Friday, September 2, 2016

आओ लिेखें कहानी - चौथी कहानी



आओ लिेखें कहानी - चौथी कहानी 
मित्रो स्वागत है आपका चौथी कहानी लिखने के प्रयास में. इस बार आपको चित्र पर केन्द्रित भाव के तहत कहानी का सृजन करना है. आत्महत्या मानसिक विकृति के रूप में समाज के हर वर्ग में मौजूद है. चाहे यह किसान मजदूर की फसल और कर्ज या गरीबी के कारण हो या प्रेम पाने या असफलता के कारण हो. आप कहानी को जो रूप देना चाहे लेकिन मूल भाव उसमे उदृत होना चाहिए. सकरात्मक या नकारत्मक दृष्टीकोण, यह आप पर निर्भर करता है .... शुभकामनाएं 
अन्य शर्ते:
1.
कहानी 500 - 1,500 शब्दों के बीच होनी चाहिए 
2.
आप 20 अगस्त 2016 तक अपनी कहानियां पोस्ट कर सकते है.
3.
कृपया पोस्ट की गई कहानियों के लिए टिप्पणियाँ उसी पोस्ट में प्रेषित करे. टिप्पणी नई पोस्ट रूप में मान्य नही.
कोशिश कीजिये - जहाँ जरुरत होगी वहां बता दिया जाएगा... लिखना आपको ही है. थोडी सहायता की गुंजाइश हो सकती है... - शुभकामनाएं

प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल {प्रोत्साहन हेतु लिखी हुई}
कामिनी का जन्मदिन
आज कामिनी खुश है वह पिछले चार सालों से अपना जन्मदिन इसी दिन मनाती है. उम्र के तो २४ पड़ाव पूरे कर लिए है उसने पिछले महीने. लेकिन चार सालो से यह आज का दिन सुनिश्चित किया है उसने. और पिछले दो दिन से वह तैयारी में लगी है कौशल भी कल वापिस आने वाला था और उसका नया जन्मदिन भी. दो दो खुशियाँ उसकी खुशी को चौगुना कर रही थी. क्या क्या करेगी कैसे कैसे करेगी यह सब उसने तय कर लिया था. बस उसे इंतजार था तो इस दिन का.
कल रात कौशल भी 15 दिन के बाद लौटा था विदेश के दौरे से. रात भर उससे ढेर सारी बाते करके उसने कौशल को सुला दिया था. खुद जल्द उठ कर वह काम में लग गई. आज की सुबह उसे खास जो बनानी थी. जैसे ही किचन से फुर्सत मिली उसने एक कप ब्लेक कॉफ़ी बनाई और बालकोनी में आकर बैठ गई. आज के दिन का इंतजार अब उसे हर रोज रहता है. इसी को सोचते हुए उसे चार साल पहले का घटनाक्रम याद हो आया .....
कामिनी उस दिन सुबह से गंभीर मुद्रा बनाये बैठी है. जिस चेहरे की पहचान मुस्कान थी उसने उसे आज न जाने ने कहाँ रख छोड़ा था. कालिज में पिछले एक साल से अतुल उसके जीवन का अभिन्न अंग था. हँसना खेलना, उठना बैठना, अपने दुःख सुख सब अतुल के साथ ही बीतता था उसका. अतुल का होनहार और खुश मिजाज इंसान था. उन दोनों के दोस्ती के चर्चे आम थे कालिज शहर में. प्रेम का अंकुर न जाने कब फूटा और दोनों का प्रेम कब परवान चढ़ा केवल वक्त ही उसकी गवाही दे रहा था. अतुल कामिनी को पढ़ाई में भी मदद करता था और इस वजह से घर पर आना जाना अक्सर होता था. कामिनी के माता पिता को भी कोई आपत्ति नही थी.
समय हंसी खुशी बीतता रहा और दोनों ने फैसला किया कि वे कालिज समाप्त होने के बाद शादी कर लेंगे. दोनों के घर परिवार तक बात पहुँची और उन्हें मंजूरी मिल गई. वे सपने सजोने लगे आने वाले कल के लिए उत्साहित नज़र आने लगे. कल दोनों का परीक्षा परिणाम भी आया और दोनों ने उसे मित्रो के साथ एक उत्सव रूप में मनाया.
आज सुबह सुबह अस्पताल से अतुल के पिता का फोन आया कि अब अतुल इस दुनिया में नही है. कल रात पार्टी के बाद अतुल कामिनी को छोड़ कर घर जा रहा था तो एक तेज ट्रक ने उसे कुचल दिया. लहूलुहान अतुल ने अस्पताल पहुंचते ही दम तोड़ दिया था. कामिनी ने जैसे ही यह सुना उसके होश उड़ गए. उसे लगा उसके सारे सपनों के किसी ने बेदर्दी से पंख नोच लिए हो जैसे, वह पत्थर की मूर्ति हो गई एकदम, उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था, फ़ोन का रिसीवर उसके हाथ से छूटते ही माँ की आवाज़ उसके कानों में पड़ी और उसके बाद उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया. जब उसे होश आया तो उसने पाया कि उसके आसपास उसके कई मित्र और माँ पापा बैठे हुए थे. वो माँ के गले लगकर यह कहते हुए सिसक उठी कि "माँ कहो न अतुल को कुछ नहीं हुआ है, उसके बिना मैं कैसे जिन्दा रहूंगी" फिर जब वह लोग अतुल के घर पहुचें तो अतुल के पार्थिव शरीर को देख वो पागलों की तरह दौड़कर उससे चिपटकर रोने लगी. "अतुल तुम ऐसे कैसे अपनी कामिनी को अकेला छोड़कर जा सकते हो ? प्लीज अतुल मुझे छोड़कर मत जाओ लौट आओ मैं जी नहीं पाउंगी तुम्हारे बिना" यह कहते हुए वह फूट फूट कर रोने लगी. सबके मन और आंखें भीग उठी. लेकिन उसे अब विश्वास करना ही पड़ा कि अतुल हमेशा के लिए उसे छोड़कर चला गया है. फिर कामिनी एक चलती फिरती लाश जैसे हो गई. हर वक़्त अपने में खोई रहती थी माँ बाबा के जरा सा कुछ कहते ही बच्चों की तरह बिलख कर रोने लगती थी.
एक दिन जब माँ सुबह उसके कमरे में आई तो उनकी चीख निकल पड़ी, कामिनी ने अपनी कलाई काट ली थी और वो मूर्छित अवस्था में पड़ी थी. उसकी कलाई से निकलते खून से पलंग की चादर और फर्श सना पड़ा था. उन्होंने तुरंत कामिनी के पापा को आवाज़ दी और फिर सड़क पर दौडती अम्बुलेंस के साथ वो लोग शहर के सबसे बड़े अस्पताल में थे.
अस्पताल पहुँचने पर ड्यूटी पर तैनात डॉक्टर ने कामिनी को देखते ही कहा ओह्ह यह तो पुलिस केस है, पुलिस के आने तक मैं इन्हें नहीं देख सकता हूँ, कामिनी की माँ चीख पड़ी "डॉक्टर आपको दिखाई नहीं दे रहा है मेरी बच्ची के शरीर से कितना खून बह गया है, भगवान् के वास्ते तरस खाइए और इसका इलाज़ शुरू कीजिये वर्ना यह मर जायेगी". उनकी तेज़ आवाज़ सुनते ही एक शांत लम्बा सा नवयुवक सामने वाले कमरे से बाहर निकल और बोला, डॉ कैलाश क्या बात है ? डॉ कैलाश में एक सांस में उस नवयुवक को सारा किस्सा सुना दिया वो तुरंत कामिनी की तरफ लपका उसने उसकी नब्ज़ पकड़ी और पुकारा "सिस्टर तुरंत इन्हें एडमिट करे और कामिनी के माँ पिताजी से बोला आप फ़िक्र मत कीजिये. मैं डॉ. कौशल त्यागी हूँ इमरजेंसी वार्ड का इंचार्ज और आपकी बेटी को कुछ नहीं नहीं होगा. डॉ कौशल की देखरेख में कामिनी का इलाज़ शुरू हुआ, उसके बदन से बहुत खून बह चुका था. उसका चेहरा सफ़ेद पड़ चुका था. डॉ ने कहा इन्हें खून की जरूरत पड़ेगी आप तुरंत खून का इंतजाम करे, कामिनी के माँ पिताजी ने कहा "डॉ आप हमारा सारा खून ले लीजिये लेकिन हमारी बच्ची को बचा लीजिये" कामिनी का ब्लड ग्रुप ओ पॉजिटिव था जो आसानी से मिलना मुश्किल था, खैर किसी तरह से दो बोतल खून का इंतज़ाम हो पाया, और एक बोतल खून की जरूरत थी. जब कहीं से कुछ इंतज़ाम नहीं हुआ तो कामिनी के बाबा हताश सर झुकाए बैठ गए. तब डॉ कौशल ने कहा आप फ़िक्र न करे मेरा ब्लड ग्रुप भी ओ पॉजिटिव है मैं आपकी बेटी को खून दूंगा. डॉ कौशल की बात सुनते ही कामिनी के माँ बाबा आत्मविभोर हो गए उन्हें लगा डॉ कौशल के रूप में साक्षात भगवान् उनके समक्ष खड़े थे, उसके बाबा ने झुककर जैसे ही डॉ कौशल के पैर छूना चाहा उन्होंने हंसकर उन्हें पकड़ लिया और बोले "अरे आप यह क्या कर रहे है, आप मुझसे बड़े है ऐसा करके मुझे पाप का भागी मत बनाइये, यह मेरा भी फर्ज है इंसानियत के नाते." इसके बाद डॉ कौशल के प्रयासों से न केवल कामिनी की जान बच गई बल्कि वह धीरे धीरे ठीक भी होने लगी.
डॉ कौशल बहुत ही खुशमिजाज डॉ थे, उनके आते ही सभी मरीजो के चेहरे पर मुस्कान आ जाती थी. हमेशा मुस्कुराते हुए सभी मरीजो के साथ बहुत आत्मीयता के साथ पेश आते थे वो. धीरे धीरे कामिनी के साथ भी उन्होंने दोस्ती कर ली. अब कामिनी उनसे बात करते हुए मुस्कुराने भी लगी लेकिन मुस्कुराते हुए वह अक्सर रो देती थी छोटे बच्चों की तरह. जिस दिन कामिनी अस्पताल से घर जाने के लिए तैयार हुई थी उस दिन भी डॉ कौशल ने गुलदस्ता कामिनी के हाथों में देते हुए कहा आज हमारी मरीज ठीक होकर वापिस घर जा रही है और ये सुंदर से फूल हमारी ख़ूबसूरत मरीज के लिए है. कामिनी ने हलके से मुस्कुराते हुए गुलदस्ता ले लिया और धीरे से बाहर की तरफ चल पड़ी. तभी डॉ कौशल ने कहा "कामिनी सुनो अगर हमारी याद आये तो प्लीज दोबारा नस वस् मत काट लेना अपनी. मुझे ही बुलावा भेज देना मैं चला आऊंगा मिलने." डॉ कौशल ने इतनी मासूमियत से यह बात कही कि कामिनी की हंसी छूट गई. डॉ कौशल उसके करीब आये और बोले "हाँ अभी ठीक है तुम ऐसे बहुत अच्छी लगती हो हंसती मुस्कुराती हुई ऐसे ही रहा करो". कामिनी ने हंसकर हाँ में सर हिलाया और आगे बढ़ गई.
सब ठीक चल रहा था लेकिन एक दिन शाम को कामिनी की माँ ने डॉ कौशल को फ़ोन पर वह कहा "बेटा तुम तुरंत घर आ जाओ कामिनी को जाने क्या हो गया है" डॉ कौशल ने कहा "मांजी आप चिंता न करे मैं आ रहा हूँ" डॉ कौशल कामिनी के घर पहुंचे तो सरला देवी उन्हें तुरंत कामिनी के कमरे में ले गई, जहाँ कामिनी निढाल पड़ी हुई थी, उन्होंने तुरंत देखा और कहा मांजी लगता है कामिनी ने नींद की गोलियां खा ली है. आप तुरंत गुनगुना करके पानी लाइए और उसके बाद उन्होंने तुरन्त अस्पताल फ़ोन करके सब जरुरी सामान घर पर ही मंगा लिया. उसके बाद रात तक डॉ कौशल के अथक प्रयासों के बाद कई बार उलटी करने के बाद कामिनी की हालत सुधरने लगी. डॉ कौशल उस रात वहीँ रुके, सुबह जब कामिनी को होश आया तो डॉ कौशल वहीँ बैठे हुए थे. उन्होंने कामिनी से मुस्कुराते हुए कहा "मैंने तुम्हे पहले ही कहा था जब मुझसे मिलने का मन हो या मेरी याद आये तो ऐसे ही कहला भेजना इतना सब करने की क्या जरूरत थी तुम्हे".
कामिनी सर झुकाए बैठी थी डॉ कौशल धीरे से उसके करीब आये और उसके पास बैठकर उन्होंने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा "कामिनी मुझे लगा था तुम बहुत समझदार और स्ट्रोंग लड़की हो, तुम इतनी कमजोर कैसे हो सकती हो ? मैं मानता हूँ किसी अपने के जाने का दुःख बहुत बड़ा होता है, लेकिन किसी के जाने से न तो जिन्दगी रूकती है और ना जाने वाले के साथ जाया जाता है. तुम सिर्फ अपने दुःख के बारे में ही सोच रही हो अब तक. अपने स्वार्थ में तुम इतनी अंधी हो गई हो कि तुम्हे एक बार भी अपने माँ बाबा का ध्यान नहीं आया? तुमने सोचा है एक बार भी कि तुम्हे कुछ हो गया तो उनका क्या होगा ? तुम उनकी एकमात्र संतान हो तुमसे कितनी आशायें है उन्हें और तुम्हारे बार बार ऐसा करने से उन्हें कितना कष्ट हो रहा होगा सोचा तुमने एक बार भी ? बोलो....." कामिनी सर झुकाए बैठी थी, डॉ कौशल ने उसकी ठोड़ी पकड़ उसके चेहरे को ऊपर उठाया तो देखा वह रो रही थी और उसकी बड़ी बड़ी आँखों से आसूं निकल रहे थे. आसूओं से उसका पूरा चेहरा भीगा हुआ था. अचानक कामिनी रोते हुए डॉ कौशल के गले लग गई और फिर बहुत देर तक वह उनके कंधे पर सर रखे रोती रही. डॉ कौशल बड़े प्यार से उसका सर सहलाते रहे,
इसके बाद डॉ कौशल लगभग रोज़ ही कामिनी से मिलने शाम को आने लगे. अब कामिनी न केवल ठीक होने लगी अपितु वह अपनी पीड़ा दुःख से भी उभरने लगी. जब भी वह जरा उदास होती डॉ कौशल से बात कर लेती और उसके बाद वह बहुत शांत पाती थी अपने मन को....इसी तरह दिन बीतने लगे. एक दिन जब डॉ कौशल का फ़ोन आया और उन्होंने कहा "कामिनी आज शाम जगजीत सिंह जी का कंसर्ट है मुझे दो पास मिले है क्या तुम मेरे साथ चलोगी ? अब यहाँ इस शहर में मुझे आये बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ है. तुम्हारे अलावा मेरा कोई ऐसा दोस्त भी नहीं है जो मेरी याद आने पर आत्महत्या करने पर अमादा हो जाता ह., सो सोचा तुम्ही से पूछ लूँ," उनकी इस बात को सुनते ही कामिनी खिलखिलाकर हंस पड़ी और उसने कहा ठीक है शाम को मिलते है. उस शाम डॉ कौशल की गाडी आकर रुकी और कामिनी के बाहर आते ही वो उसे एकटक देखते रह गए. हलके गुलाबी कलर की साड़ी में कामिनी बहुत ही प्यारी लग रही थी. खुले बाल और माथे पर छोटी सी बिंदी में कामिनी प्यारी लग रही थी. डॉ साब उसको देखते ही रह गए, तभी कामिनी पास आकर बोली "डॉ साब ऐसे ही निहारते रहेंगे या फिर चलेंगे भी". उसकी बात सुनते ही कौशल थोडा शर्माते हुए मुस्कुरा दिया. उस दिन कंसर्ट ख़त्म होने के बाद दोनों ने साथ खाना खाया. वापिसी में कौशल ने रास्ते में अपनी गाडी रोक दी. कामिनी ने हैरानी से कहा "डॉ साब क्या हुआ गाडी क्यों रोक दी आपने" तब कौशल ने उसकी आँखों में आंखें डालते हुए कहा "कामिनी मैं बहुत सीधा सरल सा इंसान हूँ, मैं जानता हूँ अतुल तुम्हारी जिन्दगी का अहम् हिस्सा था और उसे भुला पाना तुम्हारे लिए आसान नहीं है जरा भी. उसके वाबजूद मैं तुम्हे अपनी जीवन संगिनी बनाना चाहता हूँ, क्या तुम मेरे साथ अपनी जिन्दगी बिताना चाहोगी ?" कामिनी एकटक उसे देखे जा रही थी तब कौशल ने तुरन्त कहा "अब प्लीज तुम गंभीर मत हो जाना फिर से देखो अभी एकदम से जवाब देने की जरूरत नहीं है आराम से सोच विचार लो उसके बाद जवाब दे देना और हाँ तुम्हारा जवाब न भी हुआ तो हम हमेशा अच्छे दोस्त रहेंगे ये वादा है मेरा". उसके बाद बाकी रास्ता दोनों एकदम चुप रहे. कामिनी ने गाडी से उतर कर हाथ हिलाया और घर की तरफ चल दी. कौशल उसे जाते हुए तब तक देखता रहा जब तक वह घर के अन्दर दाखिल नहीं हो गई.
कामिनी आज बहुत पेशोपेश में थी, एक तरफ अतुल की यादें उसका प्यार था और दूसरी तरफ डॉ कौशल जैसा इंसान जिसने उसमें न सिर्फ फिर से जीने की ललक जगाई अपितु उसके साथ एक सच्चे मित्र की तरह खड़ा था. उसकी फ़िक्र करता था. आज उसने डॉ कौशल की आँखों में अपने लिए प्यार देखा. इसी कशमकश के साथ जाने कब रात आँखों आँखों में कट गई उसे पता ही नहीं चला.
सुबह हो चली थी कामिनी ने जब उसने बिस्तर से उठने की कोशिश की तो उसे सर भारी भारी लगा उसने माँ को आवाज़ दी, माँ दौड़कर आई और बोली ओह्ह तुम्हारा बदन तो बुरी तरह तप रहा है. माँ ने भी तुरंत डॉ कौशल को बुला लिया. डॉ कौशल ने उसके कमरे में प्रवेश करते ही कहा "हद करती हो यार तुम भी मुझे बुलाने के लिए हर बार बीमार होने की क्या जरूरत है, कभी कभी वैसे भी याद कर लिया करो...." .उसने ध्यान से डॉ कौशल के चेहरे की तरह देखा उनकी आँखों से लग रहा था कि वह भी सारी रात सोये नहीं थे. उन्होंने माँ से ठंडा पानी और पट्टी मंगवाई. खुद ही उसके माथे पर ठन्डे पानी की पट्टियाँ रखने लगे. करीब एक घंटे बाद कामिनी का बुखार उतर गया तब जाके उनके माथे की शिकन गई, कामिनी ने उठकर तकिये के सहारे बैठते हुए कहा "डॉ साब आपकी ये मरीज आपको बहुत दुखी करती है न", डॉ कौशल हँसते हुए बोले "हाँ बहुत तंग करती है यह मरीज मुझे" और मांजी की ओर देखते हुए कहा "इसका एक ही इलाज़ है, आप इसे मेरे घर शिफ्ट कर दीजिये मेरे पल्ले से बांधकर" उनकी यह बात सुनते ही कामिनी के गालों पर लाली छा गई और वह नज़रे नीचे कर मुस्कुराने लगी. माँ को उसके दिल की बात समझते देर न लगी, उन्होंने पास आके धीरे से कहा "कम्मू भेज दे तुझे डॉ साब के घर"? कामिनी हाँ कहते हुए माँ के गले लग गई. डॉ कौशल की ख़ुशी उनकी आँखों से साफ़ छलक रही थी. इस तरह से दोनों एक हो गए और विवाह बंधन में बांध गए.
मौत को गले लगाने वाली कामिनी को जिस दिन डॉ कौशल ने जिन्दगी दी उस दिन को उसने अपना जन्मदिन मान लिया. तब से वह इसी दिन अपना जन्मदिन मना रही है. यादो के सैलाब से बाहर निकलते ही और कौशल का ध्यान आते ही कामिनी मुस्करा दी और फिर किचन की तरफ चल पड़ी क्योंकि आज का दिन उसके और कौशल के नाम जो है....




मदन मोहन थपलियाल "शैल" 
12 अगस्त 2016

भाग्य ( प्रारब्ध ) और पुरुषार्थ
मैं भाग्य हूँ , पुरुषार्थ मेरा आलंबन है. पुरुषार्थ है तो मेरा उदय है, इसके बिना मेरा होना न होना कोई मायने नहीं रखता. मेरा और मानव का जन्म साथ-साथ हुआ. मुझे लोगों ने अपने - अपने विवेक, ज्ञान, तर्क आदि के हिसाब से परिभाषित किया. मेरी सराहना की गयी, कोसा गया, मेरी जै - जै कार हुई, मेरा तिरस्कार किया गया, कभी महिमा मंडित किया गया. लेकिन मैं दूर बैठ कर इस तमाशे को देखता रहा हूँ, देख रहा हूँ और देखता रहूँगा. मेरा पलड़ा कभी हलका और कभी भारी पुरुषार्थ के कारण होता रहता है. मेरा रूप एक ही परिवार में, हर व्यक्ति में , हर जगह अलग - अलग होता है. मेरे बारे में भविष्यवाणी करने वालों के तर्क हमेशा भिन्न होते हैं. मैं किसी से न तो द्वेष रखता हूँ और न किसी को पनाह देता हूँ. मैं हर जगह, हर वक्त, हर काल और हर भावना में उपस्थित रहता हूँ. कहीं अकाल मृत्यु वहाँ भी मैं, कहीं जन्म हुआ वहां भी मैं, चारों दिशा, आठों पहर मैं ही मैं. मैं स्वतंत्र हूँ सब मेरा गुणगान करते हैं, कब कहाँ क्या होता है कोई नहीं जानता, उलाहना सब देते हैं. हर दर्शन में मैं, वेद , उपनिषद, रामायण, महाभारत में- मैं, विश्व के हर तर्क में सिर्फ मैं, मेरे बग़ैर समय की गति को समझना असम्भव है. मुझे बाँधा नहीं जा सकता है , न खुश किया जा सकता है और न नाराज़. सृष्टि के आरम्भ से आज तक मेरा वर्चस्व रहा है. मेरा बनना बिगड़ना कोई नहीं जानता. मैंने कहा न, हर जगह मैं उपस्थित हूँ लेकिन बाधक नहीं और प्रेरक भी नहीं.
आज समाज कई कुरीतियों से ग्रसित है जिसमें आत्महत्या, हत्या प्रमुख हैं- इसमें मेरा कुछ भी लेना देना नहीं, आत्महत्या और प्रारब्ध का दूर -दूर तक कोई नाता नहीं फिर भी अकारण मुझ पर दोषारोपण किया जाता है. आत्महत्या के पीछे कई कारण हैं - जिसमें प्रमुख हैं पुरुषार्थ का अभाव, विवेकहीन होना, याने संज्ञा शून्य होना. इसको मतिभ्रम होना भी कह सकते हैं. ए सारे जघन्य अपराध की सूची में आते हैं. इसके पीछे आत्महत्या करने वाले की बुद्धि का अकेला तर्क नहीं होता - एक साथ कई उलझनें, असंख्य अनर्गल विचारधाराएँ अमावस की काली रात की तरह मन, चित- वृति को घेर लेती हैं और एक ही रास्ता सूझता है वह है प्राणान्त. इस तरह के क्रिया - कलाप मानव की अकर्मण्यता को दर्शाता है. मानव जब विवेक खो बैठता है तब जन्म होता है एक विकराल राक्षस का.
यह सोच अचानक पैदा नहीं होती, इसकी खिचड़ी- कई दिनों, महीनों, सालों से पकती रहती है - जिसके प्रेरणास्त्रोत होते हैं- तथा कथित सगे- संबन्धी, चाल बाज, दुश्मन, बड़बोले नेता, झूठे प्रलोभन, मानसिक तनाव, लोगों की क्रूर और घृणित नज़रें, छींटाकशी, तमासबीन, धूर्त, थोपे गए संस्कारों की दुहाई देने वाले जो हिमायती कम दर्शक अधिक होते है, इन्हें तो दूसरे के चूल्हे पर अपनी रोटी सेकनी है. इन्हीं कारणों से मनुष्य के मस्तिष्क पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है. सीधा - सरल व्यक्ति जो अपने विवेक से कम दूसरे की बुद्धि से काम लेता है अधिक प्रभावित होते हैं. जैसे - अन्नदाता कृषक जो धूप, पानी, सर्दी में कड़ी मेहनत से फ़सल उगाता है और बार -बार ईश्वर का धन्यवाद करता है, ऐसा कर्तव्य परायण जब दैवी- प्रकोप या राज तंत्र से छला जाता है तब उसे कहीं से भी मदद नहीं मिलती और अन्त में वह अपनी जीवन लीला समाप्त कर देता है. इसमें मेरा हाथ कहां है. ग़रीबी, भुखमरी, बुरे व्यसन -( नशा, मादक पदार्थ, जुआ ) अराजकता, किसी के झाँसे में आना ,सरकारी नीतियां आदि इसके लिए उत्तरदायी हैं, मैं नहीं, किसी को बलि का बकरा बनाना भी तो नीति - संगत नहीं. मानव पुरुषार्थ करने से कतराता है और भाग्य को इसका कारण मानता है, उलटा चोर कोतवाल को डांटे.
आजकल किसी का प्यार पाने के लिए आदमी पागलपन की सनक में असफल होने पर या तो आत्महत्या कर डालते हैं या आवेश में एक दूसरे की हत्या कर डालते हैं यह जाने बग़ैर कि मैं कौन हूँ , मेरी सीमा क्या है, अमुक से मेरा कोई संबन्ध है भी या नहीं, जघन्य पाप कर डालते हैं. पहली बात ए है कि प्यार या प्रेम की परिभाषा को ये जानते ही कहाँ हैं, प्रेम गंगा जल की तरह पवित्र, निर्मल और मन की पवित्र भावनाओं से संस्कारित होता है, ए ईश्वरीय गुण है, प्रेम पूजा है, आराधना है. यह शारीरिक भूख नहीं, मन की विकृति नहीं, न वासना है, यह तो अटूट संबन्ध है. जैसे कृष्ण - सुदामा का प्रेम, मीरा की कृष्ण भक्ति, और यदि आज के संदर्भ में देखें - लैला - मजनूँ, हीर - राँझा -- दो प्रेमियों का पवित्र बंधन. जहाँ त्याग है एक दूजे के लिए सच्चा प्रेम है, वहाँ कहीं भी हत्या या आत्महत्या का प्रश्न नहीं. आज तो राक्षसी प्रवृति है, विकृत मानसिकता है, ये दरिंदे हैं.
धर्म के पंडित सब विधाता का लिखा मानते हैं, मनुष्य कुछ नहीं कर सकता ? ऐसे तर्क मेरा उपहास करते हैं. विधाता ने भाग्य के साथ बहुत कुछ लिखा, मनुज उसी का अंश है , परमात्मा ने अपने सारे गुण मनुष्य को दे रखे हैं जिसका प्रभाव बचपन में साफ दिखाई देता है. लेकिन उम्र के साथ ईश्वरीय गुण कुछ हद तक तिरोहित हो जाते हैं, समय - समय पर मृत्यु का डर मानव को आस्था, ईश्वर भक्ति की ओर आकर्षित करता है क्यों कि जन्म - मृत्यु का लेखा - जोखा उसके आधीन है, नहीं तो मानव अपने दंभ से सृष्टि को ध्वस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ता.
जब -जब विवेक और पुरुषार्थ से काम बनते हैं लोग मेरी प्रशंसा करते नहीं अघाते हैं और जब काम बिगड़ता है तो मुझे कोसते हैं. मुझे पता है लोग हाथ पर हाथ धर बैठे रहते हैं और अहित होने पर पछताते हैं . सावधानी, सतर्कता, चेतना, विवेक, पुरुषार्थ आदि जीवन के मूल मंत्र हैं. जागो , मैं साथ में हूँ ही. याद है अनहोनी होने से पूर्व मैंने हर किसी को सावधान किया लेकिन मेरी सुनता ही कौन है ? सचेत रहना तो बनता है. राक्षसी प्रवृति से लोहा लेना हर जगह, हर वक्त, हर समय सम्भव नहीं. मैं सिर्फ सावधान कर सकता हूँ, और करता हूँ, अपने विवेक और पुरुषार्थ को हीन न होने दो. भाग्य का बनना बिगड़ना तुम्हारे अपने हाथ में है.
मैंने कभी किसी को रोका नहीं कुछ करने से, किसी की राह का रोड़ा नहीं बना, लेकिन तुम तो अपनी सीमा भूल जाते हो, अपनी भुजाओं पर इतराते हो, अपने को अक्ल का बादशाह मानते हो, है न कुछ ऐसा ही, और लोग तुम्हारी इज़्ज़त सड़क पर लाने में आमादा हैं. इनसान की भोली सूरत का एतबार न करो, अपनी परछाई से भी सावधान रहो.
मैं भी पूर्ण नहीं, पुरुषार्थ और विवेक के अभाव में मेरा अस्तित्व न के बराबर है, पूर्ण तो परमात्मा है हम सब ईश्वरीय सत्ता के रक्षक हैं, भक्षक नहीं. अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दें, नीतिगत शिक्षा दें, किसी का अहित न करें वे भी तुम्हारी तरह हैं. जो व्यवहार आप दूसरों से अपने लिए चाहते हैं वही व्यवहार दूसरों के साथ करें. आपकी हर सफलता में मैं आपके साथ हूँ और हर मुसीबत में सावधान करता रहूँगा.


[अंधा प्यार ]
कॉलेज की वार्षिक परीक्षा का आखिरी दिन सबके चेहरे पर एक सुकुन, सिवाय प्रिया के। उसे कॉलेज के सिनियर छात्र राज से प्यार हो गया था !और वो भी एक तरफा।उसे देखे बिना प्रिया को चैन नही आता लेकिन कह नही पायी कभी..।
प्रिया को आज भी वो दिन भूला नही था जब ,परिचय समारोह पार्टी में सीनियर्स उसकी खिचायी कर रहे थे वो हाथ जोड़े खडी थी, पर उन पर कोई असर नहीं पड़ रहा था । एक राज ही था जो उसका बचाव किया..। प्यार का अंकुरण इसी दिन फूटा था ।उस दिन के बाद से उनमें हल्की फुल्की बातें होने लगी । प्रिया विषयों से संबंधित समस्याओं को समझने के लिए अक्सर उससे मिलती थी । इतना वह जान गयी थी की पढ़ने मे तेज होने के साथ साथ वह बहुत ही अच्छा इंसान भी था ।बाकी लडकों से बिल्कुल अलग ।उसकी एक झलक के लिए प्रिया रोज बेचैन रहती...।
परीक्षा के बाद सभी खुश एक दूसरे से बाते करते हंसते खिलखिलाते आगे कैरियर का प्लान बनाते दिखे । प्रिया गुमसुम सी थी उसे इस बात का गम था की वो राज से परीक्षा परिणाम आने तक नहीं मिल पायेगी । धीरे-धीरे गेट की तरफ बढ रही थी तभी रमा ने पीछे से आवाज दी अरे प्रिया कहां जा रही है मैने सुबह तुझसे भी बोला था ,की परीक्षा के बाद सब कैंटीन में मिलतें है ,सभी पहुंच गये है एक तू ही..अरे भूल गयी हंसते हुए प्रिया ने कहा । किसी से प्यार-व्यार तो नहीं हो गया है इतनी खोई-खोई क्यों लग रही है । रमा ने जाने अंजाने में ही उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था ।
तू भी ना - जाने क्या क्या सोच लेती है ,बस थोड़ा सिर दर्द है । दोनों कैंटीन की तरफ बढ़ जाती है।
(
रमा प्रिया के बचपन की दोस्त है दोनों एक दूसरे से ज्यादा देर अलग नहीं रह पाती)
अरे प्रिया पेपर कैसा गया चुपचाप कमरें में जाती प्रिया को देखकर माँ ने पूछा?
ठीक हुआ माँ आती हूँ, कहकर कमरे में चली जाती है। उसे खुद समझ नहीं आ रहा था की उसकी ये हालत क्यों होती जा रही है जाकर बिस्तर पर लेट जाती है । सोते जागते उठते बैठते प्रिया के दिलो दिमाग पर बस राज का चेहरा घुमता रहता है । बेशक पढ़ाई पर भी असर पड़ रहा था..पर बेवश दिल...।
तभी माँ पानी का गिलास लिए आती है क्या हुआ प्रिया तवियत ठीक है ना , हां माँ बिल्कुल ठीक है कहती हुई बिस्तर पर बैठ जाती है । माँ पापा कब आ रहे है प्रिया ने पूछा ।
अगले हफ्ते नेहा को लेते हुए आऐंगे ।माँ ने बताया ।

(
प्रिया की एक छोटी बहन है जो की दिल्ली में रहकर इण्टर की पढाई के साथ आगे की पढाई के लिए कोचिंग करतीहै और उसके पापा सिविल इंजीनियर है अक्सर शहर से बाहर ही रहतें है।)
प्रिया माँ को बताती है की कल सभी दोस्तों का प्रोग्राम वाटर पार्क जाने का है ,पहले तो माँ मना करती है पर थोड़ी ना नुकूर के बाद मान जाती है। क्योंकि प्रिया थोड़ी जिद्दी थी बचपन से ही ..आज भी वो अपना जिद्द पूरा करवा कर ही मानती है।
वाटर पार्क में खूब मस्ती चार- पाँच घंटे कैसे बीत गये पता ही नहीं चला...। निकलते समय गेट पर राज किसी लड़की के साथ दिखायी पड़ता है सभी हाय हलो करते है और खुशी से अपने गंतव्य की ओर.बढ़ जातें हैं ।
ये दृश्य प्रिया को बहुत नागवार गुजरता है उसे समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक उसे क्या हो रहा है शरीर में थरथराहट सी होने लगी,किसी तरह अपने आपको सम्भालती है,उसको उस हाल में देख रमा पूछती है क्या हुआ ? प्रिया खड़ी क्यों है सब ठीक है ना । हां ,थोड़ा चक्कर आ गया था .कुछ खायेगी पीयेगी नहीं तो यही होगा ना । अरे तू तो दादी अम्मा बन जाती है ,कुछ नहीं हुआ चल .उसका हाथ पकड़े खिचती हुई बाहर निकल जाती है।
फिर वो रमा से अपने दिल की बात बताती है और रोने लगती है।रमा उसे रास्ते भर समझाती है चुप कराती है और कहती है की वो हकीकत का पता लगाएगी ,और जो बन पड़ेगा उसके लिए जरूर करेगी। रमा उसे उसके घर छोड़ अपने घर चली जाती है ।
घर पहुंचने पर प्रिया का उदास और खोया- खोया रूप माँ को अजीब लगता है। पर माँ ने नहीं पूछा ।सोचा थकी होने के कारण...।
रात में प्रिया को भयंकर बैचैनी वो बार-बार रमा को फोन कर रही थी और रमा उसे समझा रही थी की सुबह होने दे। फिर देखतें हैंक्या करना है।अब सो जा और मुझे भी सोने दे ।
लेकिन उस पर तो पागलपन सवार था।एक ही बात दिमाग में खलबली मचाये हुए थी की राज किस लड़की के साथ था । शायद वो उसी से प्यार करता है ,अगर ऐसा हुआ तो मैं जी नहीं पाऊंगी उसके बगैर ।मुझे पहले ही बता देना चाहिए था ,उसमें उसका क्या दोष ।वो तो मेरी दिलो दशा से अंजान है, लेकिन उस दृश्य को उसका दिल स्वीकार नहीं कर पा रहा था । अवसादग्रस्त हो बैचैनी से कमरे से अंदर बाहर आ जा रही थी । सोच समझ मानो कोसो दूर चला गया था... मन ही मन बुदबुदाती है ,अब मैं जी नहीं पाऊंगी अगर मेरा संदेह सही निकला तो ...। फिर उसने कुछ दवाएं निकाली और एक साथ खा ली । नींद में होने की वजह से माँ को पता ही नहीं चल पाया कुछ भी..।
जब कुछ गिरने की आवाज आती है तबआँख खुलती है तो बिस्तर पर प्रिया को न देख सोचती है बाथरूम में होगी वहाँ न पाकर दूसरे कमरे में आवाज लगाती हुई बालकनी तक जाती है ,वहाँ जो देखती है देखकर उसके होश उड़ जाते है प्रिया जमीन पर अचेत पड़ी थी हिलाने डुलाने का कोई असर नहीं हो रहा था ।शायद बेहोश थी । पसीने से तर-बतर ...।
आनन फानन में पड़ोसियों की मदद से अस्पताल पहुंचाया गया ।सही समय पर इलाज मिलने और डॉक्टरों की कोशिश से प्रिया की जान बच जाती है ।डॉक्टर बताते है कि नींद की दवा के ज्यादा
मात्रा के प्रयोग की वजह से उसकी ये हालत हुई थी। कृपया उससे शख्ती से पेश न आए..। डिप्रेशन की वजह से ऐसा हुआ है । कुछ घंटों में होश आ जाएगा ।
प्रिया की मम्मी को बदहवास सी कुछ परिचितों के साथ बाहर बैठी देख रमा आती है और कहती है की -आंटी ,आप चिंता मत कीजिए। प्रिया बिल्कुल ठीक है।चलिए आपको मैं घर छोड़ देतीं हूं। थोड़ा आराम कर लीजिए।
हम सब उसकी देखभाल के लिए है । रमा उनको रिक्शे पर बैठा कर वापस प्रिया के पास आ जाती है।
आँख खुली तो प्रियाअपने सामनें राज को बैठा देखा ,थोड़ी देर के लिए उसे लगा सपना देख रही है। फिर राज ने पुकारा प्रिया! कैसी हो ,जब उसको पता चलता है की वो अस्पताल में है ,तब रात का सारा दृश्य आँखों के सामने घूम जाता है ,और आँखों से अश्रुधारा फूट पड़ती है ।
पता है ,थोड़ी भी देर होती यहाँ आने में तो कुछ भी हो सकता था । तुमको तो मैं बहुत समझदार समझता था ,।आज मुझे रमा से सब पता चला ...। ये कैसा प्यार था? प्यार था कि पागलपन...।
एक बार मुझसे कहा होता । और मै क्या कहुं मुझे तो कुछ भी समझ में नही आ रहा मै अभी इस काबिल नही हूं की मैं प्यार के बारे में सोचूं । उसके लिए तो जिंदगी पड़ी है ।अभी तो पढ़ाई और कैरियर बनाने का वक्त है ।ये जीवन अमूल्य है छोटी छोटी परेशानियों में ऐसा कदम...।
क्यों किया तूने ऐसा ? मुश्किल का मतलब जीवन ख्त्म करना थोड़ी ना होता है । मेरी तरफ देखो मुझे देखकर कोई कहेगा की मुझे कोई कष्ट है ,लेकिन बचपन से आज तक संघर्ष ही कर रहा हूँ...।
आठ साल का था तो मम्मी पापा का तलाक हो गया ...।
उसके बाद मैं और दीदी बिल्कुल अकेले हो गये माँ बीमार रहने लगी ,इलाज के अभाव में उसने भी दम तोड़ दिया ।उस समय जीने का कोई वजह नही था हमदोनों के पास, पर हमने धैर्य कभी नहीं खोया।जब भी मैं हतोत्साहित होता ,दीदी हौसला देती ,और मै दीदी को ..।
मैंने छोटे छोटे काम धंधे किए , ट्यूशन पढ़ाता हूं...आज भी संघर्ष ही कर रहा हूं..।मै अपने आपको जिस मुकाम पर देखना चाहता हूं उससे अपना ध्यान कभी नहीं हटाऊंगा ।मैने दीदी से वादा किया है ।
वही मेरी गुरू मेरी माँ बाप सब है। और शादी ,ब्याह, प्यार, के लिए अभी मेरे पास न फुर्सत है न ही औकात...।और प्यार तो मजबूत बनाता है कमजोर नहीं ।
मैं एक खुली किताब की तरह अपनी पिछली जिंदगी को तुम्हारे सामने बयां किया है । अब आगे क्या करना है तुमको तय करना है ।
मुझे माफ कर दो राज मैने न जाने क्या-क्या सोच लिया था तुमको और दीदी को साथ देखकर...।
उसे शर्मिंदगी महसूस हो रही थी ।उसे एहसास हो रहा था कि उसने जो किया !बहुत गलत किया ।
उसने मन ही मन में प्रण किया की अब वो अपने लक्ष्य में कामयाब होकर दिखाएगी।
और राज के लक्ष्य में बाधक कभी नहीं बनेगी ।
राज कहता है की मैं अपनी मुकाम को हासिल करने के बाद , पहले दीदी का घर बसाऊंगा ।उसके बाद ही अपने बारे में सोचूंगा.।
क्या तब तक तुम मेरा इंतजार कर पाओगी....? प्रिया ने स्वीकृति से सिर हिलाया और आँखे मूंद ली...।


~आत्महत्या~
स्कूल मे टीचर और घर मे मां की डांट | उसका मन बहुत ही खिन्न था | पता नही क्या समझते है ये बड़े लोग | टीचर बन गए तो बस डाँटते रहो | होमवर्क न किया तो क्या हुआ ? स्कूल दोस्तों के साथ मौज मस्ती के लिए भी तो होता है | गीता, मोहिनी, परवीन, राजू सभी तो करते हैं मस्ती | घर में कौन मनोरंजन है हमारे लिए ? यहीं तो है मैदान-खेल का । बड़े बड़े कमरे, खुला मैदान, चौड़े चौड़े बरामदे । भाग दौड़ के खेल खेलो । न तो बगीचे में घूम आओ । क्लास में गपियाते रहो । का फर्क पढ जाए जो थोड़ा न पढ़े तो । अरे बड़े होके पढ़ लेंगे न । ये सब हिंदी, इंग्लिस, समाजिक, विज्ञान सब अभी पढ़ने का ? बहोत दिना धरे एं पढ़ लेंगे । अभी तो बालक ही हैं न हम । और ये माँ भी तो बिलकुल्ल मैडम जी बन गई है । पी टी एम में उनकी बात का सुनी, की लगी डाँटबे । घर में ऊ काम कराबे, तोपर ऊ न पढ़बे पे डाँट । मैडम की का बात है - हजारन रुपिया मिले तनखा में । उनके बच्चा गोलमटोल,सुन्दर । बढ़िया स्कूल में पढ़बे जाएं । कित्तो संभाल के रखे मैडम उनै । खाने में बढ़िया बढ़िया चीज । अब इत्तो मिलबे पे थोड़ी घनी पढ़ाई कर भी ली तो का बात ए । पर माँ न समझे जे बात । साम कू जब बासन मंजबाएगी न तब देखेगी कित गई । आज ऐसो करूँगी कि रोएगी जिंदगी भर ।
माँ की धोती से छत के पंखा में गाँठ लगाती हूँ । स्टूल पे चढ़ फंदा डालूँगी गले में । पाँव के जोर से स्टूल गिरा दूंगी । किस्सा ख़त्म । पता पड़ जाएगा माँ को । कौन करेगा उसके काम । भैया को तो मलूक बनाए रखे । कछु न कराए उससे ।
'रुपा, तेरे पापा आ गए, पानी दे । भाई को खाना दे । मेरी दवा दे ।'
सब्ब मेरे लए । फिर कहेगी पढ़ाई न करे । भैया को भेजेगी बड़े सर की टूसन पै । मै यईं पड़ोस वाली मैडम के । बहुत है गई अब । जब मैं ई न रहूँगी तो डाँटेगी किसे ।'
बरामदे से स्टूल लाने गई तो देखा बहोत सारा सामान रखा था उसके आसपास । 'उफ़ जे सब हटाने पड़ेंगे । हाँ, मरना है तो करने ही पड़ेंगे । तो क्या मरना कैंसल ? न न बिलकुल न । आज तो मरना पक्का ।' जोश उबाले ले रहा था । सारा सामान हौले हौले हटा स्टूल अंदर लिया । माँ काम पे गई थी । तीन चार बजे तक निच्चू होगी । भैया शाम गए तक । और पापा भर दिन रिक्शा चला साम दारू के ठेके पे ।
तब तक मेरो काम तमाम । माँ को पता चलेगा । आएगी हारी थकी और चिल्लाएगी -- रूपा, एक चाय तो बना जरा।' अब कौन पिलाएगा इसे चाय । मेरा दिल दुखाया, अब अपना रोएगी । तभी ठंडक पड़ेगी मेरे । पर मै तो नहीं होऊँगी जब । फिर कैसे देखूँगी उसका रोना, कलपना । जो भी हो मैं तो मर जाऊँगी । पुलिस आएगी,पूछेगी चार बात । माँ को जेल हो जाएगी । मजा आएगा मुझे डांटने की सजा पाएगी । चाय की जगह हथकड़ी और रात जेल में । हा हा हा ... हंसते ही आँखों में माँ की सूरत घूम गई । माँ ... माँ ... जेल में ... क्या बीतेगी उसपे ... कितनी थकी होती है जब मै उसे चाय देती हूँ । मेरे सिर पे हाथ रखती है, कितने प्यार से कहती है और कई बार तो आंसू भी गिरते हैं उसके ।
'रूपा, तू ही ख़याल रखे मेरा । तेरी ये चाय सारी थकान उतार देवे है । माँ जैसा ध्यान रखे तू मेरा । चल अब तू टूसन पढ़बे जा । और हाँ, दो एक दिना में फ़ीस दे दूंगी । आज भी उधार माँगा तो न मिला ।'
बेचारी कई रात पापा की गाली मार खाके सोवे है । सुबह चार बजे उठके काम निपटाए । और छह बजे तो काम पे निकल जाए है । कित्ती बार कहा करे- तुम दोनों जिनगी हो मेरी । तुम्हारे लए इत्तो मरूं खपूं । तुम दोनों पढ़लिख कै कछु बन जाओ तो मैं समझूं मेरो उद्धार हो लियो । तेरो बाप तुम्हारे जनम को कारण है पर जिनगी हराम कर दी ।'
मेरे जन्मदिन पे भी मेरी जिद के कारण मेरी डरेस लाइ और दो पेसटेरी भी लाई । बोली-- उधार लाई हूँ । पर तू खुश है न रूपा,मैं सब उधार चुकता कर दूँगी । एक काम और पकड़ लियो है मैंने ।'
' सूखी हड्डिन को हमारे लिए गलाए रई ए ।' फंदा बनाते उसके हाथ काँप रहे थे । गाँठ कई बार लगाई पर लग ही न पा रही । तभी परवीन आ धमाका अपनी याद पकडे । कल पता लगेगा उसे, तो कैसा तो हो जाएगा वह । ठीक उसकी बेंच के पीछे की सीट है परवीन की । कितने अच्छे से बोला था उस दिन - रूपा, तू अच्छी लगती है मुझे ।' एक दिन तो फोन भी लाया था । कुछ फिल्म सी तस्वीर दिखाई उसने ।
'क्या है ?, किसकी है?'
'एक लड़का, एक लड़की ।'
'धत्त , ' शर्म से नज़र झुका ली उसने ।
'अरे पगली, तो का हुआ सब लड़का लड़की तो देखते ही हैं ।'
'गन्दी बात'
' तस्बीर में का गन्दी बात ?'
और झुकी देखने लगी । कितनी तस्वीरें थीं उसमे । एक दूसरे को देखते, मुस्कुराते, प्यार से रीझते, गाते, नाचते। सुन्दर कपडे पहने लड़का लड़की । आँखों में रंग भर गए थे उसकी । उन रंगीन आँखों से एक बार उसने परवीन को देखा तो वहां भी ऐसे ही रंग बिखरे पड़े थे । उसके रंग परवीन के रंगों से जा टकराए और फिर परवीन ने उसकी कलाई थाम उसके हाथ को चूम लिया ।
'हाय, ये का किया , परवीन ।'
'ऐसे ई तो करे जे छोरा - छोरी'
'सच्ची'
'और नई तो का'। कित्ती देर तक देखती रही वह तस्वीरों को जब तक मैडम जी नहीं आ गईं क्लास में । नीचे से परवीन उसके पैरों को अपने पैरों से सहलाता रहा । उसे लगा कि वह खुद ही तस्वीर की सुन्दर शर्मीली लड़की बन गई है ।
'कहाँ ध्यान है रूपा ?' मैडम के कहते ही वह चौंकी । बो तो मैडम ने देखा नहीं कि वह उलटी किताब पढ़ रही थी ।
कितना मीठा बोलता है परवीन । ' रुपा, पिक्चर देखने चले ।'
'हाय दैया ! इत्ते पैसे'
'ओह,मेरे पास है न । इस सनिवार स्कूल के बाद सीधे डिस्टिक सेंटर मे ।'
', बाबा न माँ को पता चला तो'
' क्या पुरानी जमाने की लड़की है तू । अरे एक्स्ट्रा क्लास भी कोई चीज होती है न'
' हाँ होती तो है । '
'तो बस, बोल दियो । और वो पोपकोर्न, कोल्ड ड्रिंक इंटरवेल में -- '
'अच्छा '
'मै और तू अकेले '
' पूरा हाल भरा होता है । मै और तू पास - पास । '
' इत्ता पैसा कहाँ से लाएगा ? चोरी करेगा ?'
' न न रुपा, शाम को एक दुकान में चार घंटे काम करता हूँ । बस इस बार की कमाई तेरे नाम।' --- गाँठ लग गई तो उसने फंदा गले में डाला ।
-- पर परवीन की मेहनत की कमाई ? टिकट ले भी लिए होंगे तो बेकार जाएंगे और जो नहीं लिए होंगे तो दिल दुखेगा उसका । खुद उसने भी तो कभी पिच्चर नहीं देखी। पोपकोरन, कोल्ड डरिंक। .. ओह फांसी खा गई तो ये सब तो रह ही जाएगा न ।और अब तो राखी भी आ रइ ए । मोनू को राखी कौन बाँधेगा ।एक मैं इ तो भैन हूँ उसकी । कित्ता भी लड़े भिड़े पर राखी बाले दिन मेरे लए बड़ी चाकलेट जरूर लावे । फिर हम दोनों मिलके खाएं । पूरे तीन दिन तक सब दोस्तन को मेरी राखी दिखाता फिरे । कित्ता रोएगा राखी पे । उसे भी कहाँ अच्छा लगेगा भाई को रोता देख -- पर वह तो मर जाएगी । कहाँ देखेगी उसे । -- हाँ ये तो है ।'
माँ, परवीन, मोनू उसकी आँखों में घूम रहे थे । और गले के चारों तरफ फंदा भी ठीक कस गया था ।बस्स, अब स्टूल भी गिर जाए तो... उसकी आँखों के सवाल दीवार भेद रहे थे । कित्ती देर खडी रहे । -- माँ की डांट -- परवीन के साथ पिच्चर -- मोनू की राखी-चाकलेट । नहीं, माँ को सबक सिखाना ही होगा । पर इस सब मे पिच्चर रह जाएगी न । कितना सुनती है -- उस औरत ने फांसी लगाईं । आदमी ने आत्महत्या की फिर वह क्यों नहीं कर पा रही यह सब ? चल रूपा, गिरा दे स्टूल और फिर सब खत्म । कोई नहीं डाँटेगा - न मैडम, न माँ, न पापा -- सब रोएंगे -- अपनी गलती की सजा भुगतेंगे -- पर परवीन, मोनू की तो कोई गलती नहीं -- और खुद उसकी क्या गलती है ? जो वह स्वयं को सजा दे रही है ? कुछ भी हो, देखा जाएगा--- कौन देखेगा --- देखनी तो पिच्चर है परवीन के साथ पोपकोरन और कोल्ड डरिंक के साथ -- अँधेरे हाल में ।
स्टूल ठीक ठाक अपनी जगह पहुँच गया । माँ की धोती करीने से तहाकर रख दी गई बेदरवज्जे की अलमारी के उपरले खाने में । 


******** सात साल ********
भावना की हिम्मत जवाब दे चुकी थी..लगता था जैसे किसी गहन बिमारी से उठी हो.. दरवाज़ा खुला तो वो वहीँ दीवार से टिक के खड़ी हो गई... उसे देख कर रवि काँप उठा...खूबसूरत चेहरे पर पड़े चोट के निशान उसके दिल को छीलते चले गए... उसने लपक कर भावना को सहारा दे कर कुर्सी पर बैठाया, सूटकेस एक और रख के वो भाग कर पानी ले आया.. दो घूँट पानी पी के भावना ने इंकार में सर हिला दिया... ग्लास में बचा पानी उसने अपने गले में उड़ेल दिया.. चलो भावना अंदर चल के लेटो, मैं चाय लाता हूँ...
नहीं.. मुझे बाहर गार्डन में ले चलो..
अच्छा चलो..
भावना को सहारा दे कर वो उसे अपने छोटे से गार्डन में ले आया.. भावना को यहाँ से आस पास के नज़ारे देखना पसंद था.. ये बात वो जानता था ...
रामधन ओ रामधन ... दो कप चाय लाओ और हाँ पकोड़े भी बना लो प्याज़ के...
नहीं नहीं रवि.. प्लीज कुछ भी नहीं, मैं तो बस कुछ देर के लिए आई हूँ, तुमसे माफ़ी माँगने.. वो भी इस उम्मीद के साथ के तुम मुझे माफ़ कर दोगे.. भावना ने भीगी हुई कातर निगाहों से उसे देखते हुए कहा...
चुप रहो... अभी तुम कहीं नहीँ जा रही हो, जो बात करनी है रात को करेंगे, वो भी खाना खाने के बाद...फिलहाल तुम चाय पी कर नहा लो और थोड़ा आराम कर लो..
चाय के साथ उसने भावना को क़ुछ पकौड़े ज़बर्दस्ती खिला दिएफिर जब वो नहा के आई तो उसे आराम करने को कह कर वो बाज़ार की और चल दिया... वैसे तो वो हमेशा रामधन को भी साथ ले जाता है, पर आज वो उसे भावना की देखभाल को छोड़ गया....
उसके कदमों की तेजी की तरह ही विचार चल रहे थे, ये तो वो समझ चुका था के भावना 7 बरस बाद क्यों आई है, पर उसके साथ क्या हुआ ये उससे ही मालूम होगा... पनीर, मशरूम, घर का कुछ और सामान ले कर वो एक ही घण्टे में लौट आया, अँधेरा होने को है, और दो दिन से लाइट भी गुल है, पहाड़ों पे अक्सर यही होता है....
लौटा तो भावना को गार्डन में ही टहलते हुए पाया, पीच कलर की साड़ी में वही बरसों पुरानी भावना नज़र आ रही थी, फर्क बस ये था के खिले हुए चेहरे की जगह चोट के निशान थे... रात को खाना खा कर दोनों उसी गार्डन में आ बैठे...
मैं तुमसे माफ़ी मांगने आई हूँ रवि... भावना ने भरे हुए गले से कहा
मैं तो तुम्हें कब का माफ़ कर चुका भावना... बस ये बताओ के तुम कैसी हो और ये चोट के निशान क्यों हैं ?
बताती हूँ... कह कर भावना थोड़ी देर को खामोश हो गई.. जैसे अपने अंदर हिम्मत समेट रही हो....
तुम्हें याद होगा रवि, कॉलेज से निकलने के बाद मैं फिल्मों में काम करना चाहती थी, इसी कारण मैंने तुम्हारा प्रपोज़ल भी एक्ससेप्ट नहीं किया था... हालांकि तुमने और मम्मी पापा ने मुझे कितना समझाया था... और फिर मेरी आत्महत्या की धमकी के आगे तुम सब मजबूर हो गये और मैं मुम्बई चली गई.. वहां पहुँच कर मैंने स्कूल ऑफ एक्टिंग में दाखिला ले लिया... वहीँ मेरी मुलाकात उमेश से हुई, उमेश डारेक्टर था, और कम बजट वाली दो फ़िल्में बना चुका था, और जल्दी ही एक बड़े हीरो को लेकर एक और फिल्म बनाने वाला था, जिसके लिए वो एक नयी हीरोइन की तलाश में था... उसने मुझे स्क्रीन टेस्ट के लिये बुलाया... दो दिन बाद जब मैं उसके ऑफिस गई तो वो हँसते हुए बोला, लगता है फिल्म इंड्रस्टी में जल्दी ही पहाड़ी फूल खिलने वाला है.. मुझे तो मानों पंख लग गये, अपनी किस्मत पर में नाज़ कर उठी.. उसके बाद तो जैसा उमेश कहता गया मैं करती गई.... फिल्म बनने में 3 साल लग गए... जब फिल्म तैयार हुई तो मालूम हुआ कुछ सीन काटने होंगे मैं नई थी लिहाज़ा मेरे ही सीन कटे.. फिर भी मैं खुश थी ये मेरी पहली फिल्म थी.. फिल्म चल निकली... उमेश ने मुझे दूसरी फिल्म के लिए साइन कर लिया था और उसमें एक शर्त ये भी थी के मैं पांच साल तक किसी और कम्पनी को ज्वाइन नही कर सकती थी...
धीरे धीरे मैं फ़िल्मी रंग में रंगती चली गई, उमेश और मैं अब एक ही घर में रहने लगे थे... दूसरी फिल्म शुरू होने में देर थी.. उमेश मुझे लेकर रोज़ ही किसी ना किसी पार्टी में चल पड़ता, मैं कभी मना करती तो गुस्सा हो जाता.. उसके सिवा किसी से भी मेरी इतनी दोस्ती नही थी के उनसे बात करूँ... आज सोचती हूँ तो लगता है उसने जानबूझ कर किसी से मेरी दोस्ती होने नही दी...
बहुत दिन चली पार्टियों से मैं उकताने लगी थी, छः बरस बाद भी दूसरी फिल्म का कोई अता पता नहीं था.. मैं जब भी उससे इस बारे में बात करती वो लड़ने लगता और कभी कभी तो हाथ भी उठा देता... अब मुझे उससे डर लगने लगा, दिल करता कहीं भाग जाऊँ, पर जाती कहाँ, मम्मी पापा के सामने जाने की तो हिम्मत भी नही थी, जो मैंने किया वो माफ़ी के लायक भी कहाँ था...
तीन दिन पहले उमेश मुझे फिर एक पार्टी में ले गया, किसी की प्राइवेट पार्टी थी... दो चार लड़कियों को छोड़ कर बाकी सब मर्द ही थे वहाँ... उसने मुझे सबसे मिलवाया, मुझे बहुत उलझन हो रही थी.. अचानक वो मुझे एक कोने में ले गया और बोला, देखो ये बहुत बड़े प्रोड्यूसर हैं, आज की रात तूम दयाल साहब के साथ रुक जाओ, फिल्म के लिए यही फाइनेंस कर रहे हैं... मुझे तो जैसे सांप सूंघ गया ... मेरे हाथ पाँव सुन्न पड़ गए... बलि के बकरे सी मैं उमेश को ताकती रही, उसके चेहरे में मुझे शैतान नज़र आने लगा...
अरे सुना क्या .... वो मुझे कंधों से पकड़ के ज़ोर से हिलाते हुए पूछने लगा.....
नहीं नहीं.... प्लीज़ ऐसा मत करो मेरे साथ, मैं हाथ जोड़ती हूँ उमेश ..
अरे... दिमाग खराब है क्या, मैं वादा कर चुका हूँ...
वादा तो तुमने मुझसे भी किया था ना, के हमेशा मेरा साथ दोगे...
तो मैं कहाँ मना कर रहा हूँ ....
फिर ये सब क्यूँ कह रहे हो, चलो मुझे घर ले चलो...
पागल मत बनो, करोड़ों का मामला है, और सब चलता है यहाँ, किसी को कुछ पता नही चलेगा....
मैं फुट फुट कर ज़ोर ज़ोर से रोने लगी... तभी एक आदमी उठ कर आया और उमेश से बोला, दयाल साहब ने कहा है, मैडम को कल करजत वाले फार्म हाउस में ले आना, ठीक से समझा कर..
हांजी हांजी, कल तक तो सब ठीक कर दूंगा मैं....
ठीक है....
ओके सर, चलता हूँ अभी...... उमेश ने दयाल की और हाथ हिलाया
ओके... दयाल ने वहीं से कमीनी मुस्कुराहट से जवाब दिया...
घर पहुँचते ही उमेश ने मुझे बहुत मारा, और कहने लगा, तुझे ये करना ही होगा, नही मानेगी तो और भी रास्ते हैं मेरे पास....
मैं बहुत डर गई, मुझे कुछ समझ नही आ रहा था, उमेश के सोने के बाद मैं दुसरे कमरे की बालकनी में गई, मरने के सिवा कोई और रास्ता नजर नहीं आ रहा था... छलांग लगाने को ही थी के अचानक किसी ने किसी को पुकारा... रवि... और मुझे तुम याद आ गए.... शायद ये तुम्हारा प्यार ठुकराने, और मम्मी पापा का दिल दुखाने की सज़ा थी, अब इस जीवन में कुछ नही बचा... सोचा एक बार तुमसे माफ़ी माँग लूँ, मम्मी पापा के पास जाने की तो सोच भी नहीं सकती, किस मुंह से जाउंगी....कल सुबह जब वो बाहर गया, तो मैं कुछ कपड़े और पैसे लिए और वहां से निकल गई.... राजधानी पकड़ के दिल्ली और दिल्ली से सीधी यहाँ आ गई... तुमने रोक लिया वरना अब तक लौट चुकी होती....
हम्म... लौट के कहाँ जाना है भावना ?
वहीँ... वहीँ जाके मरूँगी, ताकि उसे सबक मिले...
हम्म.... वो उठ कर टहलने लगा, सिगरेट सुलगाते हुए उसने पूछा
एक बात बताओगी ..?
भावना ने सर हिला कर कहा ... हाँ
क्या सच में तुम्हारी ज़िन्दगी में मेरी कोई जगह नहीं ..?
भावना सर झुकाये, पाँव के अंगूठे से मिटटी कुरेदती रही...
अच्छा ये बताओ, जिसने तुम्हें इतनी तकलीफ दी, उसके लिए मरने को तैयार हो, क्या मेरे लिए जी नहीं सकती ... ?
भावना ने हैरत से उसे देखा,
सब कुछ जानने के बाद भी .....
हाँ.... एक्सीडेंट होते रहते हैं भावना, कभी दूसरों की गलती से, कभी अपनी गलती से.... मैं तो आज भी वहीँ खड़ा हूँ, जहाँ तुम छोड़ गईं थी... लौट के तुम्हें ही आना था, और तुम आ गईं... मेरे लिए यही बहुत है, पर हाँ मैं मामूली सा फॉरेस्ट ऑफिसर हूँ, जंगलों में घूमोगी ना मेरे साथ.... उसने भावना का चेहरा अपने हाथों में लेकर कहा, और हाँ अब ये आत्महत्या की धमकियां बन्द करो, जाते हुए भी आत्महत्या और आते हुए भी...
भावना उससे लिपट कर रो पड़ी,
रवि .... मुझे माफ़ कर दो
बस चुप हो जाओ अब, अब नहीं रोना, मैंने अंकल को फोन कर दिया था, वो कल आ जाएंगे आंटी के साथ.....
मगर .... वो...वो... उमेश अगर......
कुछ नही होगा, डरो मत, मैं हूँ ना.....
भावना ने उसके सीने पर सर रख कर दूर जलते हुए एक दीपक की रौशनी को देख रही थी....
दुसरे दिन का सूरज तमाम खुशियाँ ले आया, मम्मी पापा आ गये थे, कभी मम्मी भावना की बालाएं लेती कभी पापा प्यार से बार बार सीने से लगाते.. और वो मुस्कुराते हुए भावना को देखे जा रहा था.. उसके बचपन का प्यार जो लौट आया था.... उसने फोन उठाया और अपनी बड़ी बहन को दिल्ली फोन कर दिया, के आके शादी की तैयारी करे... उसके परिवार में तो धूम मच गई..... जो रवि शादी के नाम से चिढ़ता था, शादी को तैयार था, उसके माता पिता को और क्या चाहिए था......
-    नैनी ग्रोवर


''गाँवदी संस्कार ''---[ सच्ची घटना --बदले हुए पात्रों के साथ ]----------
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प्रकर्ष ,यही नाम था उसका ,इस वर्ष बारहवीं में आया था। अभी एक सप्ताह पूर्व ही शिफ्ट हुआ है उसका परिवार ऐन मेरे सामने वाले फ़्लैट में। महानगरीय सभ्यता में चार फुट की गैलरी में दो घरों का मुख्य द्वार होता है एकदम आमने-सामने, पर शायद ही किसी को किसी से कोई सरोकार होता है। क्या कहूँ ! मेरे अंदर अभी भी गाँवदी सभ्यता के जीवाश्म हैं शायद कुरेदने पे धूल मिटटी में दबे संस्कार उछल के बाहर आ जाते हैं।
आस-पास कोई परिवार शिफ्ट हो या कोई शोर हो तो मैं निकल के देख लेती हूँ कुछ मदद के लिए शायद कुछ करने लायक हो। ये छोटा सा परिवार था माँ -पिता और दो बेटे -प्रकर्ष ,हर्ष। महानगरीय सभ्यता से अनजान अलीगढ़ से आये थे ये लोग ,तो मेरे पूछने में उन्हें आत्मीयता महसूस हुई।
रेनू हाँ यही नाम है इस लड़की का चालीस वर्ष की संस्कारी महिला। बड़ा बेटा तो फिर भी ठीक पर छोटा इतना गोल-मटोल कि गलफड़ों में चढ़े मांस के कारण क्या बोल रहा है समझ में ही न आये।
बड़े बेटे को नौवीं कक्षा में ही दिल्ली के एक नामी गिरामी स्कूल में डाल दिया था ,कुछ दिन अपनी बुआ के घर रहने के बाद वो बच्चा पी जी में रहने लगा। अब छोटे के एडमिशन के लिए परेशान थे उसे भी आस-पास किसी बड़े स्कूल में डालना था ,पिता किसी सरकारी महकमे में एकाउंटेंट हैं सो पैसे की कोई कमी नही है। हाँ अभी उनकी पोस्टिंग अलीगढ़ ही है ,शीघ्र ही दिल्ली स्थानांतरण हो जाएगा। दिल्ली में दो बच्चों के साथ अकेले घर का प्रबन्ध कुछ मुश्किल ही होता है। ऐसे में मेरी आदत इस परिवार के काम आने लगी ,अक्सर माबाप छोटे के स्कूल के चक्कर में बाहर रहते थे तो प्रकर्ष स्कूल से आके मेरे पास ही बैठ जाता। बातें करने पे मैंने पाया बच्चा बहुत दबाव में है।
ऊपर उठने की चाहत,महत्वाकांक्षा ,अव्वल रहने की जिद , प्रतिस्पर्धा के इस दौर में मध्यम वर्ग के माता-पिता बच्चों की प्रगति को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं और स्वयं भी उसमे पिसते है तथा बच्चे को भी अपने सपनों की कठपुतली बना देते हैं।
प्रकर्ष दिल्ली में आके अस्वस्थ रहने लगा था । जैसे आम घरों में होता है सीधे तौर पे ये निष्कर्ष निकलता है बच्चा सामंजस्य नही बिठा पा रहा , घर का खाना चाहिये ,माँ ने बिगाड़ रखा है आदि -आदि और बच्चे को हिदायतें ,बरखुदार पढ़ने में ध्यान लगाओ ,इतने सारे बच्चे रह रहे हैं तुम अकेले नही हो ,कहीं के लाट साहब हो जो बार-बार बीमार पड़ जाते हो ,अबकी बार नम्बरों का प्रतिशत गिरा तो खैर नही। और अब तो बच्चों की पढ़ाई के लिये पिता दिल्ली ही आ गए तो पिता के मानदण्डों पर खरा उतरना जीने की शर्त हो गयी थी।
आज रेनू ने सुबह ११ बजे डोरबैल बजाई ,बदहवास सी बोली --बोली आंटी हर्ष का आज पहला दिन है स्कूल में वो कभी भी आ जाएगा आप उसे अपने घर ही बिठा लेना ,प्रकर्ष के पापा ने फोन किया है कि स्कूल वालों ने फोन किया है उसे कुछ हो गया है आप आके ले जाओ।
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यहां ये बताती चलूं कि मुझे चाबी देने के बाद भी बच्चे को अपने घर में रहने को क्यों नही कहा --एक बार पिछले सप्ताह भी और अभी कल शाम सात बजे की ही बात है बेटे को घर में छोड़ के किसी रिश्ते में चले गए थे आये तो दरवाजा पीटते रह गए पर लड़का सो चुका था ,जब काफी समय हो गया और आस-पास के घरों से भी लोग झाँकने लगे तो रेनू भी परेशान हो गयी ,पति अलीगढ़ जा चुके थे। फिर किसी तरह द्वार के ऊपर का कांच मेरे बेटे ने निकाला और हाथ भीतर डाल के चटखनी खोल के लकड़ी का दरवाजा खोला तब जाके जाली वाले दरवाजे को जोर जोर से बजाया और तब साहबजादे उठ के आये ।]
पता चला बेटा बेहोश हो गया था , रक्तचाप बढ़ गया था ----माँ बोली ये स्कूल में एडजस्ट नही कर पा रहा है इसलिए ऐसा हुआ आराम करेगा तो ठीक हो जाएगा । फिर दूसरे दिन बच्चे को ज्वर हो गया ,मुझसे दवाई पूछी तो मैंने हॉस्पिटल ले जाने की राय दी पर उन्होंने यूँ ही क्रोसिन दे दी । बच्चा कुछ दिनों बाद फिर बीमार हुआ अब ज्वर उतर नही रहा था ,माँ का वही कहना ये स्कूल से कतरा रहा है ,असल में पापा बहुत गुस्से वाले हैं ,इसके मन में डर बैठ गया है कहीं सलैक्ट नही हुआ तो क्या होगा।
जब बार -बार बच्चा बीमार होने लगा तो स्कूल ने छुट्टी लेकर आराम करने को कहा। बच्चा मेरे पास आने लगा ,उससे बात करके पता चला कि लड़का तीक्ष्ण बुद्धि का स्वामी है ,शार्प है ,उसे अपना लक्ष्य मालूम है आत्मविश्वासी है कहीं पे भी संशय नही है उसे अपने पे। पिछले दो वर्ष से अवसाद [डिप्रेशन ] का इलाज चल रहा था उसका ,माता-पिता ने डाक्टर को बताया कि होमसिक है इसलिए घर से दूर रहने पे अवसाद ग्रस्त हो गया है --डिप्रेशन की दवाइयां चल रही थीं -अब मम्मा पापा आ गए हैं तो दवाई छोड़ दी है ,पर आंटी ये रोज-रोज की बीमारी मेरे और मेरे पापा के सारे सपने लील लेगी ,मैं स्कूल से घबराता नही हूँ ,मेरे नम्बर भी अच्छे हैं आप देखिये ,पर कोई मुझे समझता ही नही डाक्टर भी नही ,मुझे बहुत कमजोरी महसूस होती है ,ऐसे ही चला तो मैं आत्महत्या कर लूंगा।
मैंने उसकी माँ की क्लास ली ,वो कैमेस्ट्री से स्नातक थी ,पर अपने बच्चे को न जाने क्यूँ नही समझ पा रही थी।
आज सुबह छःबजे ही डोरबैल बजी तो मैंने देखा रेनू और प्रकर्ष हैं बोली ,आंटी कल आपकी डांट के बाद मैं इसे डाक्टर के पास ले गयी थी इसका ब्लडप्रेशर बहुत ज्यादा था ,डाक्टर ने कहा है दिन में तीन बार चेक करो --आपके घर में बीपी मॉनिटर है ? मैंने चेक करा बीपी ठीक था। फिर आठ बजे बैल बजी ,अब ये तैयार हो गया है स्कूल के लिए प्लीज एक बार बीपी और देख लो --अब बीपी बढा हुआ निकला ,बोली देखा मैंने कहा था ये स्कूल से कतरा रहा है -चलो आराम करो घर पे ही। -पर मैं जाने क्यों सोचने लगी बच्चे के शरीर में हल्का सा कम्पन था और उसे पसीना भी आ रहा था --अब अगले दो तीन दिन यही कार्यक्रम चला। मेरे घर में मुझे हिदायत मिलने लगी आप क्यों परेशान हो ,उसके माबाप हैं न --पर ''ऐसा ही रहा तो मैं आत्महत्या कर लूंगा'' --मैं इसे पचा नह पा रही थी। माना मेरा कोई लेना देना नही है कोई दोस्ती नही अभी महीने भर की जान-पहचान --पर फिर इंसानियत भी कुछ है ,या मेरे भीतर की माँ परेशान है पर माँ तो रेनू भी है।
मैंने निर्णय लिया , अबकी बार बीपी देखने के बाद रेनू को रोक लिया और उसे कड़े होके कहा देखो --इसका चैक अप करवाओ ,ये लक्षण कह रहे हैं कि बेटे का हार्ट कमजोरी मान रहा है ,वो कोई मक्कारी नही कर रहा --अब वो घबराई पिता के आने पे एस्कॉर्ट में पूरा चेकअप करवाया। पर फिर मुझको कुछ नही बताया ,कुछ दिनों में घर में दादा-दादी आ गए ,पूजा थी बहुत बड़ी दस दिनों की ,मुझसे काम वाली की मांग हुई ,फिर पता चला बच्चे के दिल में छेद है ,आपरेशन होगा पर दादा दादी पहले पूजा करने को कह रहे हैं। दो पण्डित जी लगातार छोटे से घर में घण्टे घड़ियाल के साथ पूजा करते , खूब शोर होता ,हवन का धुंवां , पर अब मैं कुछ नही कह सकती थी ,मेरे बेटे की त्यौरियां भी चढ़ गयी थीं --मम्मा ये पढ़े लिखे अनपढ़ लोग हैं ,इस वक्त बच्चे को आराम की जरूरत है और उसे इतना शोर में रख रहे है। सुबह बाहर निकली तो प्रकर्ष खड़ा था --बोला थैंक्यू आंटी --आप न होतीं तो मेरी बीमारी का पता ही न चलता और मुझे गलत कदम उठाना पड़ता , वो बिलकुल भी नही घबरा रहा था मानो उसे मालूम था वो अब ठीक हो जाएगा ----
आज प्रतिस्पर्धा के इस युग में बचपन तो गुम ही गया है ,कैशोर्य भी तनाव ग्रस्त है ,अव्वल रहने की दौड़ में मातापिता बच्चों को समझना नही चाहते ,और बच्चे अवसाद ग्रस्त होके आत्महत्या जैसा जघन्य अपराध कर बैठते हैं। ये कर्तव्य अभिवावकों का ही है कि वो बच्चों को समझें , अपनी अतृप्त इच्छाओं को पूरा करने वाली मशीन न समझें बच्चों को। बाकी डॉक्टर्स का तो क्या कहें तीन वर्ष तक यदि कोई दिल के मरीज की अवसाद के लिए चिकित्सा कर रहा है तो स्थिति शोचनीय ही है।
कहीं किसानों की आत्महत्या ,कहीं बलात्कार की शिकार महिलाओं बच्चियों की आत्महत्या ,कहीं लोन न चुकाने पे आत्महत्या ---सभी को रोका जा सकता है यदि हम सजग हो ,आत्मकेंद्रित न हो इंसान और इंसानियत को अनमोल समझते हों।।आभा।। --- .......
टिप्पणी ---कहानी आसपास घटित होने वाली घटनाएं ही कहानी बन जाती हैं वो घटना जो मुझे कहनी है तुमसे --जो कुछ सन्देश देगी मेरे बच्चों को --वही कहानी है मेरे लिए





काश.......
जाड़ों के दिन, वह मीठी-मीठी धूप में शनिवार की सुबह आँगन में कुर्सी डाल, चाय की चुस्कियों का आनंद ले रहा था । छुट्टी के दिन अख़बारमें सोडोक़ु हल करना सुनील को बहुत अच्छा लगता था । एक सुकून सा मिलता था । उसने जैसे ही सोडोक़ु ढूँढने के लिए अख़बार का पन्ना पलटा ।
'
आत्महत्या-एक मानसिक विकृति' लेख का शीर्षक उसकी आँखों से ज़्यादा कानों पर हथौड़े सा
पड़ा । आत्महत्या ...... क्या यह एक बीमारी है? एक मानसिक रोग...? क्या इसका उपचार सम्भव है?
अचानक बचपन से लेकर पिछले एक वर्ष तक की ना जाने कितनी यादें उसके मस्तिष्क में क्रमवार चक्कर लगाने लगीं । उसके पड़ोस में ही तो रहती थी वह ! गुप्ता आंटी की बेटी । एक बहुत साधारण सी मध्यम परिवार की अल्हड़ सी लड़की । एक अजीब सा आकर्षण था उसमें ! वह जब भी उसे देखता पता नहीं क्यों बरबस उसकी ओर खिंचा चला जाता ।
उस समय उसकी उम्र कुछ १२ साल की रही होगी । दूसरे उसे काली कहकर चिढ़ाते । अच्छा भला नाम था उसका निशा । बिलकुल सटीक । उसके साँवले सलोने चेहरे पर सितारों की तरह चमकती बड़ी - बड़ी आँखें । वह भी कोई १४ वर्ष का ही रहा होगा । उनमें बड़ी दोस्ती थी । पार्क की मुँडेर पर बैठे वह अक्सर बतियाते ।
एक दिन सुनील वहीं मुँडेर पर बैठा था । ढलती शाम थोड़ी शांत सी थी । घने काले बादलों से डर कर हवा ने भी चलना बंद सा कर दिया था । तभी सामने से निशा आती दिखाई दी । वह अपने ही ख़यालों में खोई हुई थी। उसने सुनील को नहीं देखा । हल्का अँधेरा सा छाने लगा था और वह सीधी चलती चली जा रही थी । कहाँ जा रही है यह? सुनील ने मन में सोचा। वह उसे आवाज़ लगाने ही वाला था कि निशा दौड़ने लगी । अब तक पार्क पूरी तरह ख़ाली हो चुका था । सुनील उसके पीछे दौड़ा । वह तो पार्क को पार करके नदी की तरफ़ जा रही थी। सुनील को कुछ गड़बड़ होने का एहसास हुआ । वह अपनी पूरी शक्ति लगाकर दौड़ा तथा उसे नदी के तेज़ उफान में कूदने से बचा लिया । उसने निशा को कन्धे से पकड़कर पीछे खींचा और दोनों नदी के किनारे पर मिट्टी में जा गिरे । "यह क्या कर रही थी तुम ?" सुनील चिल्लाया । "दिमाग़ तो ठीक है तुम्हारा !"
निशा ने कुछ नहीं कहा । बस अपने बड़े-बड़े अश्रुपूरित नेत्रों से उसे एक पल के लिए देखा, फिर दोनों हाथों से चेहरे को छुपाकर फफ़क पड़ी । सुनील ने उसके चुप होने की प्रतीक्षा की । उसकी हिचकियों के बीच ही हाथ - मुँह धुलवाकर थोड़ा पानी पिलाया। तब कहीं जाकर वह थोड़ा सहज हुई । फिर वह धीरे से बोली, "मुझे नहीं जीनी ऐसी ज़िंदगी जहाँ आप अपनी मर्ज़ी से कुछ भी ना कर सकते हो ।"
सुनील चुपचाप उसके चेहरे की ओर ताक रहा था । वह आगे बोली, "मैं इस दुनिया के लिए नहीं बनी । मुझे कोई नहीं समझता ।" सुनील ने उससे असली बात जानने की बहुत कोशिश की लेकिन वह इतना ही समझ पाया कि उसके माता-पिता नहीं चाहते थे कि निशा आई.ए.एस. बने ।
सुनील ने उसे समझाया, कि अभी तो तुम बहुत छोटी हो। बिना बात परेशान हो रही हो । एक बार स्नातक कर लो । अच्छे अंक आएँगे तो आंटी-अंकलजी भी मान जाएँगे।
वे दोनों घर की तरफ़ चल पड़े। पूरी रात सुनील की आँखों - आँखों में ही कट गई । भयावह ख़याल आते रहे। क्या होता अगर वह शाम को वहाँ नहीं होता तो?
धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होता चला गया । शायद वे दोनों ही इस वाक़ये को अपने ज़हन के किसी अंधेरे कोने में धकेल कर भूल गए थे । सुनील का इंटर का परिणाम आ चुका था और वह इंजीनीरिंग करने के लिए लखनऊ जा रहा था ।
चार साल बाद कॉलेज ख़त्म करके जब सुनील घर वापस आया तो वह बी.ए. के आख़री साल में थी । अब पता नहीं क्यों पार्क की दीवार पर बैठने में थोड़ी सकुचाहट सी महसूस हुई । "कोई देखेगा तो बातें बनाएगा ।" उसने कहा । वह हमेशा की तरह बेफ़िक्री से बोली, "क्यों ? आज तक भी तो हम यहीं बैठते थे ।" "..लेकिन अब हम बड़े हो गए हैं," सुनील ने समझाते हुए कहा । "आई डोंट केर," वह अंग्रेज़ी में अकड़कर बोली। "..लेकिन मुझे परवाह है । मैं नहीं चाहता कि कोई तुम पर उँगली उठाए ।" सुनील झल्लाया ।
वे दिन छिपे चुपचाप नदी किनारे बैठे थे । आज काफ़ी ठंड थी, इसलिए आस-पास कोई नहीं था शायद सब अपने घरों में रज़ाई में छिपकर बैठे थे । सुनील उसे एकटक निहार रहा था । अब वह पहले से भी ज़्यादा ख़ूबसूरत लगने लगी थी । उसका भोलापन ज्यों का त्यों था । पर उसकी चालढाल में लड़कियों वाली नज़ाकत आ गई थी । अब वह उसकी झल्ली सी निशा नहीं थी । ऊँची सी फ़्राक की जगह चूड़ीदार ने ले ली थी। जिसमें वह बेहद आकर्षक लगती थी ।
"
तुम बहुत हैंडसम हो गए हो ।" निशा ने जिस तरह से यह कहा था, वह सुनकर वह ठहाका मारकर हँस पड़ा था। वह इस बात को अच्छी तरह जानता था कि वह सच में बहुत अच्छा दिखता है । कुछ तो भगवान ने ही मेहरबानी की थी, गोरा रंग और सुंदर नैन नक़्श और थोड़ा उसके परिश्रम का फल था जो वह शरीर को आकर्षक बनाने के लिए करता । अपने खानपान का ध्यान रखता और रोज़ कई किलोमीटर दौड़ता ।
पर समय है कि रुकता ही नहीं और वह एक बार फिर एम.बी.ए. करने घर से बाहर निकल गया । सुनील बिलकुल सही था और समय आने पर निशा के माता पिता मान गए थे और वह दिल्ली आई.ए.एस. के प्रशिक्षण में व्यस्त हो गई थी ।
एम.बी.ए. के पश्चात सुनील को एक आई.टी. कम्पनी में बहुत अच्छी नौकरी मिल गई थी । जिसके लिए वह मुंबई चला गया था और बहुत ख़ुश था । बीच-बीच में कभी कभी निशा से फ़ोन पर बात हो जाती तो पता नहीं क्यों उसे बहुत अच्छा लगता । दिल को एक सुकून सा मिलता । एक अलग सी ख़ुशी जो और किसी भी तरह उसे ना मिलती ।
आज भी उसका फ़ोन आया था । उसने बताया कि वह मेरठ की एस.डी.एम. बन गई है । वह उसके लिए बहुत हर्षित था । लेकिन जल्दी जल्दी नहीं मिल पाएँगे इस बात का मलाल भी था । आज तक उसने उसे अपने दिल की बात नहीं बताई थी कि वह उसे कितना चाहता था । एक डर सा लगता था कि पता नहीं कहीं दोस्ती भी ना टूट जाए। इसलिए वह ऐसे ही ख़ुश था ।
अभी २५ ही साल का तो हुआ था पर माँ बार बार शादी करने पर ज़ोर डालती । ढेरों रिश्ते भी आ रहे थे । उन्हें टालना मुश्किल होता जा रहा था । वह इसी उधेड़बुन में बैठा था कि तभी फ़ोन की घंटी सुनकर उसकी तन्द्रा टूटी । फ़ोन चार्जिंग पर शयनकक्ष में था। वह तेज़ क़दमों से वहाँ पहुँचा तब तक फ़ोन कट चुका था लेकिन स्क्रीन अभी तक चमक रही थी और निशा का नाम अंधेरे में उसकी आँखों की तरह ही चमक रहा था। आज सुबह ही तो बात हुई थी फिर........
किसी अनजान आशंका से वह सिहर उठा। निशा को फ़ोन लगाया । निशा की आवाज़ से ही समझ गया कि वह बहुत रोकर चुकी थी । उसकी हिचकियाँ अचानक उसे सालों पुराने नदी किनारे ले गईं और फिर वही जाना पहचाना सा कथन उसे फ़ोन में सुनाई दिया, "मुझे नहीं जीना।"
इतनी दूर हूँ मैं, कहीं वह कुछ कर बैठी तो... अनेक डरावने ख़यालों को ख़ाली लिफ़ाफ़ों की तरह समेटते हुए वह संयत स्वर में बोला, "क्या हुआ ?"
मैंने फ़िनायल पी ली है, कहकर वह खाँसने लगी । सुनील की आँखों के आगे अँधेरा छा गया ।
दूसरे ही पल उसने अपने आप को सम्भाला। उसे याद आया कि निशा के पड़ोसी का नम्बर है उसके पास । उसने उन्हें फ़ोन करके निशा को अस्पताल ले जाने का आग्रह किया । निशा के माता-पिता को सूचना देकर वह दिल्ली की उड़ान के टिकट ढूँढने लगा। फ़्लाइट दो घंटे में थी। वह जैसे-तैसे हवाई अड्डे की तरफ़ भागा। दिल्ली में बाहर निकलते ही उसने मेरठ के सिटी अस्पताल की टैक्सी कर ली । रात के १ बजे दौड़ते-भागते वह अस्पताल पहुँचा तो उसे पता चला कि अब वह ख़तरे से बाहर थी ।
पता चला कि आंटी-अंकल उसकी शादी कर देना चाहते थे । जिसके कारण निशा ने आत्महत्या करने की कोशिश की थी । अंकलजी बार बार कह रहे थे। "हमसे कहा तो होता हम ज़िद ना करते।"
उस दिन सुनील की ख़ुशी का ठिकाना ना रहा जब उसे पता चला कि निशा ने आत्महत्या की कोशिश इसलिए की थी क्योंकि वह सुनील से बेहद प्यार करती थी । फिर क्या था चट मँगनी और पट ब्याह...!
कुछ साल बीत चुके थे उनकी शादी को और वे बहुत ख़ुश थे । सुनील को भी दिल्ली में एक अच्छी नौकरी मिल गई थी । निशा भी ग़ाज़ियाबाद की डी.एम. हो गई थी । दोनों के लिए मिलना-जुलना अब सहज हो गया था । आज भी रविवार था और वे हाथ में हाथ डाले कनाट प्लेस पर घूम रहे थे। निशा कुछ उदास सी थी । उसे एक बच्चे की बड़ी चाहत थी । जो कितने चिकित्सकों से सलाह लेने के बाद भी सम्भव ना हो पाया था । "कोई नहीं गोद ले लेंगे !" सुनील ने उसे बहलाने के लिए यूँ ही कह दिया था । परंतु निशा ज़ोर से चिल्लाई थी । "मुझे अपना बच्चा चाहिए ।" पैर पटकती हुई वह बोली, "उसे अभी घर जाना है ।" घर पहुँचकर सुनील ने उसे मना लिया था ।
अगले दिन दोनों अपने-अपने काम पर चले गए । क़रीब एक हफ़्ते तक वह एकदम सामान्य लग रही थी । फिर उसे टूर के लिए किसी गाँव में जाना पड़ा । जहाँ पानी की बड़ी कमी थी ।
रात को सुनील ने उसे फ़ोन करने की बड़ी कोशिश की फिर सोचा शायद गाँव में सिग्नल नहीं होंगे।
अगले दिन सुबह चार बजे फ़ोन की घंटी से उसकी आँख खुली । उसने हड़बड़ाकर फ़ोन उठाया तो दूसरी तरफ़ की आवाज़ कह रही थी, "निशा मैडम ने गाँव के कुएँ में छलाँग लगा दी ।" सुनील का सिर घूम गया । रिसीवर हाथ से छूट गया । वह बदहवास सा गाड़ी की तरफ़ भागा। अँधेरे और कोहरे में रास्ता देखना मुश्किल हो रहा था । वह जैसे-तैसे गाँव पहुँचा । तब तक निशा की लाश कुएँ से निकाली जा चुकी थी । आज वह समय पर उसे नहीं बचा पाया था......
उसकी चाय ठंडी हो चुकी थी । अख़बार का पन्ना हवा से फड़फड़ कर रहा था । आज ऑफ़िस नहीं जाना क्या ? माँ की आवाज़ सुनकर उसकी आँखों से आँसू बह निकले । वह धीरे से बड़बड़ाया, मैं उसे बचा सकता था और उठकर गुसलखाने में घुस गया ।
टिप्पणी : आत्महत्या एक मानसिक बीमारी है । जिसका समय रहते यदि उपचार कर लिया जाए तो अनेक जानें बचाई जा सकती हैं । परन्तु अफ़सोस बहुत कम लोग ही यह बात जानते हैं ।
प्रेरणा मित्तल
20/08/2016




समझोता
बृजेश बाबू उनकी पत्नी और रिया बस यही छोटा सा परिवार ! हँसते बोलते वक्त कैसे बीत जाता इसका एहसास कभी हुआ ही नही ! रिया की पढ़ाई खत्म हो गयी थी तो सेठ विशम्भर के ऑफिस में काम शुरू कर दिया ! ख़ाली घर पर वक्त भी नही कटता था और कुछ मदद भी हो जाती थी ! बृजेश बाबू एक क्लर्क थे तो घर की माली स्थिति बस गुजरे लायक थी !
वक्त और हालात कभी किसी के सगे नही होते ! अमीरी गरीबी सबको सामना करना पड़ता है ! ऐसा ही बृजेश बाबू के साथ हुआ ! बीमार क्या हुए घर चरमरा गया ! खुशियो को जैसे ग्रहण लग गया ! 
हालात इतने बिगड़े की अस्पताल में एडमिट करना पड़ा बृजेश बाबू को ! रिया वक्त की मार झेल रही थी ! समझ नही आ रहा था क्या करे ! पिता को अस्पताल में एक महीने से ऊपर हो गया था ! टूटने लगी थी। वो , पर माँ बाप का मोह नही छोड़ पा रही थी !
आज ऑफिस जाने। से पहले जैसे ही अस्पताल। पिता को। देखने पहुँची। तो डॉ ने चेक अप के। बाद दवाई का परचा थमा। दिया ! रिया की आँखों के सामने अँधेरा सा छाने लगा ! पहले ही इतना एडवांस ले। चुकी थी अब क्या करूँ ! घर। में भी खाने के लाले पड़ रहे थे और अब और ख़र्चा ! रिश्तेदारो ने भी मुँह फेर लिया था , कहि कोई उम्मीद नजर नही दिखाई दे रही थी ! सिर्फ एक राह के सिवाये ----- 
एक महीने बाद पिता ठीक होकर लौटे तो माँ का चेहरा खुशियो से दमक उठा ! गली पड़ोस , रिश्तेदार सब ने रिया को तारीफ़ की ! हिम्मत वाली लड़की अपने पिता को बचा लाई ! लेकिन पिता की नजरो से रिया बच ना स्की ! पिता के पूछने पर वो सीने से लग जोर जोर से रोने लगी ! पिता ढाढ़स बांधते रहे -- अब में आ गया हूँ सब ठीक हो जायेगा ! मेहनत करके अच्छे से घर में शादी करूँगा ! बातो ही बातो में सबकी आँख लग गयी ! सुबह उठ रिया की ढूढ मच गयी कहाँ गयी ! यही तो सोई थी ! सब परेशान थे , कुछ समझ नही आ रहा था ! तभी पिता की नजर तकिये के नीचे दबे कागज पर गयी और सन्न रह गया बृजेश !
पूज्य माँ बाउजी माफ़ कर देना मुझे , में जीना चाहती थी पर नही जी सकती क्योकि में अब पवित्र नही रही ! 
उफ़्फ़्फ़ धम से गिर पड़े बृजेश बाबू , उन्हें अपने जीने से नफरत हो गयी थी ! 
सेठ विशम्भर से किया सौदा पूरा कर रिया ने आत्महत्या कर ली थी ! चुपचाप चली गयी थी !
कैसा। मद ये ताकात का।
है कैसा फेरब ये दौलत का
शरीफ के भेष में खेल दानवता का
ना दहला ना काँपा जमीर जिनका



कुदरत का कसूर
रात का समय था और झींगुर की आवाज़ सन्नाटे में खलल पैदा कर रही थी. रात अभी पूरी तरह से अपनी थकान भी नहीं उतार पाई थी कि अचानक बादलों की गडगडाहट ने गोपी के दिल की धड़कन बढा दी. दिन भर की उमस भरी गर्मी और पछुआ हवाओं के बाद तेज तूफान ने थके बदन को तो राहत दी मगर दिल की धड़कन रेल के इंजन की तरह धोंकनी सी चलने लगी गोपी की. ये बेमौसम बरसात ! हे भगवान क्या प्रलय ने पूरी तरह से कमर कस ली है? बादलों का तेज़ गर्जन, अप्रैल का महिना और तेज़ तूफानी बारिश.
गोपी को इस बेमौसम बारिश होने से लगा कि उसकी तो सारी कायनात ही उजड़ जायेगी. फसल काट अभी, आज शाम को मैदान तक ही तो ले जा पाया था वह. उसकी धंसी हुई आंखें सामने बैठी पत्नी कम्मो और घुटनों को पेट में घुसाए बच्चों के चेहरे पर जाके ठहर गई. बाहर हो रही बारिश से तेज़ उसकी आँखों से आँसू बहने लगे और उसका कलेजा मुंह को आने लगा.
उसकी आँखों में भविष्य की गलीज़ जिन्दगी के दृश्य उभरने लगे. गोपी बार-बार आसमान की तरफ देखने की कोशिश करता लेकिन हर बार निर्मम तूफ़ान उसे पीछे धकेल देता. गोपी दुखियता सा किसान जिसे हमेशा पेट की आग और गरीबी की मार ने आहत किया. आसूं तो जैसे उसके हमसाया हो गए थे जो आकर उसकी आँख के कोरों पर टिक गए थे सनातनी से. शक्ल से सदा बेचारगी टपकती उसकी क्योंकि उसे एक अनजाना भय सदा लगा रहता था. मौसम के रूहानी होने से, आशिकाना होने से उसका दूर दूर तक कोई नाता न था. मौसम के अचानक बदलने पर सिर्फ दिखता उसकी आँखों में खौफ़ - मौत का तांडव करता सा खौफ.
आज भी बादलों की गर्जन के साथ वो भय उसकी आँखों में काले सायें सा मंडराने लगा. अब तक काफी बढ़ उठा तूफान अपने साथ लाती तेज़ सर्द हवाओं से बदन के खून को जमा रहा था. वैसे भी आज इंसान का खून पानी हो रहा है और आसमान भी पानी बरसा जले पर नमक छिड़क रहा था. बेमौसम बरसात गोपी के गले में हड्डी सी अटक रही थी. वो बुडबक नहीं जानता, समय है बदलता, रुत है बदलती, मौसम बदल जाते है, साल दर साल बदलने का ये कारंवा चलता रहता है निरंतर. अब तो इंसान भी बदलने लगा है हर पल रंग अपने. शायद विलुप्त होती गिरगिट प्रजाति ने जाते जाते विरासत में रंग बदलने का गुण दे दिया है इंसान को. ऐसे में अगर मौसम बदल जावे तो आसमान सर पर उठाने लेने वाली कौन सी बात है ? दिल की धडकनों पर काबू रखना सीखना होगा उसे, पानी होते खून को, खून के आँसू पीकर गर्माना होगा.
उसे समझना होगा पेट की आग से बड़ी है प्रेम अग्नि, जो बारिश की बूंदों के पड़ने से और ज्वलित होती है. शायद सुना नहीं होगा उसने ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होयऔर जो पंडित विद्वान उसकी ही पूछ संसार में. किसान अन्नदाता होकर भी कितना पूछा या पूजा जाता है इसे हम सभी भलीभांति परिचित है. हैरत होती न जो सबको अन्न मुहैया है कराता वहीँ दो जून की रोटी के लिए तरसता है, पेट पर गीला कपडा रखकर, है गुजारा करता !
बावरा गोपी सोच रहा कि गेंहूँ जो खेत में कटा पड़ा है, बारिश की फुहार पड़ते ही काला पड़ सड़ जाने वाला है. उसे दिख रहा आढ़ती का उधार जिसे लेकर वो पाल पोस रहा था अपनी फसल को. फसल लहराए तो उधार चुकाए और कुछ पैसा झोली में आये यही उसकी आस भी थी. यह आस एक बेटे के जवां होने और अपने माँ बाप के बुढ़ापे की लाठी बनने की आस से तनिक कम न थी लेकिन इस बेमौसम बरसात ने उसके सपनो उसकी आस पर मानो वज्रपात कर दिया. उसकी स्थिति अभी ठीक उस माता-पिता जैसी है जो अपने सपूत को अपने खून पसीने की कमाई से सीचते है पढ़ाते-लिखाते है और सपूत कुछ बनने से पूर्व ही उनके सपनो पर कुठाराघात कर मौत का ग्रास बन जाता है. सो इस बरसात में उसकी फसल उसी संतान सी हो गई जो अधर में छोड़ गया अपने माता पिता को जीवन भर का दुःख देकर और वो बैठे अपनी किस्मत को रो रहे है! आज यहीं स्थिति गोपी की भी थी.
जिसका डर था हुआ भी वही. इस बरसात ने उसकी फसल, उसकी आस को पानी में मिला दिया. उसकी सारी शंकाए और डर हकीकत बन कर उसके सामने आ खड़े हुए. रात की भारी बारिश ने उसके सपनो को तहस नहस कर दिया. पूरे परिवार को आने वाले इस संकट का भान हो चुका था. सबके चेहरे पर शोक जैसी पीड़ा देखी और महसूस की जा सकती थी. सुबह की लालिमा सब गाँव वालो के लिए मातम लेकर आई थी. इसी बीच राज्य सरकार ने भी स्थिति की गंभीरता और आपदा समझ कुछ राहत की घोषणा कर दी. वैसे आपदा का तो केवल नाम था असल में ये तो वोट बैंक के लिए सरकारी खजाने से किया विज्ञापन मात्र था.
सरकार राहत के नाम पर सब्सीडी की गोली रूपी आश्वासन हाथों में लिए मुस्कुरा रही और दीन हीन गोपी और कई अन्य किसान अपनी डबडबाती आँखों में आस के दीप रोशन कर रहे थे. आज तक की व्यवस्था है कि कृषि मंत्रालय द्वारा अनुदान रूप में दी जाने वाली राहत राशि किसानो तक पहुँचते पहुँचते साल भर का समय निकल जाता है और इस बीच पीड़ित किसान सब्र की डोर छोड़ अपने गमछे से लटक सब पीडाओं से मुक्ति की राह खोज लेता है. तब लगता है ससुरा निरा मूढबुद्धि किसान पेट से परे सोच ही न पाता है. नहीं जानता कि और भी गम है जमाने में, पेट की आग के सिवाय यहाँ. अब वो चाहे गजेन्द्र सफे वाला हो या गोपी जैसे कई किसान जिनकी सोच रुक जाती है, नाली के रुके गंदले पानी सी ही. स्वयं की बलि दे देने से समस्या दूर हो जायेगी ऐसी सोच इन्हीं की हो सकती है. और नेताओं के लिए तो एक कंटक कम हुआ ऐसा प्रतीत होता है,इनकी बलि चढ़ने पर, तभी तो एक ओर ऐसे निर्दोष स्वयं की बलि देते रहते है और दूसरी ओर ये सफेदपोश अपने काले चेहरों पर एक संवेदनशील मुस्कराहट संजोये चिपटे रहते है. आपके लिए आपकी सेवा में तत्पर कहते हुए आम आदमी की वाट लगाते हुए गद्दी से चिपके जौंक से ! एक तरफ देश का हर शिक्षित नागरिक, हर बुद्धिजीवी, पत्रकार, लेखक, शिक्षक, हर मंत्री संत्री सभी किसान के लिए सॉफ्ट कार्नर लिए उसके हित की कामना से त्रस्त है और दूसरी ओर बावरा गोपी दिल मांगे मोर की तर्ज पर सबकी फ़िक्र पर पानी फेरता दुखिया रहा है, हद है सच बावरेपन और मूढबुद्धिपन की.
गोपी कई दिन तक सरकारी आस के सहारे परिवार, ठेकेदारों और लेनदारो को मनाता रहा, कहीं लाड़ मनुहार से तो कहीं मिन्नत चिरौरी करके. उसे लगा था कि धनराशी मिलते ही कुछ कर्जा उतार लेगा और कुछ घर के खर्चे के लिए काम आ जायेंगे. अगली फसल के लिए उसे बीज खाद भी लेने है. गोपी ने मन ही मन सारी योजना बना ली. परिवार को ढाढस भी देता था, के जल्द अच्छे दिन आने वाले है. आखिर एक दिन ग्राम प्रधान का सेवक सारे मोहल्ले में घंटी बजाता हुआ एलान कर रहा था कि शाम ६ बजे सब अपना मुहावजा लेने आ जाओ. गोपी सहित गाँव के सारे किसान और परिवारों ने जैसे राहत की साँस ली. दुःख भरे दिन बीते रे भैया सोच कर सभी के चेहरे की रौनक लौट आई.
शाम ५ बजे से ही सभी गाँव वाले और गोपी, ग्राम प्रधान के आँगन में जाकर बैठ गए. ठीक ६ बजे एक सफ़ेद अम्बेसडर कार आकर रुकी. सभी लोग खड़े हो गए. चस्मा लगाये कृषि मंत्रालय के मंत्री छेदीमल के सेक्रेट्री यादव जी उतरे. सबकी आंखे चमक से भर गई. उन्हें वे भगवान स्वरूप नज़र आने लगे. और नजरे गडाए सब उन्हें अपलक निहारते रहे जब तक वे कुर्सी पर विराजमान न हो गए. ग्राम प्रधान ने उन्हें नमस्कार किया और फूल माला से स्वागत किया. फिर यादव जी से कुछ बात की और खड़े होकर एलान किया कि सभी को एक एक करके बुलाया जायेगा. सभी अपने अंगूठे से साइन कर दे. और कल बैंक आपके लिए सुबह ८-१० के बीच में खुला रहेगा. जाकर अपने चेक कैश करा लेना. सभी ने बारी बारी से यादव साहब के पास आकर नमस्कार किया, अंगूठा लगाया और चेक लेकर फिर नमस्कार कर विदा ली. सबके चहरे खुश नज़र आ रहे थे. यादव जी चैक बाँट कर चलते बने. सभी किसान अपने घरो को लौट आये.
गोपी जब घर पहुंचा तो उसने चेक को पहले भगवान के श्री चरणों में रखा. फिर बीवी कम्मो से बोला चल जल्दी से खाना लगा. सबने मिलकर प्रेम से खाना खाया. गोपी की बेटी फुरवा जो ८वी कक्षा में पढ़ती थी बोली बाबा ज़रा चेक तो दिखाओ, हम को भी देखना है सरकार पैसे कैसे देती है ?” गोपी ने उसे पास बुलाया और चेक दिखा कर बोला हाँ देख देख इसे कहते है चेक”. फुरवा ने उसे देखा उल्टा पुल्टा किया और फिर लिखी रकम को पढने लगी. पेय टू गोपी कुशवाहा”, तीन सौ उन्नतीस रुपये मात्र. यही रकम अंको में भी दर्ज थी जिसे फुरवा ने पढ़ा ३२९ रूपयेगोपी सुन कर आवाक रह गयाथोडा हडबडा कर बोला फुरवा तुझे पढना नही आता तीन सौ नही तीन हजार लिखा होगाफुरवा ने कहा नही बाबा मैं सच कह रही हूँ तीन सौ उन्नतीस ही लिखा है चाहे तो आप बबलू चाचा से पढवा लीजिये“. गोपी ने कम्मो से कहा जा ज़रा बबलू को आवाज़ तो लगा”. भाभी की आवाज़ सुन बबलू दौड़ा चला आया. गोपी ने झट से चेक उसके हाथ में रख पूछा देख इसमें कितनी रकम लिखी हैबबलू ने पढ़ते ही कहा दादा तीनसौ उन्नतीस रूपये.गोपी के कान सुन्न हो गए. गोपी बेजान सा आंखे फाड़ कर चेक को घूरने लगा. थोड़ी देर बाद उसका बदन कांपने लगा और उसकी आँखों से आंसू बहने लगे. खुशी का माहौल एकदम गमगीन हो गया.
आज उसने सोचा था चैन की साँस लेकर लम्बी तान कर सोऊंगा. कई दिनों से सोया भी तो नही था गोपी. उसके सारे सपने, सारी योजनाये धरी की धरी रह गई, कुठाराघात हो गया उसकी सभी आशाओं पर. वह धड़ाम से जमी पर बैठ गया और अपने माथे पर हाथ मार बुक्का फाड़कर रोने लगा, कम्मो ने उसे पानी पिलाया और यह कहते हुए हिम्मत दी कि कुछ न कुछ हो जाएगा. वो अपने पिताजी को संदेसा भिजवा देगी, शायद वो हमारी कुछ मदद कर सके. हम सब साथ इस से विपदा से निपटेंगे.चलो अब सो जाओ. गोपी ने बस बरसती आँखों से सर हिलाया और आँगन में पड़ी चारपाई पर लेट गया. सभी परिवार के सदस्य भी सोने चले गए. नींद गोपी की आँखों से कोसो दूर थी, वहां कम्मो भी कल आने वाले संकट का सोच करवटें बदल रही थी. अचानक बाहर हुई आवाज़ ने उसकी तन्द्रा भंग की, कम्मो उठी और उसने देखा गोपी दबे कदमो से कहीं जा रहा था. कम्मो तुरंत दबे पाँव उसके पीछे हो ली.
गोपी तेज़ी से कदम बढ़ाता सीधा जाकर लाला चौरसिया के आम के बाग़ में रुका. कम्मो एक पेड़ की ओट से दम साधे देखने लगी. गोपी एकटक आम के पेड़ को घूर रहा था, कहीं दूर से कुत्तो के भोंकने की आवाज़ के साथ सियार के रोने की आवाज़ भी आ रही थी. शायद कोई अपशकुन होने को था. कम्मो का दिल कुछ गलत की आकांशा में जोरो से धड़कने लगा, अचानक गोपी ने अपना गमछा उतारा. कम्मो का शक उसे सत्य लगने लगा और आँखों में सारा दृश्य साफ़ हो गया. वह सर से पैर तक काँप गई और तेज़ी से भागकर गोपी के पैरों से लिपटकर रोते हुए बोली फुरवा के बापू यह क्या करने जा रहे हो ? आपने तो इस तरह से मुक्ति की राह खोज ली लेकिन एक बार भी सोचा आपके पीछे मेरा और बच्चों का क्या होगा ?”
गोपी सर झुकाए चुप खड़ा था और रुदन से उसका पूरा शरीर हिल रहा था. कम्मो फिर बोली सुनो, हमें नहीं बनना है अन्नदाता. सबको अन्न मुहैया कराते है और खुद दो जून की रोटी के लिए तरसते है. हम कल सुबह ही सब बेचकर शहर चलेंगे, वहां जाके मेहनत मजूरी करेंगे, एक नई शुरुवात करेंगे और यदि मरना ही है तो घर चलो सारा परिवार सल्फ़ास की गोली खाकर मुक्त हो लेगा.गोपी फटी आँखों से एकटक कम्मो को घूरे जा रहा था. कम्मो का मुख आसुओं से भीगने के बाद भी आत्मविश्वास से चमक रहा था. अचानक गोपी धम से जमीन पर कम्मो के पास बैठ गया. गोपी की रुलाई फूट पड़ी और रोते रोते ही वह बोला ओह कम्मो मुझे माफ़ कर दो मैं कुछ पलों के लिए स्वार्थी हो गया था. मैंने पलभर को भी तुम्हारे और बच्चों के बारे में नहीं सोचा. तुम ठीक कहती हो आत्महत्या अंतिम राह नहीं है, थोड़ी सी हिम्मत जुटा प्रयास कर एक नई शुरुवात करना सही राह है.कम्मो ने सर हिलाकर गोपी की बात का समर्थन किया और कसकर गोपी का हाथ थाम लिया, बादलों की तेज़ गडगडाहट के बीच दोनों की आंखें बरस रही थी, और उन आसुओं के साथ उनके मन का सारा अवसाद घुलने लगा. कम्मो और गोपी दोनो एक नई उर्जा के साथ घर की ओर चल दिए.
नोट :- आत्महत्या हल नहीं है किसी भी समस्या का....हर परेशानी का हल निकल ही आता है प्रेम और परस्पर सहयोग से.......बस एक कदम बढाने की जरूरत है.........https://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/f4c/1/16/1f642.png:)
किरण आर्य .....24 अगस्त 2016.


1 comment:

  1. बेहतरीन कहानियाँ...सभी का लेखन बेहद उम्दा व प्रशंसनीय है।ब्लॉग तो बहुत बढ़िया बनाया है प्रतिबिम्ब जी...आपका प्रयास,प्रोत्साहन और परिश्रम सर्वोपरि है...हृदय से...साधुवाद ...आभार।

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