Sunday, June 12, 2016

दूसरी कहानी - आओ लिखे कहानी समूह पर [ प्रेम - विषय ]




प्रेम हमारे जीवन का अभिन्न अंग है. हर रिश्ते में इसका प्रभाव पड़ता है. इस बार की कहानी आप को इस विषय के इर्द गिर्द बुननी है. लेकिन कृपया निम्न्लिखित तीन बाते उसका हिस्सा होना आवश्यक है. शब्द सीमा ३,५०० है.
1. नकारात्मक भाव लिए हुए सकारत्मक स्थिति पर समाप्त करना है. 
2. आप किन्ही दो लोगो की कहानी लिखेंगे किसी भी रिश्ते में - सत्य या काल्पनिक [ कहानी पहले प्रकाशित न हो]
3. कहानी में आपके भावों से मेल खाती अपनी या किसी भी शायर की शायरी एक या दो जगह या फिर कोई कविता की दो - चार पंक्तियाँ शामिल अवश्य करे.

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 

~मी टू~
पार्थ कई दिनों से किसी उधेड़बुन में था. जिस खुशी को उसके चेहरे में अक्सर देखा जाता था वो कहीं गुम थी. उसकी कई हरकते उसके पार्थ न होने की नुमाइश कर रही थी. कई तरह से खुद को मित्रो के समक्ष प्रस्तुत करने वाला पार्थ आज अपनी पहचान खोने लगा था. स्वयं में रहकर खुद से बात करने लगा था. खुद को ढूंढ रहा था या किसी और को, यह उसके हाव- भाव से जाहिर नही हो रहा था. लेकिन खुद की सच्चाई पार्थ से छुपी भी कहाँ थी.
आज पार्थ ने गहरी नीली ती शर्ट और ब्लैक जींस पहनी है. मौसम कुछ सुहाना सा है लेकिन उसका अकेलापन उसे अंदर से तोड़ रहा है. एक कप चाय बना कर पार्थ खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया. एक चुस्की के साथ उसने आसमान की और देखा. काले बादल शायद बरसने को थे. उसे बारिश के अनुमान से ही कुछ याद आया और कुछ बुदबुदाने लगा ”अचानक क्यों तुमने अविरल नदी की तरह बहने की ठान ली. समय गतिमान है इसमें कोई शक नही. स्थिति परिस्थिति का प्रभाव हर रिश्ते पर पड़ता है लेकिन उसकी बलि चढ़ाना कहाँ तक जायज है” यह कहते ही कुछ सवाल और उनकी वजह न जाने क्यों उसके मन में सवाल खड़े करनी लगी है और सवालों के साथ समय पटल की सारी स्मृतियाँ न जाने क्यों दिलो दिमाग में छाने लगी. न चाहते हुए भी उसने चाय की एक चुस्की ली और सोचने लगा...
एक दर्द उसके साथ आने का बहाना भर बना था. प्रेम पर मैं नफरत का टैग लगा चुका था. नही चाहता था इश्क के बाज़ार में खुद की बोली लगाना. उस वक्त मैं जिन्दगी के दो राहे पर खड़ा था. उसका साथ होना भा सा गया उस वक्त. सिलसिला यूं चला कि एक दूसरे को जानने लगे पहचानने लगे. हमारी हर छोटी बात हमें जोड़ती गई, नजदीक लाती रही. हम तब इतना घुल मिल गए थे कि एक दूजे के साथ सहज लगते भी थे और सहज होना भी चाहते थे. सहजता लगाव में कब बदली कहना मुश्किल. नहीं, वक्त का तो पता है लेकिन मन समझ नही पाया कि कब और कैसे.
यह सब सोचते हुए प्रज्ञा का चेहरा उसके आँखों में तैरने लगा. वैसे भी अक्सर वो प्रज्ञा से ऐसे भी मिलता था. प्यार का यही तो रंग है कि सामने न होकर भी उसे अपने एहसासों में समेट प्यार को प्यार किया जा सकता है. उसे लगा कि प्रज्ञा उसके सामने है, उसकी मनपसंद सुनहरे बार्डर वाली काली साड़ी पहनकर. पार्थ ने प्रज्ञा को महसूस कर अपनी बात आगे कहने शुरू की मानो वो सामने खड़ी हो. हाँ पार्थ के चेहरे में भाव हल्का गुस्से सा उभरने लगा था लेकिन अंदाज प्यार भरा ही था. और जैसे उसने प्रज्ञा के कंधो पर हाथ रखते हुए कहा “ हाँ तुमसे ही कह रहा हूँ जान. क्या कहा? तुम्हें मेरी बाते कहानी लग रही है?
हाँ अब तो ये कहानी ही लगती है क्योंकि तब मुझसे प्यार एक वजह थी. वही वजूद था वही संसार. प्यार ने तब हम दोनों के बीच की हर उस रेखा को मिटा दिया था जो हमारे वजूद को अलग करती थी. प्रेम और समर्पण की अनूठी मिसाल बन मेरे जीवन में अवतरित हुई थी जान तुम. एक दूसरे के जीवन के वर्तमान को अपनाये हुए अपने हिस्से की जिम्मेदारियों को बखूबी निभाते हुए एक दूजे को अपनाने का साहस और प्रेम में कुर्बान सा होने का हौसला लिए. इन चंद अल्फ़ाज " क्या तुम मेरे साथ चलना पसंद करोगी" ने जीवन के तमाम रंगों को इन्द्रधनुष बनाकर जैसे मेरी झोली में डाल दिया था तब. एक नन्ही सी जान बनकर ही प्रवेश किया था तुमने, बेल की भांति अपना अस्तित्व उस डाल पर फैला दिया जिसने दोनों बाहे फैलाकर अपने से लगाया था. तब तुम मेरे हर हालात से वाकिफ़ थी और आज भी मेरे दिल, मेरी स्थिति से अच्छा खासा परिचय है तुम्हारा. मुझे भी तुम्हारे जीवन के अधिकांश पहुलुओं की जानकारी है. तुम्हारे भावो से, ख्यालातो से दिल और दिमाग दोनों को उसका आभास भी है और साथ भी हूँ हर स्थिति परिस्थिति में. इतना विश्वास तो तुम्हे मुझ पर आज भी होगा. मैं अब साथ तो तुम्हे देखता हूँ लेकिन न जाने क्यों दूरियां भावो की, एहसासों की, मुझे किसी गहरे कुएं में धकेल देती है. प्यार की एक वजह होती है, लेकिन दूसरो के प्रभाव से प्रेम की फितरत को ही बेवजह बना देना, ये प्रेम में मोड़ कैसा है? उनमे खोकर कहीं बनाये रिश्ते भी तुम्हारे लिए बेवजह न हो जाए.... वजह कहीं और तलाशने की जरूरत भी कहाँ है. हाँ जान प्रश्न कर रहा हूँ तुमसे. ये कहानी नही कोई, ये तो आज हालात ऐसे बन गए है कि मेरे पास प्रश्नों के सिवाय बचा क्या है?
सवालों को करते हुए कुछ आवेश में नज़र आया था पार्थ. लेकिन जैसे ही बारिश की कुछ बूंदे उस पर गिरी उसे एहसास हुआ कि वह तो अकेले है और प्रज्ञा...... वह मोहब्बत के अपने इस सफ़र में अपनी कमियों को तलाशने लगा. यादो के बहते सैलाब में कोई तिनका सहारे का ढूँढने लगा. उसे लगा कि काश प्रज्ञा सामने होती तो बिना किसी गलती के भी खुद को दोषी मान माफ़ी मांग लेता उससे. अगर गलती की भी है तो प्यार में इतना हक़ बनता है न उसका कि वो मुझ पर गुस्सा कर लड़ाई कर मुझे फिर से गले लगा ले. इस दूरी के लिए कारण कोई भी दे प्रज्ञा लेकिन अगर उसने मुझसे प्यार किया है तो उसे मेरा ख्याल क्यों नही आता, मेरा दर्द, मेरी बैचेनी क्यों नही समझती. क्यों लौट कर वही प्यार मुझे नहीं सौपती. आखिर चाहा क्या है मैंने उससे, रोज पल भर का साथ, प्यार से भीगे एहसास.....
पार्थ गुस्सा तो प्रज्ञा पर था लेकिन उसके गुस्से की बढ़ती ज्वाला उसे खुद ही चोट पहुंचा रही थी.
बारिश थोड़ी थमी और पार्थ ने ठंडी हुई चाय को एक झटके में ही पी लिया और फिर बाहर एक टक देखने लगा. तभी उसे एक हाथ अपने कंधे पर सहलाते हुए महसूस हुआ. उसने पलट कर देखा तो प्रज्ञा उसी चिर परिचित मुस्कान लिए उसे देख रही थी. उसे अपनी आँखों पर विश्वास नही हो रहा था. उसने दो बार आँखों को झपकाया अब उसे प्रज्ञा के वहां होने का यकीन आया. और प्रज्ञा की आंखे शायद पार्थ के मन में उठ रहे सवालों का जबाब देना चाह रही थी. पार्थ उसे देखकर खुश भी था और अचम्भित भी.
पार्थ ने स्वयं को संतुलित किया और कहा, “ अरे प्रज्ञा तुम, कब आई, मेसेज किया होता, फोन तो किया होता." प्रज्ञा तपाक से बोली " अच्छा इतनी शिद्दत से याद कर रहे थे और कह रहे हो मेसेज, फोन तो किया होता. बहुत हिचकियाँ लग रही थी मुझे और लगा इतनी बुरी तरह तो तुम ही याद कर सकते हो. यार, मै अब भी वही प्रज्ञा हूँ जिस से तुम सवाल कर रहे हो" पार्थ झेंप गया और बोला "कहाँ.. अरे नही मैं... ऐसा वैसा कुछ नही ....." पार्थ की ज़बान साथ नही दे रही थी. आखिर जिस को सोच रहा था, उसके आने कि कोई उम्मीद न हो और वह सामने आ जाये तो...
प्रज्ञा ने झट से कहा "ज्यादा बनो मत अब, पार्थ को और उसकी परेशानी को जानती नही क्या मैं? मैं जानती हूँ अपने पार्थ को, अपने जानू को, उसकी सारी दुनिया अपनी प्रज्ञा के इर्द गिर्द ही घूमती है. प्रज्ञा से प्रज्ञा तक.”
पार्थ सोचने लगा शायद मेरी लिखी कविताओ को पढ़कर जरुर महसूस किया होगा प्रज्ञा ने, मेरे दर्द को या जब कभी बात हुई तो मेरी नाराजी और औपचारिकता भरे लहजे ने उसे महसूस कराया होगा मेरे मन कि स्थिति को. शायद वजह भी प्रज्ञा की यहाँ आने की यही रही होगी. पार्थ ये सोच ही रहा था कि प्रज्ञा ने चुटकी बजाते हुए उसका ध्यान अपनी ओर खींचा और कहने लगी. " तुम्हारा चेहरा, दिल और आँखे सब साफ़ साफ़ शिकायत कर रही है मुझसे. हाँ सवाल अधिक है शायद. हो भी क्यों न? जानती हूँ कुछ समय से तुम्हारी प्रज्ञा नही बन पाई जिसकी तुम पहचान सी बन गए हो. सच है कुछ हालात ने मन को अवसाद से घेरा हुआ था और चाह कर भी तुम्हारे करीब आ न पाई. पर सच कहूँ जानू भूल कैसे सकती तुम्हे, बस मन कुछ इस तरह बिखरा सा था और बटोर रही थी खुद को और देखो आज चली आई तुम्हारे पास".
पार्थ उसे एक टक देखने लगा, सुन तो रहा था पर उसका ध्यान उसकी मुस्कराहट को समझने की कोशिश करने लगा, उन लम्हों के बारे में सोचने लगा जो उसे उसकी प्रज्ञा से दूर ले गए थे. तभी प्रज्ञा ने एक बार फिर चुटकी बजाई पार्थ की आँखों के सामने और बोली “जानू अब देखते रहोगे या अपनी प्रज्ञा को गले भी लगाओगे और अपना अंदाज भूले तो नही न? या कोई और ढूंढ ली जिसके सपनो में खोये हो? येसा है तो कह दो अभी. क्या मुझसे भी अच्छी है वो क्या? लेकिन किसी चुड़ैल का साया नही पड़ने दूंगी अपने जानू पर”
पार्थ ने प्रज्ञा के होंठो पर अंगुली रखते हुए कहा " एक लफ्ज़ और नही ! क्या तुम अपने जानू को जानती नही या कुछ दिन दूर रहकर, करीबी मित्रो से घुल मिलकर तुमने मुझे भूलना या भुलाना सीख लिया. तुमसे अलग कुछ भी नही मेरे लिए. सोच तुम तक ले जाती है और ठहर जाती है. आज जिन ख्यालों में हूँ या आशंका के जिस भंवर में उलझा हूँ वो हमारे उस एहसास के कारण ही है. अगर तुम पर शंका की है या सवाल कोई किया है तो उसका कारण भी यही है तुम्हे दिलो जान से प्यार करता हूँ. लेकिन मेरी अपनी प्रज्ञा कहीं खो गई है. तुम्हे भी कहा कई बार कि मेरी प्रज्ञा को मुझे वापिस कर दो. मेरी चाहत को जैसे किसी की नज़र लग गई है”.
प्रज्ञा ने उसे रोका और कहा " पार्थ! देखो इन आँखों में और फिर कहो क्या तुम्हे अब भी शंका है, प्यार करते हो तो शक को कैसे तुमने अपनी प्रज्ञा से जोड़ लिया? विश्वास हमारी अमानत थी, है और रहेगी. तुम्हे अपना माना है, समर्पित किया है तुम्हे अपना तन मन. तुम्हारे संग पूर्णता का एहसास लिए जीती हूँ. हाँ कह नही पाई, कुछ मन ठीक न था और समय को दोष देकर बच नही रही, मैं स्वयं भी महसूस करती थी वो दूरी. लेकिन प्यार तुम्हारे लिए न कम हुआ है न दूर. तुम्हे तो मैंने वो स्थान दिया जो स्त्री अपने पति के साथ जीती है फिर मेरे लिए तुम्हारे मन में ये अविश्वास कैसा जानू?” फिर प्रज्ञा ने कुछ मस्ती भरे अंदाज में कहा “ हे ! पार्थ! उठो और अब अपनी जान प्रज्ञा को उसका जानू बन कर दिखाओ”
पार्थ का मन हुआ कि प्रज्ञा को बाहों में भर कर उसे अब कुछ न कहने दे लेकिन मन में उठे शेष सवालों को पूछ लेना चाहता था एक बार. लेकिन प्रज्ञा की आँखे उसे कुछ इस तरह देख रही थी मानो वो कह रही हो “हां मेरे जानू गलती हुई लेकिन अब सवाल क्यों जब मैं तुम्हारे सामने हूँ साथ हूँ तो फिर बीती बाते क्यों प्रश्न बनाकर मेरे सामने खड़ा कर रहे हो? पार्थ भी खो गया उसकी आँखों में और मन ही मन कहने लगा “हाँ जानता हूँ अपनी प्रज्ञा को अच्छे से, उसे जिन बातो का उत्तर नही देना होता वो नही देती, जो कहना चाहती वो कहती... जिद्दी नम्बर एक है... लेकिन प्यार में भी नम्बर वन ही मेरी प्रज्ञा....तभी तो मैं उसे किसी पल अपने से दूर नही देखना चाहता. उसकी निजी जिन्दगी पर मेरा न हक है, न बनता है. पर उसके प्यार पर मेरा पूरा हक़ है. यही तो दिया और पाया है हम दोनों ने”
इससे पहले पार्थ उसकी आँखों में उतरे हुए भाव में खुद को बह जाने देता, उसने पूछ ही लिया प्रज्ञा से “जान जब प्यार था, प्यार है तब क्यों इस एहसास से दूरी, क्यों अपने जानू को यूं टूट जाने दिया, उसके दर्द को क्यों दिन प्रतिदिन बढ़ जाने दिया? क्यों जानू की बात को नज़रंदाज कर उस खाई को बढ़ने दिया जिसमे वह गिरता जा रहा था? क्यों प्यार का जबाब नही दिया और उसके प्रश्न को अपनी मर्यादा से जोड़कर तीखे शब्दों का प्रयोग किया? तुम्हे पता है तुम्हारे बारे में कुछ भी उल्टा सुलटा मुझे पसंद नही चाहे उसे कोई और कहे या तुम स्वयं. फिर क्यों जानू के दिल को ठेस पहुंचाई? क्यों प्यार से लिखे मेरे भावो को तुमने खुद से मुझसे जोड़कर नही देखा, क्यों मेरे प्रश्नों का उत्तर मुझे मेरे प्यार ने नही दिया? मैं भी इंसान हूँ, इस दूरी को सहज कैसे ले सकता था? यदि तुम मेरी जगह होती क्या तुम नही महसूस करती जो मैंने किया ? क्या तुम्हे याद है जब भी पहले कभी मैंने मजाक में या गुस्से में दूर जाने की बात की तो तुम किस तरह व्यवहार किया करती थी? कितने प्रश्न चिह्न लगाकर तुम मुझसे पूछती थी चले जाओगे क्या अपनी जान को छोड़कर ?????. मेरे बिना तुम्हारी बैचेनी कितनी अपनी लगती थी तब? और तुम्हारे वो सन्देश जो तुम्हारे साथी होते थे मेरी अनुपस्थिति में वे कहाँ है बताओ तो? मुझे तो वो प्रज्ञा चाहिए जो मेरे बारे में सोचती थी, लिखती कहती थी मुझे, मौका लगते ही मेरे पास आने को आतुर प्रज्ञा... याद है जब तुमने लिखा था -
आँखों से उतर दिल में ही तो प्यार पलता है
दिल में बसा जो वो आँखों में बन सजता है
सपने तब होते है पूरे जब निगाहों में ख़्वाब ढलता है
और ये लिखने के साथ ही तुमने लिखा था “कि ये मैंने आपकी आंख और दिल के रिश्ते वाले भावो पर कही है.” फिर चार लाइन और लिखी थी :
प्यार मेरा अब यूं मेरे साथ है
अब तो बस उस संग जीती हूँ मैं
बस उससे मिलने की अब आस है
एहसास में मेरे वो कुछ यूं समाया है
दूर रहकर भी हर पल वो मेरे पास है ..... प्रज्ञा
और लिखा था ‘ ये मेरे प्यारे जानू के लिए .... जान के दिल की आवाज़ है.’ हाँ जान मैं उसी प्रज्ञा को खोज रहा हूँ अपने सवालों में. कभी कभी मेरे प्यार की उसी बैचेनी और इंतजार से रूबरू होना चाहता हूँ जिसमे उस प्यार को सिद्दत से महसूस कर पाऊं.”
पार्थ और कोई प्रश्न जोड़ता इससे पहले प्रज्ञा झट से पार्थ की गोदी में जा बैठी और कहने लगी, “ बहुत सारे सवाल है न तुम्हारे जानू” पार्थ उसके इस अंदाज़ से परिचित है. अक्सर प्रज्ञा, पार्थ की गोदी में बैठकर ही बाते करती थी. पार्थ अतीत के उन्ही पलों में जाने लगा था कि प्रज्ञा ने पार्थ के माथे पर चूम कर वापिस अपने साथ जोड़ लिया. कहने लगी “हाँ तुम्हारे एक - एक प्रश्न का जबाब है मेरे पास. तुमने मुझे जब तब मुस्कारते देखा होगा लेकिन ये तो तुम्हारी प्रज्ञा की आदत है हर हाल में मुस्कराना चाहे अंदर से उसका मन कितना ही दर्द महसूस करता हो. लेकिन सच ये है कि कई कारण है जिससे मैं मन में प्यार और उन एहसास को महसूस नही कर पाई तब खुद से. अक्सर तुमसे हर बात साँझा की है मैंने बहार कितनी भी खुश रहती थी परन्तु तुम्हारे सामने उस दर्द को कह पाती थी, रोती थी और सच कहूं सुकून भी मिलता था तुम्हारे साथ. इन दिनों नही कहा कि तुम्हे भी अपने साथ परेशां नही देखना चाहती थी. ऐसा नही कि तुम मेरी उस स्थिति से परिचित नही हो. लेकिन हालत कुछ यूं सामने आये कि और कुछ सोच न सकी. और अधूरा प्यार, अधूरा एहसास मैं अपने जानू को कैसे देती. उसे जो भी दिया पूरा दिया, तन मन से दिया. हाँ तुम्हारे प्रश्नों ने, शंका ने भी मुझे कई बार सोचने पर मजबूर किया और उस सोच में दूरी भी उभर आई. हाँ भटक गई कह सकते हो. इस बीच बस यूं ही जो अच्छा लगा, साथ मिला अपना लिया. लेकिन वहां मैं न ठहरी न रुकने का मन. अविरल बहना पसंद लेकिन सिर्फ तुम्हारे संग, नकारात्मकता पसंद नही, अधूरा पसंद नही. लेकिन तुमसे अलग कभी नही, कुछ नहीं. तुम मेरे हर रंग, हर रूप में, जिन्दगी के हर हिस्से में हो. फिर क्यों तुमने भी मुझे औरो की तरह सोच लिया. आज नही तो कल, लौटना तो था तुम्हारे पास ही. जिन्दगी कितनी ही खुशी मेरी झोली में डाल दे पर मेरे प्यार पर हक तुम्हारा ही है अब. मेरे बच्चू ये समझ लो जान लो. जिन्दगी के उतार चढ़ाव या उथल पुथल ज्वार भाटे की तरह जीवन को निर्देशित करते है लेकिन प्यार का जो एहसास तुमसे पाया है वो तन मन में विराजमान है, रहेगा सदा और निखरता रहेगा पल पल”.
प्रज्ञा ने पार्थ की बाहों में खुद को सुरक्षित किया कहा “ हाँ लौटना केवल लौटना, प्यार पाना ही नही, मकसद भी है मेरा तुम्हारे साथ चलते हुए, प्यार को जीते हुए, प्यार के हर एहसास को समेटते हुए, मेरे साथ जुडी सच्चाई को स्वीकारते और निभाते हुए और अपनी प्रतिभा को तुम्हारे साथ निखारते हुए अंजाम देना, लक्ष्य को हासिल करना भी है. तुम्हारा योगदान इसमें मुझे एक नई ऊंचाई पर खड़ा करेगा जिसमे तुम मेरे साथ खड़े नज़र आओगे जानू. वैसे मुझे यकीन है अपने पार्थ पर और सच कहूं उसी प्यार के भरोसे, प्यारे के सहारे ही मुझे आगे चलाना और बढ़ना है. सुन रहे हो न जानू, बोलो न कुछ अब”
पार्थ उसे फिर से देखने लगा, सोचने लगा कि क्या ये वही प्रज्ञा है जिसकी थोड़ी सी दूरी भी वो बर्दाश्त नही कर पाता और उस दूरी में तरह तरह के ख्यालातों को अपने मन मस्तिष्क पर हावी होने देता है. क्या सच में इतना ही सहज है प्यार या फिर ज़ज्बात, रिश्ते, प्यार बस यूं ही जगह बना लेते है, वक्त पर साथ नही तो साथ छोड़ चलते बनते है और यूं ही लौट आते है एक दिन. क्या उस दूरी को भुला देना आसान होता है. होता होगा शायद यदि आपका प्यार वापिस आपको उसी रूप में मिल जाए तो.
कुछ इसी तरह का आभास पार्थ को इस वक्त भी होने लगा था. लेकिन सोचने लगा “क्यों वक्त मेरे साथ कठोर बना रहा सदा. और आज भी किस्मत की झोली में कोई रोशनी नही मेरे लिए.....” फिर भी प्यार की वो किरण उसे आज कहीं नज़र आने लगी थी. प्रज्ञा का उसके पास, इतने करीब होने को क्या वो समझ पा रहा है?
पार्थ फिर भी सोच में है “प्रज्ञा साथ है फिर भी मेरा मन प्रश्नों से क्यों भरा है.” तभी प्रज्ञा ने कहा “सुनो”
पार्थ जैसे सोये जाग गया, सपना सा था, सपनो में प्रज्ञा और उसके सवाल के जबाब टटोलता पार्थ. पार्थ बोला “हाँ जान बोलो” और प्रज्ञा कहने लगी “हाँ मैं ये कह रही हूँ कि तुम इतने बेमने से क्यों लग रहे हो? मैंने ने जबाब दिया न तुम्हे फिर ये चेहरे में इतनी शिकन क्यों दिख रही. जानती हूँ तुम्हे और तुम्हारा कद्दू जैसा मुंह होता न जब समझ लेती हूँ कि जानू जरुर नाराज़ है या कुछ उलझना मन में. वैसे हो तुम बोरिंग यार. देखो मैं इतनी अच्छी बात कर रही हूँ, आई हूँ तुम्हारे पास कुछ कहने सुनने और साथ मांग रही हूँ आगे के लिए भी और तुम हो कि..... . सुनो न ! बन जाओ न वही जानू अपनी जान के और मैं बनती हूँ जानू की जान. जिसके कंधे पर जान सर रखले और फिर जानू उसे सहलाये प्यार करे और मैं बेल सी लिपट पिघलती रहूँ जानू के आगोश में”.
पार्थ के सारे प्रश्न हवा हो गए, सोच बस उसकी आँखों में ठहर गई. बाहों में उसका स्वागत करते हुए पार्थ खुद को प्रज्ञा के करीब ले आया. हाँ कई महीनो बाद आज उसने प्रज्ञा को प्रज्ञा सा पाया. उसे महसूस हुआ उसका प्यार जिसकी चाह में आस ख़तम होने लगी थी. और पार्थ ने बस इतना ही कहा कि “ हाँ जान मैं तुम्हारे साथ हूँ हर पल, हर हालात में, तुम्हारे हर सकारत्मक निर्णय में, आखिर प्यार जो किया है, करता हूँ. साथ चलने की ख्वाइश पहले भी थी और आज भी जस की तस है”
प्रज्ञा ने पार्थ की बात सुनते ही उसको कस कर पकड लिया और उसके होंठ, कसमसाता तन, बेसुध मन, बंद आँखे, लम्बी लम्बी साँसे पार्थ को प्रेम का एहसास कराने लगी. महकने लगी थी प्रज्ञा प्यार में, पार्थ उस महक को महसूस कर पा रहा था. प्रज्ञा उन पलो में अपने पार्थ के प्यार में खो जाना चाहती थी. इस मिलन की प्रतीक्षा में न जाने कितने पल बीते है उनके. दोनों बिना कुछ कहे सुने एक दूजे के आगोश में सिमटते चले गए. कुछ देर बाद पार्थ ने धीरे से प्रज्ञा के अधरों को चूम कर कान में कहा “ आई लव यू” और प्रज्ञा ने बस इतना कहा “मी टू” और फिर समर्पण का भाव लिए दोनों एक दूजे में खो गए. दोनों का इस एहसास में खो जाने का ये पल जैसे इंतजार कर रहा हो. हाँ आज आसमान भी दोनों के मिलन की गवाही दे रहा है. बारिश तेज होने लगी. प्यार की अगन में मचल रहे दो दिल आज कई दिनों बाद मिलकर बीच की दूरी को मिटाने लगे एक होकर. ये बारिश दोनों के लिए अच्छा संकेत थी उन्हें लगा ही नही कि बीच में कोई दूरी भी थी कभी. तन मन की दूरी तो पार्थ प्रज्ञा कब के मिटा चुके है लेकिन ये मिलन कुछ अलग है.
पार्थ आज खुश है सोच रहा “ हाँ आज लौट आई वो फिर से मेरी प्रज्ञा बनकर. मेरा प्यार विश्वास जैसे सब लौट आया हो. अपने प्यार को मैं फिर प्यार से अधूरा न रहने दूंगा. प्रज्ञा के चेहरे पर प्रेम की छाप, उसके चेहरे की गुलाबियत साफ़ सन्देश दे रही थी पार्थ को. उस प्यार के साथ और पूर्णत: का एहसास लिए घर लौट गई कल मिलने के वायदे के साथ. उसके ख्यालो में डूबा पार्थ सोचने लगा कि कल जब प्रज्ञा मिलेगी और बोलेगी “ आई लव यू” तो वह “आई लव यू टू जान “ न कहकर उसकी तरह ही जबाब देगा “मी टू”...... यह सोचते ही पार्थ के चेहरे पर उसकी चिर परिचित मुस्कान लौट आई .....
प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल


किरण आर्य 

~आ लौट चले~
कुशाग्र बहुत ही व्यावहरिक प्रकृति का जीव् है. उसकी जिन्दगी का एकमात्र ध्येय रहा नई ऊँचाइयों को छूना और मुड़कर पीछे न देखना. बचपन में उसके पिता ने एक बार कहा था, ”देखो बेटा यह जीवन एक अंधी दौड़ है जो शुरू होती है योनी में भ्रूण के अस्तित्व में आने की चाह के साथ और जो भ्रूण इस दौड़ में जीत जाता है उसे ही जीवन रूपी अमूल्य निधि मिलती है. सो बेटा जीवन में महत्वकांक्षा के पालने में बैठ स्वप्न देखना और फिर उन्हें पूरा करने के लिए जी जान से नहाधोकर जुट जाना ही जीवन लक्ष्य भी एवं जीवन राह भी. केवल आपका लक्ष्य अहम् है बाकी सब कुछ उसके आगे गौण है.” कुशाग्र ने अपने पिता की यह बात गाँठ बाँध ली और आज कुशाग्र अपने लक्ष्य के सिरे को पकड एक कुशल व्यवसायी है.
अपने लक्ष्य के पीछे अंधाधुंध दौड़ते हुए कुशाग्र कब रिश्तों एहसासों से रिक्त हो गया उसे पता भी नहीं चला. आज माँ पापा से मिले उसे पूरे चार साल हो गए थे. उसे अपने काम से समय ही नहीं मिलता था, यहाँ तक माँ पापा से बात किये भी उसे महीनो हो गए थे. कुशाग्र को लगने लगा था की काम करते रहना ही उसका जीवन है, एक सफलता मिलते ही दूसरे सफ़र की तैयारी. उसकी अनंत चाहतों का पिटारा उसे आराम से बैठने ही नहीं देता था. यहाँ तक स्वप्नों में भी उसकी ये दौड़ जारी रहती थी. ऐसी ही सोच के सागर में गोते लगाता कुशाग्र एक सुबह गाडी चला रहा था. सुबह ऑफिस का समय था, सड़कों पर अच्छी खासी भीड़ थी. तभी अचानक एक लड़की उसकी गाड़ी के सामने आ गई. कुशाग्र ने तेज़ी से ब्रेक लगाया लेकिन लड़की सड़क पर गिर पड़ी. उस लड़की के गीले काले बालों ने उसके चेहरे को ढक लिया था. जब उस लड़की ने धीरे से अपने चेहरे से बाल हटाये तो कुशाग्र हतप्रभ सा कुछ क्षण उसके चेहरे की मासूमियत को देखता रह गया. इससे पहले वह कुछ कहता उस लड़की ने स्वयं को संभाला और चल पड़ी. कुशाग्र तुरंत गाड़ी से उतरा और बोला “माफ़ कीजिये आपको लगी तो नहीं, आपको कहाँ जाना है, कहे तो मैं आपको छोड़ दूँ ?” लड़की ने मुस्कुराने का प्रयास करते हुए हौले से कहा “जी नहीं मैं ठीक हूँ, मैं चली जाउंगी.” उसने आवाज़ देकर ऑटो को रोका और उसमे बैठकर चली गई. कुशाग्र अन्मन्यस्क सा कुछ क्षण खड़ा जाते हुए ऑटो को घूरता रहा. तभी पीछे से आती गाड़ी के हौर्न ने उसकी तन्द्रा तोड़ी और फिर वह वापिस आकर गाडी में बैठ अपने ऑफिस चल पड़ा. दिन भर काम व् मीटिंग्स में लगे रहा और कब शाम के आठ बजे उसे पता ही नहीं चला. फिर थका हारा कुशाग्र घर की तरफ चल पड़ा.
उसकी जिन्दगी मशीन सी हो गई थी, जिसमे निरंतर चलते रहना ही जीवन था, गाडी में बैठकर उसने गाड़ी स्टार्ट की और गाना चलाया. खाली समय में संगीत सुनना उसे पसंद था हमेशा से. अचानक कुशाग्र को सुबह वाली लड़की याद आई और उसके अधरों पर हलकी मुस्कान तैर गई. कुशाग्र बहुत व्यवहार कुशल था, उसके जीवन में बहुत सी लड़कियां आई लेकिन प्यार की खुमारी रात के बीतते ही उतर गई हर बार. उसके लिए प्यार शब्द के कोई मायने ही नहीं रहे कभी. सिर्फ जरूरत और पूर्ति के सिद्धांत को अमल करता रहा वह आज तक. लेकिन आज रह रहकर वह लड़की उसका वह मासूम सा चेहरा उसकी आँखों के सामने आ रहा था. उस लड़की के बारे में सोचते हुए जाने कब वह घर पंहुचा और घर पहुचते ही बिस्तर पर पड़ते ही वह ढेर हो गया.
अगली सुबह कुशाग्र जल्दी से तैयार हुआ और घर से निकल पड़ा. उस जगह पहुचते ही उसकी गाड़ी की गति धीमी हो गई जहाँ वह लड़की उसकी गाड़ी से टकराई थी. उसकी आंखें किसी को खोज रही थी. अचानक कुशाग्र ने देखा वह लड़की सामने बस स्टैंड पर बैठी हुई थी. कुशाग्र ने गाड़ी रोकी और तुरंत उस लड़की के पास जा पंहुचा. लड़की उसे देख थोडा हैरान हो गई. कुशाग्र ने बिना कोई भूमिका बांधे पूछा “अब आप कैसी है ? कल के लिए सॉरी” वह लड़की अचकचाकर बोली “आप सॉरी न कहे, दरअसल गलती मेरी थी, मैं ही हड़बड़ी में आपकी गाडी से आ टकराई.” कुशाग्र एकटक उसके मासूम से चेहरे को ताक रहा था, वह लड़की बोले जा रही थी और अचानक कुशाग्र ने कहा “आप कहे तो मैं आपको छोड़ दूँ आपके ऑफिस तक ?” लड़की ने थोडा सकुचाते हुए कहा, “नहीं आप तकलीफ न करे मैं चली जाउंगी, कुशाग्र ने तुरंत कहा अरे इसमें तकलीफ कैसी आप चले प्लीज़, लड़की हल्का सा मुस्कुराते हुए उसके पीछे चल दी, कुशाग्र ने देखा वह थोडा सा लंगड़ा रही थी, उसके पैर में चोट आई थी, कुशाग्र ने गाड़ी का दरवाज़ा खोला लड़की चुपचाप गाडी में बैठ गई, फिर कुशाग्र ने अपनी सीट पर बैठकर गाडी स्टार्ट की. कुछ देर दोनों के दरमियाँ मौन पसरा रहा फिर कुशाग्र ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा “बाय द वे मेरा नाम कुशाग्र है, और मैं एक व्यवसायी हूँ, कनौट प्लेस में रीगल के पास मेरा ऑफिस है.” फिर उसने लड़की से पूछा “आप कहाँ जॉब करती है ?” लड़की अब थोडा सहज हो चली थी, उसने मुस्कुराते हुए हौले से कहा “मेरा नाम कुमुद है और मैं एल आई सी में काम करती हूँ. फिर उन दोनों के बीच छुटपुट बातें हुई. इस बीच कुमुद का ऑफिस आ गया और वह कुशाग्र को धन्यवाद कहती हुई गाडी से उतर गई, कुशाग्र जाती हुई कुमुद को तब तक देखता रहा जब तक वह उसकी आँखों से ओझल न हो गई. फिर अपने ऑफिस तक जाते हुए कुशाग्र कुमुद के बारे में ही सोचता रहा.
अगले दिन कुशाग्र ने अपनी पसंदीदा ब्राउन शर्ट पहनी और समय से कुछ पहले ही कुमुद के बस स्टैंड जा पंहुचा लेकिन आधा घंटा इंतज़ार करने के बाद भी कुमुद नहीं आई. कुशाग्र ने अपने मन में एक अजीब सी बेचैनी को महसूस किया. ऑफिस में भी सारा दिन किसी काम में उसका मन नहीं लगा. उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसके साथ ऐसा क्यों हो रहा है ? शाम को समय से पहले ही वह ऑफिस से निकल पड़ा और बहुत देर तक ऐसे ही सड़कों पर गाड़ी दौड़ाता रहा. कुशाग्र ने ऐसी बेचैनी पहले कभी महसूस नहीं की थी. उसे रह रहकर कुमुद का वह मुस्कुराता हुआ चेहरा याद आ रहा था, रात को भी वह ढंग से सो नहीं पाया.
अगली सुबह वह बिना कुछ खाए पिए ही घर से निकल गया और बस स्टैंड पर पहुचते ही उसने देखा कुमुद हलके आसमानी रंग की साड़ी पहने बैठी बस का इंतज़ार कर रही थी. कुशाग्र तुरंत गाड़ी से उतर उसके पास पंहुचा और बोला “कल कहाँ थी तुम ? चलो जल्दी से गाड़ी में बैठो.” कुमुद हैरानी से कुशाग्र के चेहरे को देख रही थी. तभी कुशाग्र ने उसका हाथ पकड़ा और उसे ले जाकर गाडी में बिठा दिया. कुमुद के चेहरे पर अभी भी हैरानी के भाव थे, कुशाग्र ने गाड़ी में बैठते ही थोडा आवेश में अपना प्रश्न दोहराया तब कुमुद ने धीरे से बताया कल उसे डॉ के पास जाना था. उसके बाद माँ को लेकर मंदिर मंदिर जाना था इसीलिए कल उसने छुट्टी ले ली थी. कुशाग्र ने कहा “तो बता नहीं सकती थी, जानती हो मैं कितना परेशां हो गया था, किसी काम में मन नहीं लगा मेरा सारा दिन जाने क्या क्या सोचता रहा मैं?” यह कहते ही कुशाग्र को अपनी जल्दबाजी का भान हुआ. कुमुद उसे कहाँ बताती ? उसके पास तो कुशाग्र का नंबर भी नहीं था और कुमुद को उसे कुछ बताने की वजह भी तो नहीं थी. अभी वह केवल एक ही बार तो मिले थे. कुशाग्र अपनी जल्दबाजी पर झेप सा गया, कुमुद उसके चेहरे के भावो को पढ़कर हौले से मुस्कुरा दी. आज उसने कुशाग्र को जी भरकर देखा. उसका लम्बा कद, खड़ी नाक, तीखे नयन नक्श और गोरा रंग, कुल मिलाकर एक आकर्षक व्यक्तित्व का धनी था कुशाग्र. कुमुद उसके बारे में सोच ही रही थी, तभी कुशाग्र ने कहा “सुनो मेरा मोबाइल मिल नहीं रहा है, जरा अपने मोबाइल से मेरा नंबर तो डायल करना.” कुमुद ने हँसते हुए अपना नंबर बता दिया, कुशाग्र ने हँसते हुए उसका नंबर सेव कर लिया. कुमुद का ऑफिस आते ही वह गाडी से उतरने लगी तो कुशाग्र ने कहा “सुनो शाम को साथ कॉफ़ी पीते है” किसी से परिचय जान पहचान बढाने में ये जो चाय कॉफ़ी होती है बहुत कारगर सिद्ध होती है हमेशा. कुमुद ने हँसते हुए हाँ में सर हिलाया और ऑफिस की सीडियां चढ़ने लगी,
कुशाग्र शाम को कुमुद के ऑफिस आया और उसे लेकर कॉफ़ी होम चल दिया. कॉफ़ी लेकर दोनों कोने की सीट पर जा बैठे. कुशाग्र ने कुमुद की आँखों में झांकते हुए कहा “कुमुद मुझे तुम बहुत पसंद हो” कुमुद कुछ देर निशब्द सी बैठी रही फिर उसने कहा “मैं मध्यम वर्गीय परिवार की एक साधारण सी लड़की हूँ, बहुत भावुक हूँ.” कुशाग्र ने कहा “कुछ मत कहो कुमुद बस मेरे साथ चलो जीवन की राह में.” इस तरह से उनके बीच बातों मुलाकातों का सिलसिला चल निकला, दोनों के मन में प्रेम अंकुर फूटने लगे. धीरे धीर्रे नजदीकियां बढ़ने लगी. जहाँ कुशाग्र बहुत व्यावहारिक था वहीँ कुमुद उसके एकदम विपरीत दिल से सोचने वाली भावुक सी लड़की थी. वह कुशाग्र को फ़ोन करती और चाहती चाहे कुछ देर के लिए ही सही कुशाग्र रोज़ उससे बात करे या जब व्यस्त हो तो एक मेसेज कर दे कि आज बात नहीं हो पाएगी. उधर कुशाग्र जब काम में होता सब भूल जाता, उसे कुमुद को एक मेसेज करना तक याद नहीं रहता. कुमुद पागलों की तरह उसके फ़ोन या मेसेज का इंतज़ार करती जब भी दोनों की बात होती कुमुद शिकायत करती और कुशाग्र एक्सप्लेनेशन देता रहता. कुशाग्र कुमुद को कहता “कुमुद तुम्हारा नाम काम्प्लेन बॉक्स होना चाहिए” कुमुद को लगने लगा था कि कुशाग्र उसके प्यार, उसकी चाहतों को न समझ उसकी शिकायतों को देखता है बस. उधर कुशाग्र एहसासों, भावो में, सोच में, कुमुद के साथ समय बिता उसे पास महसूस कर संतुष्ट हो लेता कुमुद की बेचैनी उसके प्रेम उसके इंतज़ार से अनजान.
धीरे धीरे दोनों के बीच एक मौन पसरने लगा और दूरियां बढ़ने लगी. एक दिन कुमुद के शिकायत करने पर कुशाग्र ने थोडा चिढ़कर कहा “कुमुद यह रिश्ता मेरे लिए तनाव की वजह बनकर रह गया है, हर बार तुम मुझे कटघरे में खड़ा कर देती हो, मैं थक गया हूँ यार.” कुमुद आवाक सी रह गई. दर्द की एक तीव्र लहर उसके दिल में उठी और आँखों में आसुओं के रूप में चमकने लगी. डबडबाई आँखों और रुंधे गले से कुमुद बोली “कुशाग्र मुझे लगता है हम एक दूसरे से एकदम अलग है और एक दूजे के लिए नहीं बने है, सो जाओ आज मैं तुम्हे मुक्त करती हूँ.” और कुमुद धीमे क़दमों बढाती चली गई. कुशाग्र कुछ देर ऐसे ही बैठा रहा और फिर उठकर अपनी गाडी में जा बैठा. उसे अब अपनी गलती का एहसास हो रहा था लेकिन कुशाग्र को कभी किसी भी चीज़ का बहुत फर्क नहीं पड़ता था सो कुशाग्र ने आगे बढ़ने का निर्णय लिया. वह फिर से अपने काम में व्यस्त हो गया. उधर कुमुद उसे जितना भूलने का प्रयास करती कुशाग्र उसे उतना ही याद आता. लेकिन एक उम्मीद उसे थी कि उसका कुशाग्र लौट के बुद्धू घर को आये की तर्ज पर वह लौट आएगा. इधर कुछ समय और बीता, कुशाग्र चाहकर भी पूरी तरह से कुमुद को नहीं भुला पाया था. सीने में उसके लिए न जाने क्यों बैचेनी सी थी. वह कभी लिखता नही था लेकिन आज उसकी कलम ने चार पंक्तियाँ यूं लिख डाली
पल पल तेरी तस्वीर उभरती है
सांसो में महक बन तू उभरती है
मेरे एहसासों में रोज संवरती है
बन जान मेरी दिल में धडकती है
आज कुशाग्र को एक नया कॉन्ट्रैक्ट मिला था, वो बहुत खुश था, लेकिन उसकी ख़ुशी को बाटने वाला कोई अपना साथ नहीं था, इस समय उसे कुमुद की बहुत याद आई. हाँ महसूस करना चाहता था वो कुमुद का साथ इन सफलता के पलो में लेकिन उसकी स्वयं की व्यस्तता ने और रिश्तो के प्रति उसकी बेरुखी ने आज उसे अकेला कर दिया पूरी तरह. आज उसे एहसास हुआ कि किसी को चाहना आसान नही और भुलाना तो नामुमकिन. जब वह खुद को देखता था उसे खुद का सफल होना बहुत भाता था. लेकिन आज उसे अपनी सफलता पर स्वयं के मन को उदास पाया. कुमुद की याद तो आई ही क्योंकि वह उसका प्यार थी लेकिन साथ ही आज उसे अपने माँ बाप का चेहरा भी दिखा वर्षो बाद जो उसे आशीर्वाद दे रहे है. लेकिन माँ पिता के चेहरे पर उसके इंतजार की आस साफ़ झलक रही थी. उसकी रूह कांप सी गई जब उसे एहसास हुआ कि उसने अपने ऐशो आराम के लिए माँ बाप को अकेला छोड़ दिया, उनकी सुध नही ली. और साथ ही कुमुद के प्यार को इस तरह प्रताड़ित होता देख उसे आत्म बोध हुआ. और अपनी कमियों को दृढ संकल्प के साथ समाप्त करने का निर्णय लिया. अभी उसने माँ पिता को फोन किया, उनके हाल चाल जान और आने का वादा कर दिया. फिर उसने कुमुद को फोन मिलाया और खुशखबरी देते हुए कहा “लौट आओ”, मैं अपने बर्ताव पर शर्मिंदा हूँ और अब तुम्हे मुझसे शिकायत न होगी. मै अपनी महत्वाकांक्षा में इतना खो गया था कि रिश्तो की अहमियत भी खो बैठा लेकिन आज मै तुम्हारा साथ चाहता हूँ जिसे जीवन भर अपना बना कर रखना चाहता हूँ”
कुमुद जैसे उसके इन शब्दों का ही इंतजार कर रही हो, उसका सारा गुस्सा और सारे नकरत्मक ख्यालों को छोड़ इतना कहा “ हाँ मै आ रही हूँ कुशाग्र.” बिना वक्त गवाएं वह उसके पास जा पहुंची... गले लगाते हुए कहा “ लो आ गई तुम्हारी कुमुद...” कुशाग्र के चेहरे पर सुंदर सी मुस्कान उभर आई और उसने उसी वक्त कुमुद से उसे अपना जीवन साथी बनाने का निवेदन कर डाला जिसे कुमुद ने सहर्ष स्वीकार कर लिया. दोनों गले मिले .... कुशाग्र ने फिर गाँव फोन मिलाया और और माँ पिता जी की कुशल क्षेम पूछ कर कहाँ मैं आ रहा हूँ आप लोगो से मिलने तब ढेर सारी बात करेंगे. उसके माँ पिता जी की आंख में आंसू तो थे लेकिन खुशी के. उनको यह घटना किसी चमत्कार से कम न लगी और उन्होंने भगवान का शुक्रिया अदा किया. कुशाग्र भी खुश था माँ पिता जी से बात कर और उसे लगा जैसे उसके मन से कोई बोझ उतर गया हो.

किरण आर्या


Vivek Kuriyal

~रुक जाओ~
पत्नी को बिस्तर पर पड़ा देख रमेश को बुरा लग रहा था। वास्तव में रमेश कुछ कर भी नहीं सकता था, क्योंकि उसकी पत्नी को बहुत तेज़ कमर दर्द की परेशानी थी। शुरू में तो रमेश ने पत्नी शीला के द्वारा अपने कमर दर्द के बारे में बताए जाने पर कोई तवज्जोह नहीं दी लेकिन समय बीतने के साथ दर्द ठीक होने के बजाय बढ़ता गया। एक गृहणी होने के नाते जब तक सह पाई शीला, दर्द सहते-2 काम करती रही फ़िर एक दिन दर्द से बचने के लिये बिस्तर पर जो लेटी तो फिर चाह कर भी उठ न सकी। कमर दर्द तो शीला को अपने दोनों बच्चों के पैदा होने के बाद से ही रहा करता था। दरअसल शीला के बेटा बेटी दोनों ही सीजेरियन ऑप्रेशन से पैदा हुए थे। ऑप्रेशन के लिये रीढ़ की हड्डी में निश्चेतक के जो इंजेक्शन लगाये गये थे, उनकी वजह से शीला की कमर में दर्द रहता था। यही कारण था कि पहले शीला स्वयं और फ़िर रमेश इस दर्द को अनदेखा कर रहे थे। अब हालत ऐसे हो चले थे कि शीला कुछ देर से अधिक खड़ी नहीं रह पा रही थी, तब कहीं मजबूरी में रमेश को राजी होना पड़ा था की वह शीला को किसी डाक्टर को दिखाये।
शुरुआती एक्स-रे के आधार पर डाक्टर ने स्लिप-डिस्क का उपचार शुरू किया और रमेश को सलाह दी कि वह अपनी पत्नी को नजदीक के बड़े शहर ले जाकर उसका एम॰ आर आई स्कैन करवाए। तब तक शीला को 100% बेड रेस्ट करवाये। रमेश ने फैसला किया की वो कुछ दिन शीला को आराम करवाएगा और लोकल डाक्टर की दी हुई दवा ही खिलवाएगा। हफ्ता दस दिन में शीला ठीक हो जाएगी और बिना मतलब दूसरे शहर जाने का और एम॰ आर आई स्कैन का खर्चा भी बच जायेगा। अब घर का सारा काम रमेश को ही करना होता था। सुबह पाँच बजे उठना, बच्चों के कपडों में प्रेस करना, बच्चों के लिये टिफिन तैयार करना, फिर बच्चों के बैग का टाइम टेबल चेक करना, बच्चों को तैयार करवाना और फिर उन्हें स्कूल वैन में बिठाना। सुबह की घड़ी की सुई ऐसे दौड़ती मानो छलांगें मार रही हों। अब रमेश को अपने काम पर भी जाना होता था। आज से पहले घर के ये तुच्छ समझे जाने वाले काम शीला कैसे निबटाती इसका रमेश को कभी भान नहीं हुआ था। लेकिन आज वह बाध्य था साथ ही मन ही मन शीला और शीला की बीमारी से चिढ़ा हुआ भी था ।
रमेश और शीला के रिश्ते सदा से ऐसे उदासीन नहीं थे। वो भी दिन था जब शीला ने ड्राइविंग सीखते समय रमेश की प्रिय गाड़ी को पेड़ पर ठोक दिया था और रमेश उसकी इस भूल को भी ‘ठोकने की अदा’ का नाम देकर केवल हँस भर दिया था। जबकि कोई दूसरा यदि उसकी कार पर कोहनी टिकाकर खड़ा भी हो जाता तो रमेश उसकी खाल उतारने पर उतारू हो जाता। ऐसे कई मौके थे जहाँ रमेश अपनी पत्नी की बड़ी से बड़ी गलती को भी हँसी में उड़ा दिया करता। कुछ वर्षों तक सब कुछ ठीक चला लेकिन फ़िर उनका परिवार बढ़ने लगा और जिम्मेदारियां भी। इस मामले में रमेश रूढ़िवादी था। रमेश दिन भर काम पर रहता और शाम को घर आकर एक शासक की भूमिका में आ जाता था। रमेश का स्पष्ट मत था कि घर का काम शीला का है और बाहर का काम उसका, कमाल की बात तो ये थी की राशन सौदा लाना, सब्जी, फल, बच्चों की किताब कापी आदि लाना भी घर के काम में शामिल था। परिवार में बच्चों की जिम्मेदारियों को लेकर एक तनाव प्रवाहित होने लगा। प्रेम की बातों के सुरों का तारत्व जाने कब कर्कश सुरों में तबदील हो गया ये दोनों को पता ही नहीं चला। कैसे और कब उनके प्रेम की भूमि को कटुता की नदी का वैचारिक प्रवाह काटता चला गया दोनों को पता ही नहीं चला। जब भान हुआ तो दोनों ने स्वयं को नदी के कटु प्रवाह से घिरा पाया। कार्य के बंटवारे को लेकर अकसर दोनों में तीखी नोक-झोंक होती, रमेश अपने मत पर अडिग था और शीला रमेश से असहमत।
आज रमेश और शीला के बीच की दूरियां बढ़ चुकी थीं। क्योंकि आज रमेश उन कामों को करने पर बाध्य था जो उसके अहंकार को ठेस पहुंचाते थे। घरवालों की मर्जी के खिलाफ शादी करके दोनों ने अपने-अपने घरों सम्पर्क तोड़ लिये थे । शादी के बाद से ही दोनों अपने माता पिता के परिवारों से इतना दूर निकल आये थे कि वहाँ से किसी मदद की गुहार करना दोनों अपना अपमान समझते। कहीं दिल के किसी कोने से रमेश को आवाज़ तो सुनाई देती थी कि इस परिस्थिति के लिये शीला दोषी नहीं है लेकिन वो पुकार इतनी मरियल होती कि रमेश के कानों के परदों में स्पंदन पैदा न कर पाती। जब कभी उसका दिल शीला पर पसीजता तो काम के बोझ तले वो खुद से, हालात से और पत्नी शीला से चिढ़ जाता। कुछ दिन और बीते लेकिन हालात में कोई सुधार ना हुआ। रमेश ने फ़िर से पहले वाले डाक्टर को दिखाया। एम॰ आर आई ना करवाने पर रमेश को डाक्टर की डाँट भी सहनी पड़ी और डाक्टर ने रमेश को ये अहसास करवाया कि उसकी पत्नी दिखावे के लिये बिस्तर पर नहीं बल्कि वो शायद किसी गम्भीर मुसीबत में है। रमेश ने अगले दिन सुबह अपने बच्चों को अपने पड़ोसी की देखरेख में छोड़ा और अपनी पत्नी के साथ नजदीकी शहर में स्कैन के लिये चल पड़ा। यात्रा के दौरान शीला को जिस दर्द से गुजरना पड़ा उसे अब रमेश भी महसूस कर सकता था। स्कैन सेंटर में पहुँचे तो वहाँ काफी लम्बी कतार थी शीला को पहले कुर्सी में बिठा कर रखा और जब वह बैठी न रह सकी तो उसे बेड पर लिटा दिया गया। आज रमेश को अपनी पत्नी के चेहरे पर दर्द की निराशा साफ-साफ दिखाई दे रही थी जिसे छिपाने का शीला भरसक प्रयास कर रही थी। शीला का नम्बर आया तो उसे स्कैन का गाउन पहनाया गया। ये काफी हद तक ऑप्रेशन के गाउन जैसा था। ऐसे ही गाउन शीला ने पहले भी पहने थे जब बच्चों की डिलीवरी के लिये सीजेरियन ऑप्रेशन होने थे। उस दिन शीला के मुख पर थोड़ा घबराहट के साथ संतोष के भाव थे लेकिन आज इस गाउन में शीला का मुख कांतिहीन लग रहा था। अब नर्स ने शीला को अपने शरीर से सभी धातु की चीजें उतारने को कहा। शीला ने सभी गहने उतार दिये लेकिन मंगल सूत्र न उतारने पर अड़ गयी। मंगल सूत्र तो सीजेरियन के समय भी शीला ने नहीं उतारे थे। किसी तरह रमेश के जोर देने पर शीला ने बेमन से मंगल सूत्र उतार दिया। शीला एम॰ आर आई मशीन के भीतर लेटी थी और रमेश बाहर बैठे यह सोच रहा था कि शीला कैसे मेरी (सुहाग की) निशानी से इतना प्यार करती है कि उसे खुद से दूर नहीं रखती। स्कैन के एक घंटे के अंतराल में रमेश अपने पिछले दस दिनों के व्यवहार के बारे में सोच कर शर्मिंदा था।
एक घंटे बाद शीला बाहर आ गई। रमेश ने शीला को अपने सहारे से बिस्तर पर बिठाया। सहारा देने के लिये आज रमेश ने शीला को जिस आत्मीयता से बाँहों में भरा था उस प्रेम को शीला ने झट से पहचान लिया। शीला अपलक रमेश के मुख पर देखने लगी। रमेश ने जब शीला की नजरों को देखा तो बोल पड़ा "क्या देख रही हो?" शीला ने केवल गरदन हिला कर ना का इशारा किया। शीला के मुख पर महीन सी चमक बढ़ चुकी थी। दर्द पाकर भी शीला को पति के प्रेम की दो चुटकी प्राप्त हो जाती तो शीला दर्द को पारितोषिक समझती। रमेश रिपोर्ट लेने गया तो स्कैन डॉक्टर से पूछ बैठा कि शीला ठीक तो है? डाक्टर ने जो कहा वह सुनने को रमेश तैयार न था। डाक्टर ने शीला की रीढ़ में मल्टीपल माइलॉमा बताया जो हड्डी का कैंसर था। उसपर वज्रपात ये कि ये आखिरी स्टेज में था। डाक्टर बोला, “रमेश! आप इनको पी जी आई चंडीगढ़ की कैंसर यूनिट में ले जायें जहाँ कीमोथैरेपी और रेडिएशन से शीला का उपचार ‘शायद’ हो जाये”। डाक्टर ने शायद शब्द पर जिस प्रकार का बल दिया था उससे रमेश का दिल बैठ गया। वह चाहता था कि शीला के गले लिपट कर दहाड़े मार कर रोए। घिसटते क़दम रमेश को शीला के पास ले ही जा रहे थे कि रमेश ने खुद को व्यवस्थित कर लिया। यथा सम्भव सामान्य दिखने की कोशिश करते हुए रमेश ने अपनी पत्नी के सर पर हाथ फेरा और कहा, “रिपोर्ट सामान्य है चलो अब घर चलें”। रमेश की हकलाहट से ही शीला ने रिपोर्ट का हाल जान लिया, वहाँ से रमेश शीला को घर लेकर आ गया। रमेश का मन बदलने का कारण यह भी था कि रमेश को घर के कामों का अभ्यास होने लगा था। शाम हो चली थी, रमेश कुर्सी पर बैठा बिस्तर पर लेटी हुई शीला को देख रहा था। विचार और यादें उसके स्मृति पटल पर रेंगने लगे देखते-देखते उस घटना को चार साल बीत गये जब उनके खुशहाल परिवार में द्वंद्व पैदा हो गया था। रमेश पुरुष वादी कार्य वितरण से क्रोधित शीला और रमेश में वाक-युद्ध इस चरम पर पहुँचा कि शीला के मुँह से रमेश के लिये गाली निकल गई। रमेश को अपनी पत्नी रूपी सेविका के मुख से गाली कैसे बर्दाश्त होती। रमेश ने कहा कि माफी माँगे लेकिन शीला ज्यादा क्रोध में थी। रमेश ने शीला को सबक सीखने की सोची और शीला को तब तक थप्पड़ मारता गया जब तक शीला नीचे नहीं गिर गई। वो दिन था दोनों बस सीमित और ज़रूरी बातें ही किया करते थे। आज भी शीला उस दिन की तरह ही बेबस थी। रमेश शीला से भी ज्यादा बेबस था क्योंकि उस दिन के थप्पड़ उसे पश्चाताप के रूप उसपर वापस बरस रहे थे।
रमेश जान चुका था कि अब शीला के साथ उसका सफर अनिश्चित है। लेकिन रमेश कुछ भी करके शीला को अब खुद से दूर नहीं होने देना चाहता था। लोकल डाक्टर के पास जाना बेकार था। रमेश ने अहम छोड़ा और अपने पिता को फोन लगाया। उसकी उम्मीद के विपरीत पिता ने तुरंत उसका फोन रिसीव किया और बोले, “बोलो बेटा”! रमेश खुद इतना टूटा हुआ था कि पिता को इतने साल बाद प्रणाम भी न कर सका बस फफक कर रो पड़ा। खुद को समेटकर रमेश ने सारी बात पिता को बताई तो पिता झट से बोले, “बेटा हम कल वहाँ पहुँच रहे हैं”। पिता को पूरा पता लिखवाकर रमेश दूसरे कमरे में अपनी पत्नी के पास पहुँचा तो उसे सोया हुआ पाया। अब वह घर के अन्य कार्यों में जुट गया। पत्नी को खाना खिलाकर रमेश ने पिताजी के आने की बात बताई तो शीला ने बड़ी खुशी जताई। वह आज एक अभिमान रहित रमेश को देख रही थी। सुबह अपने बच्चों को स्कूल भेजा और खुद छुट्टी माँगने हेतु दफ्तर गया। कई मित्रों से पैसों का आश्वासन लेकर वह शाम को घर वापस आया। रात तक रमेश के माता पिता भी घर पहुँच गये। उनका अभिवादन करने को शीला जबरदस्ती उठी और अपने सास ससुर के चरणों में प्रणाम किया। सास ने उसे झुकने नहीं दिया और गले से लगा लिया। बच्चों ने पहली बार दादा-दादी को देखा।
अगली सुबह एक एम्बुलेंस बुक कर पिताजी रमेश और शीला चंडीगढ़ हाईवे पर दौड़ रहे थे। पी जी आई हॉस्पिटल की कैंसर शाखा में भी भाग्यवश दाखिला मिल गया। शाम तक शीला के लिये कमरा भी मिल गया। अगले दिन डाक्टर ने फिर से सारे टैस्ट करवाए और रिपोर्ट आने पर रमेश को बताया कि शीला के बचने की सम्भावना बहुत कम है फिर भी हम कीमोथैरेपी और रेडिएशन लगा कर प्रयास करते हैं। उन्होने रमेश को बताया कि कैंसर को तो हम शायद ख़त्म कर दें लेकिन कीमोथैरेपी और रेडिएशन के दुष्प्रभाव से शीला की किडनी फेल हो सकती है। अब ये शीला पर निर्भर है कि शीला का शरीर कीमोथैरेपी को झेल सकता है या नहीं। इलाज शुरू हुआ, शुरुआती दिनों में ही शीला के शरीर का हर एक बाल झड़ने लगा, चेहरा सूखकर मुनक्के जैसा होने लगा। पैरों में ताकत नाम मात्र की रह गई थी। वजन इतना गिर गया था कि पन्खुडी भी उसके मुकाबले भारी थी। रमेश पूरी तरह टूट चुका था लेकिन उसने खुद को बिखरने से बचाए रखा था। एक शाम वो बैठा मैगजीन में हिमालय के एक शिखर की फोटो देख रहा था कि वो पर्वत के स्वभाव से प्रेरणा लेकर कुछ पंक्तियाँ बोल बैठा-
संध्या की बेला में सोने को व्याकुल हों वृक्ष पांत।
साँध्य कणों से आर्द्र हुए हों खेत फसल अरु घास पात॥
निंद्रा अपने अंक ओढ़ ले इस अंधियारे की चादर।
तान शीश मैं पर्वत प्रहरी अचल रहूंगा कालांतर॥
इन पंक्तियों ने रमेश के भीतर नई आशा का संचार किया तथा रमेश और जोश के साथ शीला की सेवा करने लगा। एक दिन रमेश के पिता रोज़ की तरह हॉस्पिटल कम्पाउण्ड में टहलने गये थे तो रमेश शीला को मौसम्भी छील कर खिला रहा था तभी शीला मौसम्म्भी चबाते हुए बोली, “मैने आपको बहुत परेशान कर दिया ना”? इस पर रमेश बनावटी गुस्सा दिखाते हुए बोला, “तुम्हारी खाते खाते बोलने की बुरी आदत है, पहले खा लो फिर मुँह खाली होने पर बोलो”। शीला बोली, “मुझे बोलने दीजिये, आप बहुत अच्छे हैं, आपको मेरी वजह से बड़ी तकलीफ उठानी पड़ रही है और मेरा शरीर मेरा साथ छोड़ रहा है। आप मुझपर अपना टाइम और पैसा बर्बाद मत कीजिये और मुझे शांति से इस दुनिया से जाने दीजिये”। इस पर रमेश नाराज़ होकर बोला, “नहीं! मैं तुम्हें कहीं नहीं जाने दे सकता, तुम रुकजाओ, मेरी ये प्रार्थना है”। इस पर शीला बोली, “हमारा साथ तो जन्मों का है, मैं चाहती हूँ कि हर जन्म में आप मेरे हमसफ़र बनें”। इसपर रमेश सर झुकाकर बोला, “हाँ! ताकि मैं अगले जन्म में भी तुम्हारे ऊपर थप्पड़ो की बरसात कर सकूं?” इसपर शीला बोली, “आप खुद को दोष मत दीजिये, दरअसल गलती मेरी थी मुझे ही गाली नहीं देनी चाहिये थी”। इस पर रमेश के मन की गाँठें खुल पड़ी और वो बोला, “गाली देकर तुमने उतना बड़ा अपराध नहीं किया था जितना कि मैंने खुद को नीच कार्य में ढकेलकर किया था। वीरू से भीरू बनाने में ज्यादा समय नहीं लगता। तुमने जो किया वो आवेश था, उसके लिये क्षमा माँगी जा सकती है लेकिन मेरा कृत्य तो कायरता की पराकाष्ठा था जिसके लिये कोई माफी नहीं होती है”। ये कहकर रमेश ने अपनी हथेली शीला के मुख के पास कर दी, शीला ने मौसम्भी के बीज रमेश के हाथ में थूक दिये और बोली, “मेरे मन में कोई द्वेष नहीं है आप स्वयं पर नाराज़ ना हो ये तो पूरे समाज की समस्या है कि हर कोई जीवनसाथी पर गुस्सा करना तो चाहता है पर अपने साथी को गुस्सा करने का अधिकार नहीं देता। आज मैं वादा करती हूँ कि मैं इस बीमारी से हार नहीं मानूंगी”। रमेश को पता था कि शीला को यदि कोई बचा सकता है तो वो है उसका आत्मविश्वास। वह पूरी तरह आश्वस्त था कि अब शीला को ठीक होने से कोई नही रोक सकता।
रमेश जानता था कि मनुष्य के मस्तिष्क में जिस प्रकार के विचार ज्यादा आते हैं उसके मस्तिष्क से उस ही प्रकार के रसायन ज्यादा प्रवाहित होते हैं। इसलिए रमेश ने शीला को कहा कि आज के बाद दोनों में से कोई भी नकारात्मक नहीं सोचेगा। दोनों हर कष्ट को हँसकर सहेंगे। बीमारी से अपना ध्यान पूरी तरह हटाकर उसके इलाज पर केंद्रित करेंगे। शीला के लिये ये सब पहाड़ खोदने से कम नहीँ था। बीमारी और इलाज दोनों ही उसके तन के दुश्मन बने हुए थे। कुछ दिन तो बेहद पीड़ा जनक थे लेकिन हर दिन कैंसरग्रस्त कोशिकाएँ शीला के शरीर से विदा हो रही थी। शीला की किडनियां काफी कमजोर पड़ गई थी डाक्टर ने अधिक मात्रा में पानी पीने की सलाह दी थी। पानी व जूस पी-पीकर शीला ऊब चुकी थी लेकिन रमेश समझा बुझा कर शीला को प्रतिदिन तय मात्रा में पानी पिला ही देता। रमेश बात-बात पर शीला को मजाक में छेड़ देता ताकी बीमारी के भारी भरकम माहौल को हल्का किया जा सके। बीमारी के पदचिन्ह शीला से दूर जाते से दिखने लगे थी। शीला कमजोर तो बहुत हो चुकी थी लेकिन कैंसर के दर्द से अब उसे निजात मिल चुकी थी। शीला कीमोथैरेपी का इलाज झेल गई थी। अब रमेश को लगा कि इस युद्ध को उन्होंने लगभग पूरा जीत लिया है। इस पर रमेश शीला से बोला, “आखिर तुमने मेरी रुक जाने की प्रार्थना स्वीकार कर ही ली”। इस पर शीला ने प्रेम से उत्तर दिया, “मैने तो उसे आपके प्रणय निवेदन की तरह ही स्वीकार किया था, इसलिये मुझे रुकना तो था ही। रुकना था ताकि मैं अपने जीवन की डोर के अंतिम छोर को उस क्षितिज तक बाँध आऊं जहाँ हम दोनों जीवन के सूर्यास्त तक एक साथ हाथ पकड़े चलते रहें”। रमेश की आँखें चमक बिखेर कर जवाब दे रही थी।
कुछ दिन बाद इलाज पूरा हुआ। हड्डियाँ जहाँ-जहाँ खोखली हो चली थी उसे ग्लू उपचार से ठीक कर दिया गया था। शीला को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई थी। रमेश, पिताजी और शीला तीनों एक बार फिर चंडीगढ़ हाईवे पर कार में थे। इस बार रमेश और शीला दोनों अपने घर वापस आ रहें थे पुराने सुदृढ़ रिश्तों और नई उमंगों के साथ।


Madan Mohan Thapliyal शैल

******** मंगली *********

मंगली, हां मंगली ही नाम था उसका. छोटी सी,नटखट आंगन में इधर -कूदना , मिट्टी में खेलना, तितलियों को देख मचलना, परिन्दों की नकल करना ,सबकी लाडली थी. रूप लावण्य की धनी, काले घुंघराले बाल, सफेद मोती से चमकते दांत. कभी -कभी जब माँ उसके नन्हें पैरों में पायल पहनाती तो ऐसा लगता सफेद चन्दन के पेड़ों पर सांप लिपटे हों.
लेकिन ----
इस बाला के भाग्य में सुख शायद विधाता ने लिखा ही नहीं. ' चार दिन की चाँदनी फिर अंधेरी रात ', जैसे ही मुंह से बोली ठीक से फूटने को हुई माँ चल बसी. पर उड़ने से पहले ही कतर लिए गए.घर के अन्य सदस्य रो रहे थे, वह एक टक सबको देखती, कभी रोती कभी दूर शून्य में कुछ निहारती. मोहल्ले के लोग आते,उसके सिर पर हाथ फेरते और बेचारी कहकर अलग बैठ जाते. उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर लोग क्यों रो रहे हैं,आज इनका सम्बोधन क्यों बदल गया, सब उसकी समझ के परे था. इतने में उसने देखा माँ को एक कपड़े में लपेट रहे हैं, उसके नन्हें से जहन में आया ,माँ को शायद सर्दी लग गई है. क्यों कि उसने कई बार माँ को यह कहते सुना था ले स्वेटर पहन ले या ओढ़नीओढ़ ले नहीं तो ठन्ड लग जाएगी. बाल हृदय, न जाने उसके मन में क्या चल रहा था, कुछ बड़ी हुई तो सबकुछ समझ में आने लगा था.
माँ रही नहीं, बाबा थे, ( वह पिता को बाबा कहती थी )
जो अन्दर से बहुत टूट चुके थे, उन्हें अगर फिक्र थी तो मंगली की, हमेशा उसीके भविष्य के बारे में ही सोचते रहते थे. उन्होंने मौन व्रत सा ले लिया था. समय बीतते देर नहीं लगती, अब मंगलीके स्कूल जाने का समय आ गया. गांव या नजदीक कोई स्कूल था नहीं अतः उसको दूर शहर में मौसी के पास भेजने का विचार किया गया. मौसी नेक और सुशील गृहणी थी, उन्होंने मंगली को ले जाना स्वीकार लिया. मौसी आईं और मंगली को साथ ले गई. मंगली बाबा से अलग होते समय खूब रोई, बाबा भी कलेजे के टुकड़े को दूर जाता देख दहाड़ मार कर रोने लगे. एक वही तो सहारा था जिसके साथ दिन कट रहे थे लेकिन आखिर उसका भविष्य ----.
विदा करते समय बाबा बोले, खूब पढ़ाई करना, मैं तुम्हें बीस वर्ष पर एक तोहफा दूंगा, यह मेरा वचन है. मंगली ने कुछ सुना नहीं,वह तो सुबक रही थी,दूसरी बार उसे इतना दु:ख जो झेलना पड़ रहा है. रेलगाड़ी में बैठते वक्त वह बाबा को छोड़ ही नहीं रही थी, जैसे ही गाड़ी प्लेटफार्म में रेंगने लगी दोनों अनवरत रोने लगे. बाबा ,जिनका नाम नेकचन्द था हाथ हिलाते रहे जब तक गाड़ी आँखों से ओझल नहीं हो गई.
समय बीतता चला गया, मंगली का नाम अब राधा पड़ गया. अब उसने हिरनी की तरह छलांगें लगाते हुए बारहवीं और फिर बी. टी. सी. परीक्षा प्रथम श्रेणी में उतीर्ण कर लीं. इसी बीच घर से बाबा का मौसी के लिए पत्र आया कि उन्हें 26 जनवरी को मंगली से मिलना है बहुत जरूरी काम है. मंगली की समझ में नहीं आ रहा था कि इतने वर्षों बाद बाबा को इतना जरूरी काम क्या पड़ गया. अब वो सयानी हो गई थी, वह समझने लगी कि कहीं बाबा उसकी शादी तो नहीं कर देंगे,उन्होंने तो दिन भी तय कर दिया है. उसके मन में कई प्रश्न उठ रहे थे. मुझे अभी विवाह के बन्धन में नहीं बंधना है ,अपने पैरों पर खड़ा होना है, आदि 2-----
25जनवरी की रात मंगली और मौसी गांव के लिए चल पड़े.
रेलगाड़ी सरपट अपने गंतव्य की ओर भागे जा रही थी, गाड़ी में लगभग सभी लोग सो रहे थे लेकिन नींद, राधा ( मंगली) की आँखों से कोसों दूर थी. वह सोच रही थी कि यदि बाबा ने उसकी शादी कर दी तो क्या होगा ? पढ़ना बेकार हुआ.
न जाने कब रेल का सफर पूरा हुआ,पता ही नहीं चला. दोनों समान समेट कर ,ताँगे से चल पड़े घर की ओर. उसकी आँखें बाबा को खोज रही थीं कि कब भेंट हो और -----
कुछ ही देर में गांव की सरहद आ गई और पलभर में आ गया अपना गांव. उसके कदम तेजी से घर की ओर बढ़ रहे थे, ए क्या घर के दरवाजे पर बड़ा सा ताला लटका था . उसकी आँखें बाबाको खोज पातीं,कुछ भले लोग उसके पास आए और इसारे से उसको दूसरी ओर ले गए, राधा भी यंत्र चालित सी चल पड़ी. माँ समान मौसी साथ में थीं तो डर किस बात का. लगभग चौथाई किलोमीटर चले होंगे कि उन्हें लोगों की भीड़ दिखाई दी, मन शंकित था लेकिन लोग हंसते हुए चले जा रहे थे तो यह भ्रम भी टूट गया,सामने से लाउडस्पीकर की मधुर धुन सुनाई दे रही थी आखिर सामने सजा -सजाया पंडाल नजर आया जहाँ देश -भक्ति के गाने बज रहे थे. राधा की नजरें तो बाबा को खोज रही थीं जो कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे --दिल जोर-जोर से धड़क रहा था, मन में नए-नए भाव आ रहे थे.
साथ वाले लोग उन्हें मंच की ओर ले गए जहाँ गरमजोशी से उनका स्वागत हुआ और सम्मान के साथ उचित स्थान पर बिठा दिया गया. राधा के मन में तरह-तरह के विचार कौंध रहे थे,यह सब क्या है उसकी बुद्धि में कुछ भी नहीं समा रहा था, बाबा से पूछती लेकिन वे नदारत थे. मंच से घोषणा हुई --- आज के कार्यक्रम की विधिवत घोषणा के लिए मैं शिक्षा विभाग के वरिष्ठ सदस्य को मंच पर आमंत्रित करता हूँ. खद्दर की पोशाक पहने एक संभ्रांत व्यक्ति मंच पर आए और कार्यक्रम को प्रारम्भ करने की अनुमति दे दी.
उद्घोषक ---मैं आज की अध्यक्षता के लिए,शान्त,सुशील, सामाजिक कार्यकर्ता श्री नेक चन्द जी को मंच पर आमंत्रित करता हूँ , तालियों की गड़गड़ाहट के साथ भव्य स्वागत. राधा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. बाबा ! 26 जनवरी के कार्यक्रम के अध्यक्ष, आँखें नम हो गईं.
बारी-बारी से सारे कार्यक्रम हुए, अन्त में शिक्षा अधिकारी महोदय मंच पर आए और जनता को संबोधित करते हुए कहने लगे,आज के ऐतिहासिक दिन पर एक ऐतिहासिक घोषणा करते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है कि हमें अपने विद्यालय के लिए प्रधानाचार्य के रूप में सुयोग्य प्रधानाध्यापिका मिल गई हैं. मैं आज के सभाध्यक्ष महोदय से विनम्र निवेदन करता हूँ कि वे इस पद की सम्पूर्ण जानकारी जनता को दें.
रुंधे गले से नेक चन्द जी ने जो नाम घोषित किया उसने राधा के मन में बाबा के प्रति उत्पन्न सारी शंकाओं को धो दिया और वो लगभग दौड़ती हुई,बाबा से लिपट गई और दोनों-- पिता और बेटी के आँखों से गंगा -जमुना बह निकली . शिक्षाधिकारी महोदय ने विद्यालय की वरिष्ठ शिक्षिका को नईं प्रधानाध्यापिका को माल्यार्पण के लिए मंच पर आमंत्रित किया. फिर---
अध्यक्ष महोदय ने गर्व से कहा--आज मेरा अपनी स्वर्गवासी पत्नी को दिया बचन और मंगली आज की राधा को दिया तोहफे का बचन पूर्ण हुआ, मैंने उससे कहा था 20 वर्ष की उम्र में मैं तुम्हें कुछ खास भेंट दूँगा जिसको शिक्षा विभाग ने पूरा किया ,आज ही राधा का जन्म दिन है,मेरी तरफ से इस खुशी के मौके पर सभी के लिए भोज का आयोजन किया गया है आप सब सादर आमंत्रित हैं.
उद्घोषक महोदय ने बड़ी विनम्रता से नई प्रधानाध्यपिका को दो शब्द कहने का अनुरोध किया. राधा ने पहले ऐतिहासिक दिन पर प्रकाश डाला और सभी का धन्यवाद किया. फिर अपने बाबा की ओर नजर घुमाकर ए पवित्र चार पंक्तियाँ गुनगुनाईं ---
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव विद्या द्रविणम् त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देवदेव ।।
फिर आकाश की ओर निहार कर माँ स्मरण किया.
'शैल'


Ajai Agarwal [ आभा अग्रवाल ]

''स्वयंसिद्धा ''
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==='' प्रेम '' ! प्रेम का बिरवा धरती ,खाद ,पानी ,सही मौसम की प्रतीक्षा कहाँ करता है ; प्रेम! कुदरत का उपहार ; आज उस प्रेम की बतकही जो हर तरह के प्रेम का मूल है -मनु और शतरूपा का प्रेम ,आदम और हव्वा का प्रेम । प्रेम ! सरल और सहज भावना किसी को देख जोर से दिल धड़का -और-''गिरा अनयन नयन बिनु बानी '' वाला समा हो गया , उसे बार-बार देखने का मन होने लगा ,'''सिय मुख ससि भये नयन चकोरा ''और'' भये बिलोचन चारु अचंचल '' वाली स्थिति हो गयी । पास जाने की , बात करने की तीव्र इच्छा पर सामना होते ही होठों पे टेप लग गया हो ज्यूँ ; चमकीला वाला लाल टेप ,इतना चमकीला और लाल कि उसकी रश्मियों से वो भी समझ गया तुम कुछ कहना चाहते हो पर कह नही पा रहे। आँखों -आँखों में हो गयी बात ,तुम उससे प्रेम में हो उसे मालूम हो गया और आश्चर्य तुम्हें भी अहसास हो गया ''दोनों ओर प्रेम पलता है ''।
=== बचपन से साथ पले ,बढ़े ,खेले कूदे। धौल -धप्पा ,किंगोड़ ,हिंसर बेडू ,तोड़ते ,कच्चे अखरोट के छिलके से साफ़ करे दांत और लाल होंठों पे ताली पीटते ,मालू के पत्तों के दोनों में ढेर से जंगली गुलाब ले गंगा में बहाते -बहाते न जाने कब अनु मुझसे कतराने लगी पता ही न चला । अभी कुछ दिन ही तो हुये जब मैंने अनु के कानों के छेदों में जंगली गुलाब के गुच्छे पहनाये थे ,उसके लिए गजरा बनाया था, कितनी सुंदर लग रही थी अनु पहन के। पर अचानक ये क्या हो गया , वो शर्माने लगी , कौन सा अहसास है ; क्या प्रेम का अंकुर पनप रहा है ? पर अब तक कहाँ था ये निगोड़ा प्रेम ? हम बड़े ही क्यूँ हुए ! तब हर पल का साथ था और अब देखने के लिये भी समय चुराना पड़ता है। बस कनखियों में ही बात हो पाती है।
=== अनुभा साधारण से संस्कारी घर की इकलौती लाड़ली बिटिया। धूप सी सफेद -हाथ लगाओ तो मैली हो जाये ,छुई-मुई सी नाजुक ,निगाहें मिलीं कि सिमट गयी। किशोर वय का खुमार -अनूप के चेतन -अवचेतन में हर पल अनु ही घूमने लगी। ये लडकियाँ किशोर अवस्था आते ही अपने में क्यूँ सिमट जाती हैं। क्यूँ मिलने पे पलकें झुका लेती है। वो कनखियों से मुझे देखती है ,क्यूँ मेरे पास मंडराती है पर कुछ कहूँ तो भाग जाती है।
=== अनूप अनु से बात करने को बेताब था। उसके पिता का स्थानान्तरण हो गया था। एक सप्ताह में ही उन्हें चले जाना था। सब लोग बड़े खुश थे ,गाँव से बड़े शहर जा रहे थे ,अनूप का सपना था वकालत पढने का वो भी पूरा हो जाएगा। पर न जाने क्यूँ अनूप बहुत उदास था ,वो नही जाना चाहता था गाँव छोड़ के ; पर क्यूँ ? शायद अनु के कारण ! अनु से बिछड़ने की कल्पना से ही उसका मुहं हलक पे आ गया था। एक बार कैसे भी मिल ले और देखा अनु गंगाजी में पानी भरने जा रही है। सारे काम छोड़ अनूप दौड़ा और सुनसान देख अनु का हाथ पकड़ उसे खींच लिया , कस के हाथ पकड़ अनूप ने हौले से अनु के कान में कहा - ''मैं तुमसे प्यार करने लगा हूँ '' । अनु तो सफेद ही पड़ गयी , जिन शब्दों की ,जिस अहसास की कल्पना भी उसे रोमांचित करती थी आज वही सुनने पे उसका दिल जोर जोर से धड़कने लगा ,पहाड़ के उस छोटे से कस्बाई गाँव की छोरी ,डाल में लगे पीपल के पत्ते की तरह कांपने लगी ,पूरा शरीर लरजने लगा ,आँखों से आंसू झरने लगे ,रंग पीला पड़ गया ,मन कर रहा था ये लम्हा कभी खत्म न हो पर शर्म से हाथ छुड़ा के भाग गयी। अनूप को होश आया तो उसे लगा वो लज्जा से गड़ ही जायेगा , ये उसने क्या कर दिया ,गर अनु ने किसी से कह दिया तो ,ये कैसी चाहत -छूने की चाहत को कहीं प्यार कहते हैं --पर प्यार ? वो क्या करे प्यार तो वो करता है अनु से ,अनूप को लगा उसका प्रेम परवान चढ़ने से पहले ही मर गया। हताश निराश वो चल दिया जीवन की राह पे।
=== और अनु ---वो तो मीरा सी बावरी होली , राधा सी दीवानी होली। हर पल आँखों के आगे वही दृश्य , अनूप मेरा है ,उसने मेरा हाथ पकड़ा ,प्यार करता हूँ बोला ,दौड़ के कमरे में जाती और बार-बार आरसी में स्वयं को निहारती -''आपु आपु ही आरसी लखि रीझत रिझवारी ''अपने पे ही रीझ रही है और सोच रही है
''-है स्पर्श मलय के झिलमिल सा संज्ञा को सुलाता है।
पुलकित हो आँखें बंद किये तंद्रा को पास बुलाता है।
मादक भाव सामने ,सुंदर एक चित्र सा कौन यहाँ।
जिसे देखने को ये जीवन मर मर कर सौ बार जिए। ''
=== समय चक्र तेजी से घूमता है। अनूप वकालत करके अधिवक्ता बन गया। वकालत चल निकली। शहर के गिने चुने लोगों में नाम हो गया। पिता ने एक बड़े घर में रिश्ता तय कर दिया। दोनों घरों में विवाह की खुशियाँ , मांगल और नियत समय पे लगन। कुसुम --हाँ कुसुम कली सी ही है नई दुल्हन। अभिजात्य वर्ग की ठसक लिए ,नाजुक भी और सुंदर भी ,पर लोच और नजाकत गायब ,मानो जंगली गुलाब के बीच -ट्यूब रोज का गुच्छा -मासूमियत भी कुछ अलग तरह की। पहली छुवन में भी वो लरजना नही --क्या चाहता है अनूप ? सोच रहा है -प्रथम मिलन में अनु क्यूँ आ रही है मेरी पुतलियों में।वो तो रोते हुए भाग गई थी मेरे छूने पे ,फिर अब तक उसका भी विवाह हो गया होगा ,झटक देना चाहता है अनु को पर -पर -पर वो तो छायावाद की कविता की भांति समां चुकी है अस्तित्व में --''एक वीणा की मृदु झंकार ,कहाँ है सुंदरता का पार ,
तुम्हें किस दर्पण में सुकुमारि ,दिखाऊं मैं साकार ,
तुम्हारे छूने में था प्राण संग में पावन गंगा स्नान ,
तुम्हारी वाणी में कल्याणि-त्रिवेणी की लहरों का गान। ''
आज अनूप निशब्द है ,प्रेम को ढूंढ रहा है। मन में ग्लानि भी है प्रथम मिलन में पूर्णसमर्पण न होने की '; क्या वो पत्नी को छल रहा है। ऐसे ही गृहस्थी की गाड़ी चल निकली। यदि घर में साथ रहने को ,सड़कों में हाथ पकड़ के घूमने को ,बच्चे पैदा करने और पालने को प्यार कहते हैं तो हाँ ! पति -पत्नी में प्यार था बहुत प्यार पर जब भी अनूप बालकनी में अकेला होता या रात में किसी लैम्पपोस्ट के नीचे होता घूमता हुआ ,कुदरत जैसे लम्बी लम्बी छायाओं में अनु के चित्र बनाने लगती।
=== और अनु ,वो अनु जो अनूप की हो चुकी है ,दीवानी मीरा की तरह बचपन की स्कूल की तस्वीर को पर्स में रखे हुए है , इसे देखकर ही उसके दिन का प्रारम्भ होता है , इस तस्वीर में अनु को केवल अनूप ही दिखाई देता है और कोई नहीं। उसे ही सीने से लगाती है ,बलाएँ लेती है। क्या हुआ जो मीरा ने कन्हैया को नहीं देखा ,क्या हुआ जो कान्हा राधा को छोड़ गए --राधा तो आज भी कान्हा की ही है न !
अनु ने हिंदी साहित्य से स्नातकोत्तर किया और फिर ''भक्ति काल में कान्हा राधा के प्रेम की सत्यता '' पे शोध भी किया। ये सब करके वो विदुषी सुंदर बाला अपने ही गाँव में आ बसी ,वहां छोटी सी पाठशाला में बच्चों को पढ़ाने लगी। शीघ्र ही उसने गाँव का कायाकल्प कर दिया ,छोटा सा सजा -संवरा स्वच्छ -आधुनिक गाँव। वो बच्चों की प्रिय दीदी और गाँव की लाड़ली बेटी बन गई। माता -पिता को अनु के विवाह की चिंता खाये जा रही थी। अनु अप्रतिम सुंदरी थी ,जंगली गुलाब सी नाजुक गुलाबी रंगत लिए साथ में विदुषी और व्यवहार कुशल ,प्यार तो उसके रूप से ही बरसता था। एक से एक रिश्ते आये पर अनु टालती गई ,जब माँ की ओर से अधिक दबाव बना तो एक दिन उसने माँ को अपने प्यार की दास्ताँ सुना ही दी कि , वो तो बचपन में ही अनूप का हाथ थाम चुकी थी। माँ सर पकड़ के बैठ गई ऐसा भी कहीं होता है ,ये क्या बचपना है ,अनु तुम कलयुग में हो द्वापर में नहीं जो राधा बनी घूमो -पर माँ मीरा तो कलयुग में ही थी न --और माँ निरुत्तर। अनु कैसे काटेगी बिटिया पहाड़ सी जिंदगी , एक तो तेरा ये अप्रतिम रूप ऊपर से विरहिणी -बिटिया तू और भी सुंदर हो गई है ,कैसे बचेगी समाज की नजरों से ? मेरी मान शादी कर ले घर -बच्चों में सब भूल जायेगी। अनूप बहुत बड़ा वकील हो गया है ,उसकी तस्वीर देखी है मैंने अखबार में ,उसकी एक बेटी भी है ,बिटिया वो तुझे भूल चूका है !
नहीं माँ ये बात नहीं है ,मैंने ही कहां कहा था उसे रुकने को वो तो आया था न ,खुश है वो यही काफी है ,मैंने प्रेम में कोई शर्त तो नहीं लगाई थी न !ये गाँव के बच्चे हैं न मेरे अपने ,एक पल को अनूप से जो प्यार मिला वही उलीच दूंगी जग में तू चिंता मत कर।प्रेम क्या पाना ही होता है ? मैं प्रेम करती हूँ माँ ! गंगा की तरह निर्मल और पवित्र ,शिव पार्वती को छोड़ समाधि में बैठ गए तो क्या ? इस जन्म में नहीं तो किसी और जन्म में ,ये तो जन्मों का बंधन है राधा भी मैं ही मीरा भी मैं !
=== समय न किसी की प्रतीक्षा करता है ,न किसी के लिए रुकता है। एक ही बिटिया वो भी अप्रतिम रूप की स्वामिनी ,धूप में खड़ी हो तो दिखाई न दे इतनी फुसरी ,पान खाये तो गले में उतरता दिखे ऐसी कांच सी रंगत ,विदुषी ,सरलमना पर समर्पण ऐसे व्यक्ति के प्रति जो ये जानता भी नहीं ,माँ-पिता चिंता में बूढ़े होके असमय ब्रह्मलीन हो गए ,पर जाते-जाते इस अनोखे प्यार और समर्पण की गाथा सरपंच काका को बता गये। अनेकों आशीष अनेकों दुवाएं अनु गाँव भर की लाड़ली है अब ,गाँव की लड़कियां उसकी सर परस्ती में अपने को महफूज मानती हैं ।
=== उधर अनूप के घर में नए मेहमान के आने की आहट है। घर भर में खुशियां हैं , समय भी आ गया पर नियति को कुछ और ही मंजूर था अनूप के माँ पिताजी और कुसुम की हस्पताल जाते हुए दुर्घटना में मौत हो गई। जिस घर में खुशियां दस्तक देने वाली थीं ,वहां अब मातमी चहल -पहल थी। अनूप बिखर गया था। कैसे सम्भाले अपने को -किसी तरह बेटी के सहारे अपने को संयत किया हुआ था उसने । इस नन्ही सी जान का क्या दोष।इसके लिए ही जियूँगा मैं।
==== ये खबर अखबार में छपी। पढ़के अनु को लगा उसके शरीर से प्राण निकल रहे हो मानो ,वो तो सोचती थी कभी अनूप के जीवन में झाँकूँगी भी नहीं ,उसे मालूम भी न चले इस प्रेम का पर ये क्या ? आज वो बेहाल है अनूप से मिलने के लिए ,झट से निर्णय लिया ,हाँ मैं मिलूंगी ,समाज कुछ भी कहे ,मैंने प्रेम के आगे समाज की परवाह कब की ,सरपंच काका से पता मंगवाया अनूप का और चल दी अपने गंतव्य की ओर। मूसलाधार बारिश और बिजली की कड़क ,मानो कोई संदेश हो ,न जाने कैसा निमंत्रण था इस तड़ित में ,पानी के बुलबुले धरती पे बन रहे थे ,फूट रहे थे मानो सदियों से प्यासी धरा सारा पानी सोख लेगी ---
''बुलबुलों का व्यापक संसार
बन-बिखर रहा न जाने क्यों
न जाने आज फिर क्यूँ छूने की अभिलाषा
खद्योत बन कौन सा पथ दिखलाती है ''
==== घर का दरवाजा खुला था ,मानो स्वागत हेतु ही खोला गया हो ,सीधे भीतर चली आई ,पहचानूंगी कैसे बचपन की तस्वीर को ? पर ये क्या अनूप तो बदला ही नहीं ,बस गमगीन है नियति की मार से। झट से अनूप का हाथ पकड़ लिया ,एक बार पुन: वही घटना घटी ,बाहर बिजली कड़की -H2 +O2 = H2O--और दोनों की आँखें झरने लगीं ,बरसों का रुका सैलाब बाँध तोड़ बह निकला --अनूप ---मैं अनु ! आश्चर्य विस्मित अनूप --तुम रोती हुई क्यूँ भागी थीं -पगले वही तो प्यार था -तुम समझ नहीं पाये ,आज भी न आती पर बिटिया को मेरी जरूरत है। हाथ पकड़ अनु ने कहा चलो गाँव चलें अनूप ,बिटिया को माँ की तो गाँव को तुम्हारी जरूरत है ,दोस्त की तरह रहेंगे ,हाँ अगले जन्म में मिलने का वादा अवश्य करना इतनी सी विनती है ,प्रेम किया है तुमसे तो इतना माँगूँ ये तो हक है न मेरा --अँधेरा लीलने चला था सबकुछ पर समर्पित प्रेम रूपी स्वयंसिद्धा बिजली बन रोशनी करने आ गई --यही तो है प्रेम - वासना-विमुक्त समर्पण है जहां ॥ आभा ॥


किरन श्रीवास्तव

(किस्मत)
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फूलों के सेज पर सपना सिकुडी हुई बैठी थी। किसी भी आहट पर सहम जाती । रात के दो बज चुके थे,सपना भी बेहद थकी थी लेकिन नींद आंखों से कोसो दूर...।
दरवाजे पर आहट हुई,रिश्ते की भाभीयां दरवाजे तक छोड हंसती खिलखिलाती चली जातीं हैं । राहुल को लडखडाते देख सपना सकपका कर खडी हो जाती है,शायद उसने पी रखी थी । आते ही बेड पर लेट कर बडबडाने लगा...तुम मेरी पसन्द नही हो ।मैं किसी और से प्यार करता हूँ...औरहमेशा उसी से प्यार करता रहूंगा । तुमसे शादी बस एक समझौता है..हो सके तो मुझे माफ कर देना,कहते-कहते कब सो गया पता ही नहीं चला ।
सपना को काटो तो खून नहीं जैसी हालत हो गयी थी। क्या-क्या सपने संजोए ससुराल आई थी,क्षण भर में सारे सपने धरासायी हो चुके थे आंसू रूकने का नाम नही ले रहे थे।
सुबह पहली रसोई का रस्म था, सपना जल्दी उठ कर तैयार होकर रसोई में आ चुकी थी..।
सभी उसके बनाये व्यंजन की तारीफ कर रहे थे ।मां पिता जी भी बेहद खुश थे। बस राहुल को छोडकर...।
राहुल मां बाबुजी के सामने सपना से अपनत्व से बोलता ,उनके कहने पर घुमाने ले जाता,पर रहते दोनों अलग-अलग।
कुछ ही दिनों में सपना ने घर को अच्छे से सम्भाल लिया। सबका बहुत ध्यान रखती।
मां-पिताजी ऐसी बहू पाकर फूले नही समा रहे थे बस राहुल हर वक्त रजनी के ख्यालों में खोया रहता ,उसने रजनी को अपनी शादी के बारे कुछ नहीं बताया था यही चिन्ता उसे खाये जा रही थी
धीरे-धीरे पन्द्रह दिन बीत गये..कल राहुल को जाना है सपना बहुत उदास लग रही थी। राहुल का सामान समेट कर सोने आयी तो राहुल जाग रहा था शायद उसी का इंतजार कर रहा था। सुनो...हूँ सपना ने कहा
मै तुम्हारा गुनाहगार हूँ तुम मुझे माफ कर दो। मैं तुम्हे कभी प्यार नही कर पाऊंगा,पिता जी से कुछ भी कहने का साहस मुझमें नही था। अब तुम्ही बताओ मैं क्या करूं...।
सपना कुछ देर मौन रही,सोचने लगी बचपन में मां बाप की मौत सडक दुर्घटना में हो गयी थी। मामा मामी ने पढाया लिखाया शादी की।अब फिर वो उनपर बोझ नही बन सकती। हर हाल में वो यही रहेगी। फिर धीरे से बोली इसमें आपका कोई दोष नहीं,शायद मेरी किस्मत का दोष है अगर आप कुछ कर सकते है तो बस यही की आप मेरी आगे की पढाई शुरू करवा दें। मैं मां पिता जी की देखभाल के साथ साथ पढाई करना चाहती हूं। राहुल सहर्ष मान गया,एम.काम.के साथ साथ बैंकिंग की तैयारी का भी सुझाव दिया ।
सब स्टेशन जाने के लिए तैयार हो गये थे,सपना ने खाने का कुछ सामान दिया.उसका फूल सा चेहरा मुरझा चुका था।स्टेशन पहूंच कर जब पता चला की ट्रेन एक घंटे लेट हो चुकीहै,नजाने क्यों सपना को अच्छा लगा। मां पिता जी हमलोगों को अकेले छोड स्टेशन पर धीरे-धीरे टहलने लगे।
राहुल धीरे से बोला सपना तुम रजनी के बारे में जानना नहीं चाहोगी ...? क्या जानना है इतना तो जरुर है की वो मुझसे बेहतर होगी ।
मेरे साथ काम करती है मुम्बई में ही रहती है नये जमाने की आधुनिक लडकी है वो मुझसे बहुत प्यार करती है धीरे से राहुल बोला।
हूँ ...कहकर सपना ने आंसू पोछ लिए और मुस्कराने का प्रयास करने लगी क्योंकि पानी की बोतल लिए बाबूजी आते दिखे एक घंटा मानो मिनटों में बीत गया। ट्रेन आ चुकी थी राहुल अपनी सीट पर बैठ चुका था।
दो मिनट बाद ट्रेन चल दी । मां बाबूजी ट्रेन को तब तक देखते रहे जब तक वो आंखों से ओझल न हो गयी।
धीरे-धीरे समय बीतने लगा ।सपना एम.काम. के साथ-साथ बैंक के परीक्षा की तैयारी का भी नामांकन कराया था। मां बाबुजी की देखभाल के साथ-साथ पढाई भी सुचारू रूप से करने लगी। प्रतियोगी परीक्षाओं में भी भाग लेती...
राहुल का फोन आता तो बस कुशल-क्षेम तक ही सीमित रहता..। पिता जी जब उसे राहुल के पास पहुंचाने की बात करते तो बडे ही सरलता से टाल देती। परीक्षा का बहाना बना कर....।
बैंक में पी. ओ.के लिए सपना का चयन हो गया था बाबु जी बहुत खुश थे,उन्होंने राहुल को फोन लगाया खुशखबरी देने के लिए ,तो उधर से किसी और का आवाज आया..हलो मैं राहुल का पिता बोल रहा हूँ..आप कौन बोल रहे हैं कृपया मेरी राहुल से बात कराइए ...उधर से जिसने फोन उठाया वो मुम्बई के अस्पताल से था..उसने बताया की राहुल का एक्सीडेन्ट हो गया है आप लोग जल्दी आ जाइए...सुनते ही बाबुजी गिर गये सपना दौडती हुई आई और चेहरे पर पानी का छिंटा दिया होश मे आने पर बाबु जी ने दुर्घटना के बारे में बताया पडोसियों
की मदद से आनन फानन में हवाई अड्डे पहुंचे कुछ ही घंटो के उडान के बाद मुम्बई पहचे।
सपना का दिल जोर जोर से धडक रहा था एक अंजानी आशंका .....।फिर भी वो मां बाबुजी को सम्भाले हुए थी ।
हास्पीटल पहुंच कर पूछ-ताछ केन्द्र से राहुल के बारे में जानकारी प्राप्त कर वे तेज कदमों से राहुल के कमरे तक पहुंचे,जहां एक लडकी बैठी मिली जिसने दुर्घटना के बारे में बताया और ये भी बताया की संक्रमण की वजह से राहुल का एक पैर काटना पडा तब जान बची ,नही तो कुछ भी हो सकता था...। उसनेअपना परिचय दिया । सपना तो उसे देखते ही पहचान गयी थी ।
राहुल अभी होश में नही आया था । डाक्टर ने मरीज के पास किसी भी तरह के शोर न करने की हिदायत देकर चले गये। रजनी जा चुकी थी। सपना मां बाबूजी को बाहर बैठा कर राहुल के पास बैठ गयी ।
राहुल को होश आ रहा था सपना दौड कर डाक्टर को बुला लायी। जांच के बाद सब कुछ ठीक कह कुछ जरूरी सुझाव दे कर डॉक्टर चले गये...।
दो महीने अस्पताल में बीत गये । डॉक्टर ने घर जाने की इजाजत आज दे दी। दो महीनो में तीन-चार बार ही रजनी राहुल से मिलने आई, सपना राहुल की देख भाल में कोई कसर नही छोडी थी।
एम्बुलेंस से चारो घर के लिए रवाना हो गये। एक छोटे से शहर और मुम्बई की आबो हवा में बहुत फर्क था ,सपना पढीलिखी समझदार थी उसने बहुत ही अच्छे से सब कुछ सम्भाल लिया था। लेकिन राहुल अभी दफ्तर नही जा सकता ।उसने घर में ही कम्प्यूटर पर काम करने का इजाजत ले ली थी..।
सपना उसके जीवन में वरदान साबित हो रही थी...मन ही मन वो सोचता है कि बचपन से ही बाबूजी का निर्णय उसके निर्णय से हमेशा बेहतर साबित हुआ है...सपना भी उसी की परिणाम थी...। रजनी ने अपना रास्ता बदल दिया था...शायद राहुल उसके काबिल नही रह गया था।
सपना बहुत खुश थी राहुल ने उसे तन-मन से अपना लिया था। सपना को पी.ओ.के साक्षात्कार नहीं दे पाने का दुख तो था लेकिन खुशी इस बात की थी की उसने जिंदगी के इम्तहान को पास कर लिया था। राहुल को भी उस पर गर्व था। आज उसके दिल से यही आवाज आ रहा थी-
"कायल था जिसकी दमक से
वो पत्थर निकला
कोयला समझ ठुकराया था
वो हीरा निकल गया।"
सपना को फिर एक बार यकीन हो गया था किस्मत पर....!!!!



नैनी  ग्रोवर 

~माँ जी से माँ का सफर ~

माँ बाप की इकलोती बेटी, और अपने बड़े भाई की दुलारी रुचि के ग्रेजुएशन करते ही घर में उसकी शादी की बातें चलने लगीं, माँ का ह्रदय थोडा परेशान था, रूचि वो करती थी, जो उसे पसन्द था, घर के किसी काम को वो हाथ तक ना लगाती, कभी मन हुआ तो रसोई में जाकर कुछ बना लिया इससे ज़यादा और कुछ नहीं, क्या होगा इसका ससुराल में कभी कभी माँ बड़बड़ाने लगती तो रुचि के पापा और भाई हंसी में टाल देते, और रूचि मुंह फुला कर अपने कमरे में जा बैठती, हूँ .. मुझे शादी ही नहीं करनी वो वहीं से चिल्ला देती, कुछ ही देर में पापा या भैया उसे मना लेते, और उसके बदले भी कोई ना कोई फरमाइश कर देती, माँ फिर भी उसे समझाती अरे यहाँ तो हूँ मैं वहां क्या करेगी वहां माँ नहीं सास होगी, पर रूचि तो रूचि थी, वो कहाँ सुनती पर माँ ने भी कभी प्यार से कभी डाँट कर खाना बनाना तो सिखा ही दिया...
पराग रूचि के बड़े भाई के ही दोस्त थे, और उन्हीं की कम्पनी में कार्यरत थे, रूचि के घर में सभी उनको पसन्द करते थे,.. पराग के पिता नहीं थे, घर में सिर्फ माँ थी, घर में रूचि और पराग के रिश्ते पर चर्चा होने लगी तो रूचि ने भी हाँ कर दी, उसे तो पराग शुरू से ही पसन्द था, जल्द ही दोनों की शादी हो गई...
रूचि की शादी को छ महीने ही हुए थे, उसे ऐसा लगने लगा के मानों सारे घर का काम उसी पर आ पड़ा हो, वैसे तो घर में तीन ही लोग थे, रूचि, पराग और पराग की मांजी..घर के झाड़ू पोछा, बर्तन और कपड़े धोना
काम वाली कर जाती थी, फिर भी बहुत काम थे जिन्हें निबटाने में दोपहर हो जाती... रूचि को अब उलझन होने लगी, वो तो पराग का प्यार था जो रूचि अब ज़्यादा ज़िद्दी नहीं रह गई थी, पर रोज़ रोज़ का ये काम उससे सम्भाला नही जा रहा था, मांजी जब भी उसे कुछ करने को कहतीं तो उसे अच्छा नहीं लगता, उधर मांजी सोचतीं के मैं रूचि को जो सिखा सकती हूँ सिखा दूँ, जीवन का क्या भरोसा, उनके सिवा पराग का कोई था भी नहीं, ना भाई ना बहन, ऐसा नहीं के वो बार बार रूचि को ही पराग की पसन्द के बारे में बताती थीं, वो तो पराग को भी रूचि की पसन्द नापसन्द जानने की सालाह देती रहतीं, और नादान रुचि इस बात को समझ ही ना पाती... ऐसा नही के माँजी उसकी लापरवाही को महसूस नहीं करती थीं, परन्तु वो एक समझदार व् सभ्य महिला थीं, और रूचि के आदतों से अनभिज्ञ भी नहीं थीं, उन्हें तो रूचि में अपनी बेटी ही नज़र आती थी, पराग भी रूचि का बहुत ध्यान रखता, उसे बाहर घुमाने भी ले जाता...
आज रूचि को सुबह से ही सर में दर्द महसूस हो रहा है, आज रविवार है पराग की छुट्टी भी है..
फ्रेश होकर उसने चाय बनाई और मांजी को भी दे आई, पराग उठो चाय तैयार है..
उहं.. सोने दो ना थोड़ा और..
नहीं.. उठ जाओ ना अब, आज नाश्ता बाहर से ले आओ..
तुम्हें पता है मांजी बाहर का कुछ खाती नहीं हैं..घर पे ही कुछ बना लो..
रूचि बिना कुछ बोले किचन में आ गई..
ये भी कोई बात है सप्ताह में एक दिन भी आराम नही.. माँ के घर कितना अच्छा था.. यहाँ तो सुबह, दोपहर, शाम किचन में ही निकल जाते हैं..
पोहा और जूस बना कर रूचि ने मांजी और पराग को आवाज़ लगाईं, और नाश्ता टेबल पर लगा दिया..कामवाली भी आकर अपने काम निबटा रही थी..रूचि ने थोड़ा सा ही पोहा खाया और उठ गई, कामवाली को सब काम समझा के बैडरूम में आ गई..रूम ठीक करते करते उसे थकान होने लगी, बिस्तर ठीक करके वो लेट गई, खाने में तो अभी बहुत समय है उठ कर बना लूँगी.. ये भी क्या मुसीबत है क्या मांजी कभी कभार नाश्ता भी नहीं बना सकतीं, मेरे आने से पहले भी तो करती थीं.. अब तो बस पराग को ये पसन्द है वो पसन्द है बताती रहती हैं.. उस पर भी नुक्ताचीनी ये कम हो गया वो ज़्यादा हो गया..रूचि बेटा पोहे में थोड़े करीपत्ते भी डाल दिया करो पराग को पसन्द हैं.. हूँ, जैसे मैं तो निपट गंवार हूँ.. सोचते सोचते ना जाने कब उसे नींद आ गई..आँख खुली तो पूरा बदन दर्द कर रहा था, मांजी उसके पास बैठीं उसका सर सहला रही थीं..कमरे की लाइट जल रही थी, और बाहर अँधेरा था..
अरे, मैं सोती रही किसी ने उठाया क्यों नहीं मुझे ?
लेटी रहो बेटा.. तुम्हें बहुत तेज़ बुखार था, अभी कुछ कम हुआ है.. मांजी बोलीं
बुखार.. रूचि बोली
हाँ बेटा .. तुमने सुबह बताया क्यों नहीं के तुम्हारी तबियत ठीक नहीं ? वो तो पराग जब कमरे में आया तो मालूम हुआ..
वो मांजी सर में दर्द तो था थोडा, मैं समझी आराम करुँगी तो ठीक हो जाएगा..
चलो कोई नही, अब आगे से ज़रा भी कुछ हो तो उसी समय मुझे बताना.. ठीक है ना
जी माँजी...
अच्छा मैं ज़रा रसोई में जाकर तुम्हारे लिए कुछ बना लाती हूँ, फिर तुम्हें दवा भी देनी है..पराग को भेजती हूँ तुम्हारे पास बैठेगा...
माँजी के जाते ही पराग कमरे में आ गया ..
ठीक हो ना तुम.. पराग ने उसका हाथ पकड़ते हुए पूछा
हाँ .. रूचि सर हिलाते हुए बोली
तुमने तो डरा ही दिया.. माँजी तो रोने लगीं थी..
क्यों .. माँजी क्यों रो रही थीं..
कह रहीं थी के नाजुक सी कली पे सारा बोझ डाल दिया मैंने.. अब खाना वाना मैं खुद ही बनाऊँगी.. पराग उसे छेड़ते हुए बोला..
चलो हटो.. वो इस उम्र में काम करेंगी और मैं देखूंगी, ऐसा नहीं हो सकता.. रूचि के मुंह से अचानक निकला..
अच्छा जी... पराग मुस्कुरा दिया
तभी मांझी ने बाहर से आवाज़ लगाई..
पराग..
हाँ माँ .. आओ ना..
लो बेटा ये सेब खा के दवा ले लो .. मैं खिचड़ी बना रही हूँ, थोड़ी देर में लाती हूँ...
माँजी आप बैठो ना यहाँ.. रूचि उनका हाथ पकड़ कर बोली,
क्या हुआ बेटा सर में दर्द ज़्यादा है क्या ..... माँजी उसका माथा सहलाते हुए बोलीं..
नहीं .. बस आप बैठो ना.. मैं कुछ देर में बना दूँगी खिचड़ी,
चुपचाप लेटो दवा खाकर...मैं हूँ ना.. और कुछ दिन पूरा आराम करना है तुम्हें... माँजी सेब का टुकड़ा उसके मुंह में डालते हुए बोलीं ..उनका एक हाथ अभी भी रूचि का माथा सहला रहा था...और उस हाथ का स्पर्श जैसे उसके सारे भावों का पिघला रहा था, रूचि जैसे खुद से ही शर्मिंदा हो उठी थी...
माँजी के प्यार भरे चेहरे में उसे माँ दिखाई देने लगी, अचानक ही रुचि माँजी से लिपट गई ..
माँ... उसकी आँखों से आंसूं बह निकले,
अरे क्या हुआ बेटा.. ठीक तो हो ना ..
उनसे लिपटे लिपटे ही रूचि ने हां में सर हिला दिया...
माँजी से माँ का सफर रूचि तय कर चुकी थी... उसके होठों पे प्यारी सी मुस्कान थी, माँ के हाथ उसकी पीठ थपक रहे थे.. और उसका एक हाथ पराग ने अपने हाथ में थाम रखा था... रूचि को कमरे की हर चीज़ जैसे नई नई लग रही थी..!!




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