपनी बचपन की उस सहेली के घर भी जाना है जो जाड़े की धूप में मुझे संग ले पगडंडियों से होकर खेत तक जाती थी और अधपके धान की बालियाँ नोंच मुझे भी उनकी चोटी बनाना सिखाती थी। लेकिन अब वह भी मुझे अपने उस घर के आंगन में नहीं मिलेगी क्योंकि उसका ब्याह तो तभी हो गया था जब मैं हाई स्कूल में पढ़ती थी। मेरे सामने ही उसका गौना भी हुआ था और वह विदा होने से पहले मुझसे लिपटकर खूब रोई थी। उससे मिलने मुझे उसके ससुराल भी जाना है। अचानक और भी ढेर सारी इच्छाएं सर उठाने लगी हैं। खैर पत्र में शब्दों की सीमा है इच्छाओं की नहीं अतः कम लिख रही हूं ज्यादा समझना।
तुम्हारे पूर्ण होने के इंतजार में।
अपनी अधूरी इच्छाओं संग…
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~ परिवर्तन ~
किरण श्रीवास्तव
इतना शोर कहां से आ रहा है ,श्वेता ने खिड़की खोल कर देखा तो लोग उसके घर की तरफ ही आते दिखे और नीचे से आवाजें भी आ रही थी एक अनजानी आशंका हुई जानने के लिए वह बिना कुछ सोचे सर पर दुपट्टा लिया और नीचे दौड़ी जहां कुछ लोग बाबूजी को घेर कर खड़े थे ! सासू मां छाती पीटे जा रही थी उसने आव देखा न ताव बाबूजी के पास गई उनके नाक से खून बह रहा था और वह अचेत पड़े थे वह समझ गई कि बाबूजी को ब्रेन हेमरेज हुआ है और बिना देर किए अपनी गाड़ी निकाली, उसमें लोगों की मदद से बाबूजी को लेकर तुरंत हॉस्पिटल चली गई लोग सन्न देखते रहे...! डॉक्टर ने बाबूजी को तुरंत एडमिट करने को कहा सारी प्रक्रिया पूरी होने के बाद उसने अपने चाचा जी से बात की, जो दूसरे शहर में एक डॉक्टर थे! उन्होंने वहां के डॉक्टर से बात की जिसके परिणाम स्वरूप त्वरित गति से उनका इलाज शुरू हो गया! जो भी दवा इंजेक्शन की जरूरत होती वो फौरन लेकर आती! डॉक्टर ने ब्लड प्रेशर हाई होने की वजह से ब्रेन हेमरेज ही बताया ... अब तक उसके घर से भी उसके जेठ और कुछ रिश्तेदार आ चुके थे! सब किंकर्तव्यविमूढ़ ....समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें कुछ लोग श्वेता को घूर रहे थे लेकिन उन सब की भावनाएं उसके प्रति बदल गई थी उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि जिस लड़की को वह लोग कोसते रहते थे, उसी ने आज बाबूजी की जान बचायी ... लेकिन वह इसकी वजह खुद को ही मान रही थी....!! 
सूर्य प्रताप के तीन बेटे थे अमित अजीत दो तो उनका जमा जमाया बिजनेस देखते थे उनकी दोनों बहुएं घर के कामकाज देखती थीं, और घर के भीतर ही रहती! तीसरा बेटा बहुत ही होनहार था 12वीं के बाद वह आगे की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर चला गया! इंजीनियरिंग पढ़ाई के दौरान ही उसकी मुलाकात श्वेता से हुई, कॉलेज में संगीत की एक प्रतियोगिता हुई जिसमें दोनों ने एक साथ हिस्सा लिया और विजयी हुए! दोनों बेहद अच्छा गाते थे ! मधुर संगीत के साथ ही इनके रिश्ते भी मधुर होते गए ...फिर प्यार और बात शादी तक पहुंच गई। पर सूर्य प्रताप टस से मस ना हुए। ठाकुर घराने का जो सवाल था और श्वेता उनके जाति की भी नहीं थी। अपने से नीचे कुल की लड़की उनको हरगिज बर्दाश्त नहीं थी। दो साल तक मान मनौव्वल चलता रहा इसी बीच दोनों की नौकरी भी हो गई। फिर वही हुआ जो होना चाहिए था दोनों ने शादी कर ली.....कुछ दिन बाद वह श्वेता को लेकर जब अपने घर आया तो घर में भयंकर कोहराम मच गया सूर्य प्रताप ने तो यहां तक कह दिया कि आज से मेरे दो ही बेटे हैं मां का रो रो कर बुरा हाल हो गया, दोनों जेठानियों ने भी नाक भौं सिकोड़ा..! पास पड़ोस में भी कानाफूसी होने लगी! घर के लोग जब श्वेता को भला-बुरा कहते तो सुमित को बहुत ही नागवार लगता। जब उसे लगा कि वह किसी को समझा नहीं सकता तो उसने मन ही मन निर्णय लिया कि कुछ दिन रुकने के बाद हम फिर वापस चले जाएंगे क्योंकि पिताजी मानने वाले नहीं थे। सुमित उसे लेकर अपने रूम में ऊपर चला गया श्वेता बहुत ही उदास हुई... । उस दिन वह किसी काम बस दूसरे शहर गया हुआ था की ये वाकया हो गया। 
बाबूजी को होश आते ही उनका बेटा दौड़ कर गया और डॉक्टर को बुला लाया डॉक्टर ने चेकअप किया और बोला अगर समय से अस्पताल नहीं आए होते तो बचना मुश्किल था। बाबूजी के आंखों के सामने वह सारा मंजर घूम गया जब वह तड़पकर जमीन पर गिरे थे और घर में कोई नहीं था। श्वेता ने डॉक्टर को थैंक्यू कहा, और जाने के लिए मुड़ी तभी जेठ ने पुकारा सुनो! तुझे बाबूजी बुला रहे हैं मानो वह इन्हीं शब्दों का इंतजार कर रही थी। लगभग दौड़ते हुए कदमों से बाबूजी के करीब पहुंची बाबूजी ने इशारे से करीब बैठने को कहा उनकी आंखों में प्यार साफ दिख रहा था। उसने बाबूजी के सर पर हाथ फेरा बाबूजी के आंखों के कोर से टप - टप आंसू गिरे मानो सारा द्वेष धूल गया हो....! बाबूजी की अस्पताल से छुट्टी हो गई जब श्वेता बाबूजी को लेकर घर पहुंची तब मां ने पूजा की थाल लेकर बहु का स्वागत किया। घर को बंदनवार से सजाया गया... कुछ ही दिनों में श्वेता ने सबका मन मोह लिया। पूरे बीस दिन रहने के बाद उनके वापस जाने का समय आ गया, उन्हें विदा करते समय बाबूजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया और जल्दी आने को कहा..... । 
ये तो कहानी थी पात्र हमारे हिसाब से चलतें है कहानी का सुखद अंत होता है पर आज भी जाति - पाति और ऊंच - नीच जो कि इंसान द्वारा ही बनाए गए हैं पढ़े लिखे लोग भी जब अपनी मानसिकता नहीं बदल पा रहें हैं तो समाज में बदलाव कैसे होगा? जरा सोचिए!!!
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