मतलब हार और जीत का
नैनी ग्रोवर
अंबर..चल जल्दी कर ना...
आ रहा हूँ पार्थ..कितनी हाय तौबा मचाता है...
फ़िल्म की शुरुआत निकल जायेगी...
नहीं निकलेगी, चल... अंबर ने बाइक की चाबी उठाते हुए कहा...
एक ही बाइक पर चलते हैँ ना...
अरे आते हुए आज रेस करेंगे, रात को सड़क खाली होगी, बहुत दिन हो गए...
रहने दे ये रेस वेस...
आज करते हैँ ना...
तू नहीं मानेगा, पर मुझे रेस नहीं करनी...
तू डरपोक हार से डरता है...
ये ही समझ ले...
चल अब....
दोनों अपनी अपनी बाइक स्टार्ट कर सिनेमा हाल के लिए चल दिए...
फ़िल्म देखने के बाद दोनों ने हाई वे पर बने ढाबे पर खाना खाया...
चल अब देखते हैँ कौन जल्दी घर पहुँचता है...अंबर बोला...
मैं तो आराम से चलूँगा...
तो ठीक है, मैं चला... अंबर ने बाइक को दौड़ा दिया..
पगला है...पार्थ ने सर को झटका दिया और वो भी घर की और चल दिया.. दोनों बचपन के दोस्त थे, साथ ही खेले, पढ़े, स्कूल से लेकर कॉलेज तक कभी अलग नहीं हुए थे, दोनों की दोस्ती सारा कॉलेज और वो कॉलोनी भी जानती थी, जहाँ दोनों का घर था...
कॉलोनी से कुछ ही दूर पार्थ ने रास्ते में रुक कर दो मीठे पान मम्मी पापा के लिए बनवाये और फिर चल दिया, अचानक उसकी नज़र रास्ते में सड़क पर एक तरफ साइकिल गिरी हुई साइकिल पर पड़ी, उसके पास ही एक एक आदमी सड़क पर गिरा मारे दर्द के कराह रहा था, रौशनी इतनी ना थी के वो ठीक से चेहरा देख पता, उसने बाइक रोक दी...
क्या हुआ आपको...?
जवाब में सिर्फ दर्द भरी कराह आई...
पार्थ बाइक से उतर आया...
करीब आते ही उसने देखा के ये उनकी ही कॉलोनी का चौकीदार था..
अरे ओम काका... आप... क्या हुआ...
बेटा.. एक मोटर साइकिल वाला धक्का दे गया...
ओह...अच्छा चलिए.. मैं आपको अस्पताल ले चलता हूँ...
पार्थ ने साइकिल को एक तरफ किया, और मुश्किल से ओम काका को अपने पीछे बाइक पर बिठा कर पास ही के अस्पताल में ले गया, डॉ ने बताया के चोट बहुत लगी है, दाहिना हाथ टूट गया है, सर पर भी आठ टाँके आये हैँ, ओम काका को अस्पताल में भरती करवाना पड़ा....
काका... आप आराम कीजिये, मैं सुबह आऊंगा, सबको खबर कर देता हूँ, आपके घर पर भी...
जीते रहो बेटा... तुम ना मिलते आज तो पता नहीं क्या होता...
कुछ नहीं होता काका...आप आराम कीजिये...ओम काका को कुछ पैसे पकड़ा कर वो घर लौटा ही था के अंबर का फ़ोन आ गया..
हेलो...
कहाँ रह गया था तू... एक घंटे तक तेरा इंतज़ार गली के बाहर ही करता रहा, तेरा फ़ोन भी नहीं लग रहा था...
मैं अस्पताल गया था, नेटवर्क प्रॉब्लम थी वहां...
अस्पताल... क्यों...?
पार्थ ने उसे सब बता दिया...
दूसरी तरफ खोमोशी थी...
हेलो... अंबर...
पार्थ...मुझे ये नहीं पता था के वो ओम काका थे, पर वो एक्सीडेंट मुझसे ही हुआ था, और मारे डर के मैं वहां से भाग आया...
तू... तुझसे एक्सीडेंट हुआ...?
हाँ यार... गलती हो गई...
तू इंसान है या शैतान, बजाये उस इंसान को अस्पताल ले जाने के तू उसे रास्ते पर छोड़ कर भाग आया किसी कायर की तरह..?
माफ़ करदे यार...
माफ़ी जाकर ओम काका से मांग, और उनके परिवार से, उस गरीब की क्या हालत है पता है तुझे..?
मैं सब करूँगा, सुबह होते ही अस्पताल जाऊँगा...
मेरा मन तो कर रहा है के पुलिस को खबर कर दूँ, पर क्या करूँ तू दोस्त है मेरा...
माफ़ कर दे ये प्लीज़, मैं आज के बाद कभी ऐसा नहीं करूँगा.. मैं सोच रहा था के मैं जल्दी आ कर जीत गया, पर हक़ीक़त में तो मैं इंसानियत में तुझसे कोसों पीछे रह गया यार..जीता तो तू है, भगवान का शुक्र है तू पहुंच गया वहां...अंबर रो दिया...
चुप हो जा..और अब जितनी हो सके हमें ओम काका की मदद करनी है, और कसम खा के कभी इस हार-जीत में नहीं पड़ेगा...
कान पकड़ता हूँ कभी नहीं...
ठीक है..वैसे काका अब ठीक हैँ, दाहिने हाथ में प्लास्टर लग गया होगा अब तक, टाँके तो मेरे सामने ही लग गए थे, मैं उनके घर फ़ोन कर देता हूँ, ताकि उनका बेटा अस्पताल चला जाए...
ठीक है.. थैंक्यू यार, सुबह जल्दी चलेंगे अस्पताल...
ओके.. अब जाके सो जा..!
*****
पड़ोसन
पुष्पा कुमारी "पुष्प"
"आज गर्मी बहुत है!"
अपने नए फ्लैट में सामान जमाती सरिता ने वहीं सेंटर टेबल पर रखा पानी का बोतल उठा लिया लेकिन बिसलरी की उस बोतल में घूँट पर भी पानी नहीं बचा था।
"रुको!.मैं कहीं बाहर से पानी लेकर आता हूंँ।"
यह कहते हुए राजेश उठ खड़े हुए लेकिन सरिता ने उन्हें रोका..
"बाहर बहुत तेज धूप है!"
"एक काम करो!.पड़ोसन से एक बोतल पानी मांग लो।" राजेश ने सरिता को सलाह दी।
"नहीं!.रहने दीजिए।"
"क्यों?"
"सुबह आपने देखा नहीं!.मेरे नमस्ते का जवाब भी नहीं दिया उसने।"
"कैसी बातें कर रही हो सरिता!.उसके ससुर जी ने तो हमारे नमस्ते के जवाब में नमस्कार कहा ही था।"
"हांँ!.लेकिन वह दोनों बाप-बेटे तो थोड़ी देर ठहरें भी नहीं,.तुरंत अपने काम पर चले गए!.और मैं नहीं जाती किसी का दरवाजा खुलवाकर पानी मांगने।"
यह कहते हुए सरिता वहीं पड़ा अखबार उठा उलट-पुलट करने लगी।
पति का तबादला इस नए शहर में हो जाने से अपना कस्बा छोड़कर यहां बड़े सोसायटी में रहने आई सरिता ने पहले से ही सुन रखा था कि,.बड़े शहरों में लोग ऐसे ही होते हैं। कोई किसी की खोज-खबर नहीं रखता लेकिन उसे खुद भी ऐसे पड़ोसी मिलेंगे यह उसने सपने में भी नहीं सोचा था।
"आपने आर.ओ इंस्टॉल करवाने के लिए कस्टमर केयर में फोन लगाया था ना?"
"हांँ!.फोन तो लगाया था मैंने।"
"फिर उन्होंने अभी तक किसी को भेजा क्यों नहीं?.जरा एक बार फिर से फोन लगा कर देखिए ना!"
राजेश जी अपने मोबाइल पर कस्टमर केयर का नंबर दोबारा डायल करने लगे तभी अचानक दरवाजे की घंटी बज उठी..
"लगता है आ गया!"
यह कहते हुए सरिता ने लपककर दरवाजा खोला। बगल के फ्लैट में रहने वाली वही पड़ोसन सामने खड़ी थी जिसने सुबह सरिता के नमस्ते का जवाब में बस मुस्कुरा दिया था।
अपने हाथ में थामा पानी का बोतल सरिता की ओर बढ़ाते हुए वह मुस्कुराई..
"आंटी!.अंकल!.मैंने आप दोनों का भी लंच तैयार कर दिया है।"
"नहीं,.नहीं!.रहने दीजिए बेटा!.हम खाना बाहर से मंगवा लेंगे।"
सरिता ने टालना चाहा लेकिन सरिता के मन में आकार लेता गलतफहमियों का महल अचानक भरभराकर ढह गया जब उसने सरिता का हाथ थाम बड़े अपनेपन के साथ मनुहार किया..
"चलिए ना आंटी!.पड़ोसियों को एक दूसरे के लिए इतना तो करना ही चाहिए।.है ना अंकल!"
गलतफहमियों की दीवार ढ़हते ही अपनी बेटी के उम्र की उस पड़ोसन के अपनेपन के आगे सरिता के अहम ने हार मान ली।
सरिता अपने पति राजेश की ओर देख रही थी और राजेश मुस्कुरा रहे थे मानो कह रहे हो कि,..
"आखिर ऐसे ही तो होते हैं पड़ोसी।"
*****
हार-जीत
हरीश कण्डवाल ‘मनखी’
त्रिलोक और रमेश दोनों पड़ौसी है, लेकिन दलगत राजनीति में दोनों की विचारधारा एक नदी के दो तीर है, जब भी चुनावी माहौल होता है तो दोनो पड़ौसी आपस में तर्क वितर्क करते हुए कुतर्क पर पहॅुच जाते हैं। दोनों चुनाव के समय अपने अपने प्रत्याशी के साथ चुनाव प्रचार में लग जाते हैं। नतीजन जब भी उनके समर्थित प्रत्याशी जीतते है तो वह उसे स्वयं की जीत हार समझते हैं। और हर शादी विवाह या अन्य सार्वजनिक कार्यो में दोनों ही एक दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं।
विधानसभा के चुनाव का समय आ गया, अब दोनों गॉव की दुकान में बैठकर केन्द्र से लेकर देश विदेश की राजनीति पर अपना ज्ञान उडलने लगते हैं। दोंनों अपने सोशल मीडिया यूनिविर्सटी के ज्ञान के भण्डार को प्रवक्ता बनकर एक दूसरे पर हावी हो जाते है। त्रिलोक और रमेश की यह राजनीतिक प्रतिद्वद्विता पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध थी। उनको उनके आदर्श नेता के नाम से लोग बुलाते। विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपने क्षेत्र में अपने प्रत्याशी से ज्यादा भीड़ जुटाने के लिए कोशिश स्वंय करते हैं। त्रिलोक तो ऐसे मनोयोग से कार्य कर रहा था जैसे उसकी बेटी की शादी हो रही है। ईधर रमेश छत में बैठकर मजा ले रहा था। त्रिलोक के समर्थित उम्मीदवार ने भाषण में जनता को लुभाया, और त्रिलोक के गले में फूलों की माला डालकर उसके जयकारे लगाये, त्रिलोंक नेता की तरफ कम और रमेश की तरफ ज्यादा कुटिल मुस्कान से देख रहा था।
शाम को आंगन मे त्रिलोक ने जोर जोर से बोलने लगा कि इस बार तो हमारी जीत तय है, ताकि रमेश सुन ले। रमेश उधर अपने प्रत्याशी के लिए उससे दुगनी भीड़ जुटाने के जुगाड़ में लगा हुआ था चाहे अपने जेब से लग जाय लेकिन वह त्रिलोक से ज्यादा भीड़ जुटायेगा। अगले दो दिन बाद गॉव में रमेश के प्रत्याशी की जनसभा रैली तय हो गयी, रमेश ने भी फूक झोपड़ी देख तमाशा वाला काम किया, उसको अपने प्रत्याशी की जीत नहीं बल्कि त्रिलोक को अपनी जान पहचान और अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन करना ज्यादा जरूरी प्रतीत हो रहा था।
चुनाव की तिथि तक दोनों खूब एक दूसरे पर छींटाकशी, व्यंग्य करते, और एक दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करने पर लगे रहते। शाम को त्रिलोक चुनाव प्रचार करके आया और उसकी तबियत कुछ नासाझ सी लगने लगी, उसने अपने विधायक प्रत्याशी को फोन लगाया वह मीटिंग में होने के चलते फोन नहीं उठा पाया, जब तबियत ज्यादा बिगड़ने लगी तो त्रिलोक की पत्नी सुधा रमेश के घर गयी और सारी बात बतायी। रमेश ने कहा कि उसका समर्थित उम्मीदवार आयेगा जिसके लिए वह प्रचार कर रहा है, उसकी जीत ही तो उनसे है। इतना सुनते ही रमेश्ां की पत्नि मीना ने कहा कि तुम इन राजनीति के चक्कर में अपना पडौस धर्म भूल रहे हो, काम हमने एक दूसरे का आना है, चुनाव हो जायेगें जीतने वाले एक दिन क्षेत्र में घूमने आ जायेगे हारने वाले अगले दिन से चार साल तक चेहरा तक नहीं दिखायेगें, लेकिन हमने तो हमेशा साथ ही रहना है। अपनी पत्नी मीना की बात सुनकर रमेश त्रिलोक को देखने चला गया, वहॉ त्रिलोक को माईनर अटैक पड़ा था, रमेश ने उसकी हालात देखी और अपने जानने वाले गाड़ी वाले को फोन किया ।
इतने में त्रिलोक के प्रत्याशी का फोन आया तो उसने हाल चाल जाना लेकिन आने की असमर्थता का बहाना बना दिया। कुछ देर में ही गाड़ी आ गयी और रमेश त्रिलोक के साथ अस्पताल चला गया, वहॉ डॉक्टर ने कहा कि अगर आपने देर कर दी होती तो इनकी जान जा सकती थी। उसके बाद त्रिलोक ने रमेश को धन्यवाद करते हुए कहा कि आज मेरी हार और आपकी जीत हुई है, आज उसको चुनावी रिश्ते और धर्म से ज्यादा बड़ा मानव और पड़ौस धर्म लगा। आज रिश्तों की जीत हुई थी संबंध जीत गये थे और राजनीति हार गयी थी।
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हार-जीत
डॉ नूतन गैरोला जी
हरदीप ने कल दिन में ही जूते धो कर चमकाए थे| उसकी माँ ने आठ महीने पहले मेले से सस्ते दाम में खरीदा, बड़ी यतन से संभाला ट्रेक सूट बक्से से निकाल कर, धो कर धूप में रस्सी में डाल दिया था। हरदीप को वह जूता ताऊ जी ने दिया था जो शिवांश का था| रेस के बाद यह जूता ताऊ जी को लौटाना भी होगा| हरि ने कई सालों की लगातार मेहनत से जिला स्तरीय दौड़ तो जीती थीं पर अबकी यह प्रदेश स्तरीय रेस उसके लिए बहुत अहम् है|
आज सुबह साढ़े चार बजे ही हरि के ताऊ ताई जी घर आ उसकी पीठ ठोक गए थे कि रेस के वक्त खुद पर विश्वास रखना और पूरी जान लगा देना। ताई जी डिब्बे में बंद कर पूड़ी, आलू की सब्जी ले आई थी। मां ने देवी की तस्वीर के आगे माथा टेका, दही चीनी से मुंह मीठा करा, कई बलाये ली|
हरि बिष्ट गुरु जी के साथ सुबह शहर क्रीड़ास्थल पहुंचा तो समूह -'क' की रेस में हरदीप नाम देखा। दौड़ भी शुरू होने वाली थी, उससे पहले खुद को हल्का और तरोताजा करने के लिहाज से हरि पास ही के टायलेट में गया| अभी वह पहुंचा ही था कि वहाँ एक आदमी औंधे मुंह गिरता दिखा उसके माथे से खून की फुहार फूट पड़ी और उसके मुंह से गें-गें की आवाज के साथ झाग निकलने लगा| शायद मिर्गी के झटके आ रहे थे उसे|
हरि ने खिड़की के कांच से दूर ट्रेक की ओर जाते धावक देखे| उसका मन ट्रेक पर जाने को मचलने लगा जहां उसका भविष्य और घरवालों के सपने थे पर एक अनजान उसके पैर के पास गिरा तड़प रहा था|
यह आदमी जाने किसका पिता होगा? उसके पिता भी तो ऐसे ही चल बसे थे|
कहीं वह आदमी बाथरूम में मर गया तो?
नहीं, इन्हें मरता छोड़ वह कैसे दौड़ पाएगा।
उसने तुरंत आदमी की गर्दन सीधी की और जेब से रुमाल निकाल रक्तसत्राव रोकने के लिए उसके घाव पर दबाव बनाया| शौचालय आतेजाते लोगों ने संवेदना जताई पर मदद के लिए रुका कोई नहीं | अचानक उसे बाहर एक सफाई कर्मचारी दिखी| हरि चिल्लाया – इधर आइए, इन्हें देखिए। फिर बताया किस स्थिति में वह व्यक्ति उसे मिला जबकि उसकी रेस प्रतियोगिता थी| आदमी बेहोश था पर हरि के दिमाग में विचारों रस्साकस्सी चल रही थी| इसी बीच स्त्री दो अन्य कर्मचारीयों के साथ टेम्पो बुला लाई| वे उस आदमी को अस्पताल ले गए| हरि दौड़ कर क्रीडामैदान पहुंचा तो रेस समाप्त हो चुकी थी| मैदान में पहले, दूसरे, तीसरे स्थान पर आए खिलाड़ियों को बुलाया जा रहा था। हरि ने, परेशान बिष्ट गुरु जी को आपबीती सुनाई तो वे दौड़ते हुए निर्णायक मण्डल के पास गए|
हरी अजीब उदासी और लाचारी से घिरता जा रहा था। इस हारजीत में वह कहीं भी शामिल न था| ताऊ जी डाटेंगे पर माँ तो रो ही पड़ेगी| अचानक हरि ने अपना नाम सुना| हरि भौचक्क सा सुनने लगा।
उद्घोषणा हो रही थी-
हरदीप! आप जीवन की कसौटी के सच्चे खिलाड़ी हो और मानवता तुम जैसे लोगों की वजह से बची है। हमारी नजर में आप विजेता हो| किसी की जान बचाने के लिए अपनी दौड़ छोड़ने वाले हरदीप का जिलास्तरीय रेस रीकॉर्ड भी बेहतरीन है अतः इसी रेस के समूह-ग में उन्हें प्रदर्शन का मौका दिया जाएगा|
तीनों जजों ने बारी बारी से हरि को कंधे में चढ़ा कर मैदान का चक्कर लगाया| पूरा पवेलियन और मैदान करतल ध्वनियों से गुंजायमान था| पत्रकार हरि का साक्षात्कार लेने कैमरा लिए इंतजार करते दिखे किन्तु हारजीत के विचार को दरकिनार कर हरि स्वयं को रेस के लिए केंद्रित कर दृढ़ कर रहा था|
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सपनों की जीत
प्रतिबिम्ब बडथ्वाल ( प्रोत्साहन हेतु )
"मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत।।" यह बात सच्ची है बेशक नियति अपना प्रभुत्व बनाये रखती है लेकिन मन का विश्वास, संकल्प बहुत कुछ बदल सकता है.
काया के लिए उसका २०वाँ जन्मदिन का दिन बहुत बुरा गुजरा था. उसके सारे सपनों पर जैसे किसी ने बुरी नज़र लगा दी हो. पढ़ने में तेज और बहुमुखी प्रतिभा की धनी काया को सफल पत्रकार बनने की आशा थी. और उसके लिए उसने मॉस कम्यूनिकेशन में ही अपनी पढाई करने का विचार बनाया. पिताजी एक आर्मी आफिसर हैं व माता जी एक शिक्षित व कुशल गृहणी हैं. अच्छे संस्कार उसे उन्हीं से मिले हैं. लेकिन युवा मन अपने ही साथ पढने वाले रंजन पर आ गया. बहुत सी बातों में दोनों की सोच एक सी थी. लेकिन कभी उसने प्यार का इजहार नहीं किया.
प्रार्थना एक मात्र ऐसी सहेली है काया की जिससे वह अपने मन की सभी बातें साँझा करती है लेकिन उसने रंजन के बारे में उसे भी नहीं बताया. बस इंतजार था तो ऐसे पल का जब वह रंजन को अपने मन की बात कह पाती. और अपने जन्मदिन पर उसने मन ही मन फैसला भी लिया कि आज वह रंजन से अपनी बात कह देगी. स्वयं पर उसे विश्वास भी था और आशा भी कि रंजन उसे सहर्ष स्वीकार कर लेगा.
जन्मदिन पर उसने कुछ खास दोस्तों को न्यौता दिया था. गिनती के 6 दोस्त थे उसके. तय समय पर रंजन सहित सभी दोस्त आ गए. शुभकामनाओं के साथ उसके दोस्त उपहार लेकर आये थे. काया फूले नहीं समां रही थी जन्मदिन की ख़ुशी, दोस्त उपहार के साथ साथ उसको रंजन को अपने मन कीबात भी बतानी है. यह सोच कर ही उसके पैर जमीं पर नहीं पड़ रहे थे. दोस्तों के लिए खाना लाने के लिए वह किचन मे जाकर माँ की मदद करने लगी. स्टार्टर लेकर वह हाल में पहुंची तो रंजन व प्रार्थना नज़र नहीं आये. उसने आते ही पूछा “ अरे ये दोनों कहाँ गए”
राज ने उत्तर दिया “अरे जाने दे न दोनों कब से मौका ढूंढ रहे थे बालकोनी में गए हैं तू बस ये रखते जा हम खाते रहेगे, बड़ी भूख लग रही.”
काया को अपने कानों पर विशवास नहीं हो रहा था. उसने खाना टेबल पर रखा और जल्दी से बालकोनी में चली गई. वहां रंजन और प्रार्थना एक दूजे की बाहों में बाहें डाले खड़े थे. उन्हें देखकर काया उलटे पाँव लौट आई.
उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हो रहा था. चुपचाप वो दोस्तों के बीच आकर बैठ गई. रंजन और स्वयं को लेकर उसने इतने सपने संजो लिए थे वे बिखरे नजर आने लगे. तभी सुमन ने उसे हिलाते हुए बोला “अरे तू कहाँ खो गई कोई याद आ गया क्या कौन है वो?”
काया जैसे नींद से जागी हो मन मस्तिष्क बिलकुल भी वहां नहीं थे उसे पता ही न चला दोस्त क्या बात कर रहे थे और वह स्तब्ध सी केवल मुस्करा दी.
तभी रंजन और प्रार्थना भी आ गए और आते ही कहा “गाइज, तुम सब लोगों को एक खुश खबरी देनी है हम दोनों जल्द ही शादी कर रहे है. आज यह बात हम अपने माँ पिताजी को बताने जा रहे हैं . आज हमारी सब से प्रिय सहेली काया के जन्मदिन पर हम इस निर्णय को अपने लिए शुभ मानते हैं.... सभी चिल्लाकर उन्हें बधाई देने लगे.
पार्टी तो ख़त्म हुई लेकिन काया उस रात सो नहीं पायी लेकिन अगली सुबह उसकी सुबह थी. काया ने रंजन और प्रार्थना का सच स्वीकार कर मन बना लिया कि अब वह अपनी पढ़ाई पर ध्यान देगी और एक सफल पत्रकार बन कर ही कोई प्यार या विवाह का सोचेगी. संवेदनाओ को उसने अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया.
आज ५ साल के बाद काया जब पीछे मुड कर देखती है तो उसे अपने द्वारा लिए गए फैसले पर गर्व होता है प्यार में हार कर भी उसने अपने सपनों पर जीत दर्ज की थी.
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हार जीत का व्यापार
संदीप गढवाली
बात कुछ और थी मगर लोग कुछ और समझ रहे थे ।
प्रेम और दया दो सगे भाई थे दोनो । एक दूसरे पर जान छिड़कते थे । मगर एक रोज दोनो में इतनी दूरी बढ़ी की वो कभी एक न हो सके।
हुआ यूँ कि प्रेम और दया की शादी हो गई दोनो के ससुराल वाले राजनैतिक घरानो के लोग थे । मगर दल अलग अलग थे । प्रेम और दया के पिता स्कूल से एक अध्यापक पद से रिटायर हुये थे और गाँव देहात में मास्टर जी का मान सम्मान बहुत होता है । मास्टर जी लोगों को गाँव की चौपाल में चाय की दुकान पर जहाँ समय मिलता समझाते रहते । उन्हे अपने अधिकार पहचानने को कहते ।
अब दया और प्रेम के ससुराल वाले नही चाहते थे कि लोग शिक्षित हों जानकार हों और हमारे बोट बैक विगड जाये । उन्होने अपनी अपनी बेटियों को मंहगे उपहार देने शुरू किए फिर जब बेटियों की लालची इच्छायें बढने लगीं तो लोहा गर्म देख उन्होने हथोडा मारा बेटियों से कहा तुम दामाद जी को मनाओ चुनाव लडने के लिए पैसा पोस्टर बैनर सारी ब्यवस्था हम करेंगे ।
अब उन्होने अपने पतियों को बार बार ये जताते हुए बताना सुरु किया कि इतनी सुख सुविधायें ये सभी तो हमारे पिता की दी हुई है और तुम उनका उपयोग कर भी रहे हो तो क्यों उनकी बात से इनकार करते हों ।
प्रेम और दया अपने पिताजी के पास आये और सारी कहानी सुनाई '
मास्टर जी बोले बेटा अगर ये राजनीति साफ सुथरी होगी तो चुनाव लडने में कोई हर्ज नहीं है मगर ध्यान रहे । सच्चे मार्ग पर सिर्फ मान सम्मान और दाल रोटी ही मिलती है सुख सुविधाएं नही ।
दोनो ने अपने अपने ससुराल जाकर चुनाव लडने के लिए हाँ भर दी खेल अब शुरू हुआ जब दोनो भाई एक दूसरे के बगैर खाना नही खाते थे आज उनके ससुराल वाले समझा रहे थे कि अपनी कोई भी बात एक दूसरे को नही बतानी होगी इससे तुम हार जाओगे ।
जीत दोनो भाइयों को प्यारी थी दोनो मान गये ये सोचकर की चुनाव के बाद तो फिर पहले जैसा ही हो जायेगा ।
मगर कुछ लोगों ने उनके कान भरने शुरू किये अब धीरे धीरे उनके आदर्श आचार विचार सब धूमिल होने लगे उनके मन में न दया रही न प्रेम
फिर एक दिन परिणाम आया दया जीत गया और प्रेम हार गया ।
दया के घर में ढोल नगाड़ों की थाप थी वहीं प्रेम के घर अंधेरा था । दोनो का आँगन एक था दया ने अपने समर्थको को कहा मेरा पहला काम इस आँगन का बंटवारा करके बीच में . दीवार करना है । मास्टर जी ने अगले दिन दोनो भाइयों को और उनकी पत्नियों को बुलाया और कहा मेरे बच्चों आज तुम्हे न अपने भाई की जीत की खुशी है और न ही अपने भाई के दुख में साथ देने का समय । सोचो तुमने क्या कमाया ।
जो राह जो जीत जो लोग दो सगे भाइयों के बीच में इतनी नफरत पैदा कर दे वो किसी का भला नहीं कर सकते मेरे बच्चों तुम जीते नही हो तुमने जीत खरीदी है अपने संस्कार बेचकर अपना प्रेम अपनी दया अपना फर्ज अपने रिश्ते अपना खुशहाल वक्त बेचकर ।
इसे हार कहते हैं क्योकि अब तुम्हारे पास सिवाय जीत के कुछ नही है ।
इसे कहते हैं सबकुछ हार कर जीत । इस जीत के सीमित मायने है सिर्फ तुम तक तुम हार गये बच्चों क्योंकि तुमने अपनो को खो दिया ।
*****
आश्रिता
अलका गुप्ता 'भारती'
यह केवल एक तश्वीर नहीं है । जीती जागती एक हकीकत है ।भूख और जरूरत जो न कराए वह थोड़ा है ।
वह बहने हैं जिनका जर्जर बाप मौत के मुहाने पर पड़ा है । दुर्भाग्य से दोनों ही विधवा बन पितृ आश्रिता बन पुनः पिता के पास लौट आईं थीं। लेकिन वही आज उस वृद्ध एकाकी पिता के लिए आधार और सहारा बन कर उभरी हैं ।
क्या रोना ससुरे उन बीते हुए लाचार बंजर से पलों का जहाँ वह स्वयं को सुघड़ वधुएं साबित न कर सकीं ।
ख़ुद को अबला महसूस कर जिस सहारे की ओर लपक आईं थीं उसका ही आज वह सशक्त सहारा बनी हैं। जिस पिता ने उन कन्याओं के लिए सदा अपनी किस्मत को कोसा था और स्वर्ग के द्वार अपनी जिस लाठी पर गर्व से भरोसा किया था वही पढ़ लिखकर परदेश में बस गया था । माँ के बाद वात्सल्य लुटाती इन प्रौढ़ बहनों को बोझ समझ जो अपनी ही दुनिया में खो गया था वहीं ..आज भी पितृ मोह में फंसी ममतामयी इन नारियों ने अपने इस शेष परिवार के पेट की आग बुझाने को बिन बैलों की गाड़ी के जुए अपने कांधे पर धर लिए हैं जिसे वह सम्पूर्ण हौसले से खींचती हुई नजर आ रही हैं और वह आज किसी की भी आश्रिता नहीं हैं ।
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हार जीत
आभा अजय अग्रवाल
सिक्के के दो पहलू ,सदा साथ ही रहते हैं ,इकदूजे के बिना किसी का कोई अस्तित्व नहीं पर एक दूसरे को न देखने को अभिशप्त ।
पीठ से पीठ टिकाये बैठे हैं साथ बतियाते हुए ।
सोच भी क्या है पल में कहीं भी घूम आती है ,आज अनु बहुत दिनों बाद फ़ुरसत में थी तो सागर किनारे रेती में बैठने आ गयी ।आँखे चली गयीं कहीं दूर बीते समय के पास
वो और अनय पीठ से पीठ टिकाये बैठे हैं इसी जगह पे ।आज दोनों ने सिक्का बनने की ठानी थी ।स्पर्श की अनुभूति पर बिना देखे बतियाना ।
बचपन के फुर्र होते ही पढ़ाई ,खेलकूद ,सीखना /सिखाना नैन मट्टक्का ,आवारागर्दी ,प्यार …प्यार पाने के लिये संघर्ष ,समाज उफ़्फ़ ! अफ़रातफ़री के इस दौर में बेमतलब का बतियाना क्या होता है दोनों भूल ही गये थे तो आज बिना देखे स्पर्श की अनुभूतियों संग कुछ हल्कीफुल्की बातें करेंगे यही ठानाहै !
मिलन की ख़ुशी में दोनों के शरीर फूलोंसे लदी शेफाली की डाल की भाँति प्रफुल्ल ,महमह महकते हुए और मन झरती शेफाली की मानिंद सिंदूरी उज्ज्वल ,
गुनगुनाने लगे मन तो गीतों में ढल गयी बतकहियाँ …
अनय बेसुरा हुआ तो अनु गुनगुनाई
रे मन सुर में गा
दिल जो धड़के ताल बजे रे
ताल ताल में समय चले रे
समय के संग हो जा …
अरे चुप भी करो अनु अभी तो समय को भूलभाल बस यूं ही पीठ के बल टिकी रहो भारहीन अवस्था ,,
अनु गुनगुनाई ..छुए कोई मुझे पर नज़र न आये ..
तो अनय का तड़का..
तुम बिन जीवन कैसा जीवन
फूल खिले तो दिल मुरझाये
आग लगे जब बरसे सावन .
अरे भगवन अब तो हम साथ हैं न ।मिलने के लिये किये संघर्ष
का भी अपना मज़ा है न ..
हाँ ये तो है पहली झलक पे तेरा मुंह फेर के जाना और मन ने गाया..
कच्ची कली कचनार की
हाय रे क्या समझेगी बातें प्यार की ..
हीहीही मुझे भी याद आ रहा शायद मैं गुनगुनाई थी ..
कह दो जी कह दो छुपाओ न प्यार
कभी कभी आती है झूमती बहार …
सच में क्या दिन थे ज़िंदगी के संघर्षों संग प्रीत का संघर्ष भी
बेदर्द मुहब्बत का इतना सा है अफ़साना
नज़रों से मिलीं नज़रें दिल हो गया बेगाना..
अरे सभी जिम्मदारियों को ढोते हुए भी …
मिलो न तुम तो हम घबराये
मिलो तो आँख चुराये वाली स्थिति उफ़्फ़ …
आज बिना इकदूजे को देखे हम एक वादा करते हैं ,
बोलो !
जीवन कोई भी रूप दिखाये हम अपने जीवन से संगीत न मिटने देंगे !
वाह ! यही मैं कहना चाह रहा था ।मुस्कुराहट खिल उठी चेहरों
पे जो केवल महसूस की गयी पीठ की आँखों से ।
मतलब तो एक है नैनन पुकार का ..
जो हम तुम चोरी से बंधे इक डोरी से …तो अब सारी बतकहियाँ धूप में सूखते क्लिप से बंधे कपड़ों की मानिंद जोड़े रखेंगी हमें जब हम अकेले होंगे तब भी ।
अचानक अनु उठी और अपना सारा भार उसकी पीठ पे लादे बैठा अनय धड़ाम हो गया रेती में ..
हारते -हारते जीते थे दिल की बाज़ी । आज फिर वही रेती में गिरने की आवाज़ और जीत की हार ।
नहीं हारना क्यूँ ?
पुतली की ही तो सीमा है देख पाने की पर अनुभूति ! अनुभूति तो भूत भविष्य सब देख लेती है न !
आज भी अनय मेरे साथ बैठे हैं पीठ से पीठ मिला के भारहीन ,सिक्के के दो पहलुओं की तरह ना देखने को अभिशप्त पर बतकहियाँ तो …
दिन महीने साल गुजरते जायेंगे
हम प्यार में जीते प्यार में मरते जायेंगे ,
यही हार भी यही जीत भी बाक़ी तो बीच की अठखेलियाँ ।ज़िंदगी तू भी जादूगरनी है ,संगीत है मुझको ..
ज़िंदगी प्यार का गीत है
जिसको हर दिल को गाना पड़ेगा ॥
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“आओ लिखे - ७वीं कहानी” परिणाम
कहानियों की शृंखला में "आओ लिखें - सातवीं कहानी" के अन्तर्गत "हार-जीत" विषय पर लघु कथा लिखने के लिए दी गई थी। इस प्रतियोगिता में हमें कुल आठ कहानियाँ प्राप्त हुईं।
1. नैनी ग्रोवर - मतलब हार जीत का
2. पुष्पा कुमारी पुष्प - पड़ोसन
3. हरीश कंडवाल मनखी - हार-जीत
4.डॉ नूतन गैरोला – हार जीत
5.प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल – सपनों की जीत
6.संदीप गढ़वाली – हार जीत का व्यापार
7. अलका गुप्ता भारती – आश्रिता
8. आभा अजय अग्रवाल - हार-जीत
इन कुल आठ कहानियों में से डा.नूतन गैरोला की कहानी हार जीत ने उत्कृष्ट कहानी के रूप में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। डॉ नूतन गैरोला जी को प्रथम स्थान प्राप्त कर विजयी होने के लिए बहुत बहुत बधाई व हार्दिक शुभकामनाएँ।
सम्मिलित कहानियों की समीक्षा
1. डॉ.नूतन गैरोला की कहानी....."हार-जीत".....! डा.नूतन गैरोला ने अपनी कहानी 'हार-जीत' में किसी असहाय की सहायता करने को किसी भी प्रतियोगिता या पारितोषिक से ऊपर माना है।उनकी दृष्टि में मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं।हुआ भी कुछ ऐसा ही...हरदीप जिला स्तरीय रेस का विजेता रहा है,आज उसे प्रादेशिक स्तर पर दौड़ना है,इस रेस को जीतने के लिए उसने अथक परिश्रम किया है।परिवार में सभी की नज़रें उस उपर टिकी हैं।क्रीड़ास्थल पहुँचकर रेस शुरू होने से पहले वह तरोताजा होने के लिए शौचालय की ओर गया ही था कि वहाँ एक आदमी को औँंधे मुँह गिरा पाया,उसके माथे से खून बह रहा था।उस घायल व्यक्ति को मरने के लिए छोड़कर हरदीप का मन दौड़ के लिए ट्रैक पर जाने को तैयार नहीं हुआ ..उसे अपने मृत पिता का ख्याल हो आया।ये सोचकर कि ये भी किसी का पिता होगा,तुरन्त ही उसने किसी तरह कोशिश कर उस व्यक्ति को अस्पताल पहुँचाया।जब क्रीड़ास्थल पहुँचा तो रेस समाप्त हो चुकी थी,विजेताओं का नाम बुलाया जा रहा था।हरदीप का देरी से पहुँचने का कारण जानते ही उसके गुरु जी ने तुरन्त निर्णायक मण्डल को सच्चाई से अवगत करवाया।तभी उसने सुना कि 'हरदीप आप जीवन की कसौटी के सच्चे खिलाड़ी हो।मानवता आप जैसे लोगों से ही बची है।फलस्वरूप 'उसे अगले समूह में दौड़ने का अवसर मिला।जजों ने उसका सम्मान किया ।तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा पवेलियन गूँज रहा था।......यह थी उसकी सच्ची जीत,मानवता की जीत।.....निःस्वार्थ भाव से किसी असहाय की सहायता करना ही सच्ची मानवता है।इंसानियत का सन्देश देती सुन्दर भावपूर्ण कहानी। उत्कृष्ट कहानी के लिए बहुत बहुत बधाई डा. नूतन गैरोला जी.... हार्दिक शुभकामनाएँ।
2. पुष्पा कुमारी की कहानी...."पड़ोसन"! 'पड़ोसन' के माध्यम से पुष्पा जी ने बहुत महत्वपूर्ण संदेश दिया है कि बिना सोचे समझे किसी के प्रति भी अपने मन में कोई ग़लत धारणा नहीं बना लेनी चाहिए।कुछ ऐसा ही तो हुआ था सरिता के साथ भी।कस्बे से शहर में आए थे वो।सोसायटी में घर लिया।समान लगाते हुए पति-पत्नी दोनों ही थक चुके थे।सरिता को पड़ोसन से पानी माँगना उचित नहीं लग रहा था क्योंकि उसने सुन रखा था कि शहर के लोगों में अपनापन नहीं होता।इसीलिए तो पड़ोसन ने उसकी नमस्ते का जवाब नहीं दिया था।मन ही मन ये उहापोह चल रही थी कि दरवाज़े की घंटी बजी, बगल वाली पड़ोसन स्वयं ही पानी की बोतल ले आई थी और यही नहीं वह तो इन दोनों को खाना खाने के लिए साथ चलने का आग्रह भी कर रही थी।सरिता के मन में बना ग़लतफ़हमियों का महल अचानक भरभराकर ढह गया।उसका अहम् टूट गया था। उसकी सोच बिल्कुल ग़लत साबित हुई।पुष्पा जी ने लघु कथा के ज़रिए हमें आगाह किया है कि इधर-उधर से सुनी-सुनाई बातों को सच मानकर अपने मन में कोई ग़लतफ़हमी की धारणा नहीं बना लेनी चाहिए।।बहुत शुभकामनाएँ पुष्पा जी।
3. नैनी ग्रोवर की कहानी...."मतलब हार और जीत का"..! नैनी जी की कहानी "मतलब हार और जीत का" हमें संदेश देती है कि किसी भी कार्य में जल्दबाजी अच्छी नहीं होती।दो मित्र पार्थ और अम्बर सिनेमा देख कर निकलते हैं ...अम्बर पार्थ की आराम से चलने की सलाह न मानते हुए अपनी बाइक दौड़ाते हुए घर की निकल जाता है,सामान्य गति से चलते हुए पार्थ को रास्ते में अपने ही मोहल्ले के चौकीदार ओम काका घायल अवस्था में सड़क पर कराहते हुए पड़े मिलते हैं।कोमल हृदय पार्थ उन्हें उठाकर अस्पताल पहुँचाता है।इधर अम्बर पार्थ के देरी से घर पहुँचने का कारण जानने पर यह सोचकर बहुत ग्लानि और दुःख से भर जाता है कि वह बाइक से ओम काका को टक्कर मार कर उनकी मदद करने की अपेक्षा उसी अवस्था में सड़क पर छोड़कर भाग गया था।वह पार्थ से अपने इस कृत्य की क्षमा माँगते हुए भविष्य में किसी भी हार-जीत की रेस में न पड़ने का वायदा भी करता है।अम्बर बाईक की रेस में भले ही जीत गया हो लेकिन वह इंसानियत की रेस में हार गया था।सुन्दर संदेश नैनी जी ...शुभकामनाएँ !
4. हरीश कण्डवाल मनखी जी की कहानी...."हार-जीत"! हरीश कण्डवाल जी ने 'हार-जीत' कहानी के अन्तर्गत दो पड़ोसियों के माध्यम से यह समझाने की कोशिश की है कि किसी भी संकट के समय सबसे पहले पास में रहने वाला पड़ोसी ही काम आता है,मित्र या रिश्तेदार तो बाद में आते हैं।जैसा कि रमेश और त्रिलोक के साथ घटित हुआ।दोनों पड़ोसी हैं किन्तु राजनीति में दोनों भिन्न -भिन्न पार्टियों में विश्वास रखते हैं और उनके प्रति समर्पित भी हैं।चुनाव के समय अपने अपने दल का प्रचार करते हुए परस्पर कटुता पर भी उतर आते हैं।इसी प्रचार के माहौल में व्यस्तएक शाम त्रिलोक की तबियत खराब हुई तो उसकी पत्नी ने रमेश से मदद की गुहार की, आनाकानी करने पर उसकी स्वयं की पत्नी ने भी कहा कि हमें हमेशा साथ रहना है।चुनाव जीतने पर तो कोई यहाँ दिखाई भी नहीं देगा।दुःख-तकलीफ में हम ही एक दूसरे के काम आएँगे।यह सुन रमेश त्रिलोक को अस्पताल ले गया। उसे माइनर अटैक आया था, देरी होने से उसकी जान भी जा सकती थी।आज उसने पड़ोसी की जान बचाई थी। आखिर दोनों को समझ आ गया कि चुनावी रिश्तों से बढ़कर है पड़ोसी धर्म।सत्य है... मानव धर्म ही सर्वोपरि है।सुन्दर संदेश हरीश कण्डवाल जी, शुभकामनाएँ !
5. प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल जी की कहानी....."सपनों की जीत"..! अपनी कहानी 'सपनों की जीत' में प्रिय प्रतिबिम्ब जी ने दर्शाया है कि अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए यदि मन को दृढ़ कर कोई निश्चय कर लिया जाए तो कोई बाहरी शक्ति उसे पथ से डिगा नहीं सकती।कहानी की एक पात्र.. काया विद्यालय में पत्रकारिता की पढ़ाई करने के दौरान अपने समूह के ही एक लड़के रंजन को मन ही मन पसंद करने लगी थी। दोनों के विचार भी मिलते थे।वह तो उसके साथ जीवन गु़जारने के सपने भी देख रही थी।मौका पाकर रंजन को अपने मन की बात बताएगी,यह सोचकर अपने जन्मदिन की पार्टी पर उसने कुछ मित्रों को बुलाया जिनमें रंजन और उसकी खास सहेली प्रार्थना भी थे,जिन्होंने आज सबके सामने अपने प्रेम का इज़हारकरके शादी का ऐलान कर दिया था।काया के सपने जैसे धराशायी हो गए थे।लेकिन शीघ्र ही मन को मजबूत कर उसने इस सच को स्वीकार कर लिया तथा यह भी कि अब सफल पत्रकार बनकर ही भविष्य के बारे में कोई निर्णय लेगी।अब पाँच साल बाद भी उसे अपने फैसले पर गर्व है ...उसने हार कर भी अपने सपने को सच कर दिखाया था।सच है प्रतिबिम्ब जी...मन के हारे हार है,मन के जीते जीत !!...साधुवाद... शुभकामनाएँ!!
6. संदीप गढ़वाली जी की कहानी ...."हार जीत का व्यापार"...! संदीप गढ़वाली जी ने अपनी कहानी "हार जीत का व्यापार' में यह समझाने का प्रयास किया कि जो जीत दो व्यक्तियों के बीच फूट पैदा कर दे,उनके मनों में मैल भर दे ,ऐसी जीत जीत नहीं बल्कि हार है।कहानी के मुख्य पात्र, दो सगे भाई दया और प्रेम, जो एक दूसरे के बिना रह नहीं पाते थे...दोनों के बीच अथाह प्रेम था।एक समय राजनीति के अखाड़े में उतर कर अलग-अलग दलों से चुनाव लड़ते हैं।लोगों से मिली कूटनीति की सीख पर एक दूसरे से हर बात छुपाने लगे। एक भाई ने जीत हासिल की ,दूसरा हार गया।एक के यहाँ जीत का उत्सव तो दूसरे के यहाँ हार का मातम।जो एक दूसरे के बिना रह नहीं पाते थे , वे अब एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते। तो ये कैसी जीत थी....वो तो उन्हें अपने कर्तव्य, संस्कार,प्रेम,त्याग,रिश्ते-नाते और खुशियाँ बेचकर मिली थी।जिस राह पर चलकर जीत ने उनके दिलों में नफरत भर दी वो सफलता कैसी? निश्चय ही ये तो हार थी, दोनों भाइयों की हार।सच है...अपनों को खोकर खुशियाँ नहीं ख़रीदी जातीं।शीर्षक को सार्थक करती कहानी है संदीप जी.... शुभकामनाएँ!
7. अलका गुप्ता 'भारती' की कहानी...."आश्रिता "...! अलका जी की कहानी ..'आश्रिता' भूख और जरूरतों से जूझते एक परिवार का कटु सत्य है ।दो बहनें दुर्भाग्य से विधवा होकर असहाय सी, पिता के आश्रय में रहने चली आईं।पिता ने जिस बेटे को बुढ़ापे की लाठी समझा।बेटियों से बढ़कर माना। बहनों ने जिस भाई को मातृ तुल्य ममता दी,वही इन्हें बोझ समझकर सारी जिम्मेदारियों से पल्ला छुड़ाकर विदेश में बस गया।वही असहाय बेटियाँ पिता का सहारा बनीं और आज यथाशक्ति परिश्रम कर परिवार की गाड़ी खींच रही हैं। आज वे किसी की आश्रिता नहीं हैं बल्कि वही बेटियाँ पिता की लाठी बनी हैं।संवेदनशील कहानी है अलका जी... शुभकामनाएँ।
8. आभा अजय अग्रवाल जी की कहानी..... "हार जीत"....!! फुरसत के पलों में सागर किनारे बैठी अनु का मन कहीं दूर पीछे, बहुत पीछे भटकने लगा...बचपन की अठखेलियाँ,किशोरावस्था की चंचलता,युवावस्था का आकर्षण फिर अनय का प्रेम सब जीवंत होकर आँखों में तैर रहा था।साथ गुज़रे वो पल एक एक कर चलचित्र की तरह आँखों के सामने चल रहे थे।आज अनय साथ नहीं हैं पर सदा साथ हैं..उन्हीं के साथ से ज़िन्दगी चल रही है।पति-पत्नी एक गाड़ी के दो पहिए हैं।वे प्रत्यक्ष में साथ हों न हों....फिर भी हरदम साथ रहते हैं। सत्य ही है सिक्के के दो पहलू ,सदा साथ ही रहते हैं ,इकदूजे के बिना किसी का कोई अस्तित्व नहीं पर एक दूसरे को न देखने को अभिशप्त हैं। जिंदगी है...बीती यादों का रेला।हार्दिक शुभकामनाएँ आभा जी।
सभी प्रतिभागियों ने स्वरचित कहानियों द्वारा,दिए गए विषय 'हार जीत' को सार्थक किया । अंत में 'आओ लिखें कहानी' समूह के सदस्यों से मेरा आग्रह है कि वे आगे आएँ...अपने अनुभव एवं विचारों को कहानी का रूप देकर साझा करें।
धन्यवाद!
शुभकामनाओं सहित,
प्रभा मित्तल दिल्ली